यह मार्किट दिल्ली की चंद उन मार्किट में से है, जहाँ आपको कुछ न खरीदना हो, न खरीदने लायक लगे, फिर भी जाना चाहिए. आज सपरिवार जाना हुआ.
मेरी कज़न की दुकानें हैं अपनी वहां. अब उनकी कहानी भी थोड़ा समझने लायक है. दुकानों से इतना ज़्यादा किराया आता रहा है और आज भी आता है हर महीने कि उनके पूरी परिवार को कुछ भी और करने की ज़रूरत ही नहीं रही तकरीबन सारी उम्र.
लेकिन उनके दोनों बेटे सही से विकसित नहीं हुए. जब संघर्ष न मिले तो भी विकास नहीं होता. कहते हैं अगर बच्चा खुद अंडा तोड़ कर बाहर निकले तो ही जी पाता है, अगर आप उसे अंडा तोड़ने की ज़हमत से बचा लें, उसे संघर्ष से बचा लें तो बहुत सम्भावना है कि वो मर जाएगा थोड़े समय में ही. अमीरों के बच्चे देखे आपने कभी? थुल-थुल, ढुल-मुल जैसे उन्हें कोई मानसिक रोग हो. खैर, कुछ-कुछ दीदी के बच्चों के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन अब वक्त के थपेड़े खा कर कुछ सम्भल गए हैं.
"जो दुःख-तकलीफ मैंने देखीं, मेरे बच्चे न देखें", यह धारणा वालों को मेरे शब्दों पर गौर फरमाना चाहिए. ज़्यादा टेंशन मत लिया करो बच्चों की भैय्ये, पकने दिया करो, तपने दिया करो.
खैर, बात मार्किट की.
बद-इन्तेज़ामी की जिंदा मिसाल है यह मार्किट. कदम रखते ही कदम बढ़ाना मुश्किल कर देंगे चलते-फिरते दुकानदार.
"सर, चश्मा ले लीजिये."
"सर, बेल्ट लीजिये."
"मैडम, बैग लीजिये."
आप एक कदम चलेंगे, किसी न किसी विक्रेता की टांग-बाजू बीच में आन ही टपकेगी. मन कर रहा था कि पीट दूं, दो-चार को. कितना ही मना करो, लेकिन कहाँ कुछ होगा? वहां तो सैंकड़ों लोग यही काम में जुटे हैं. हर कदम. कदम-कदम.
पुलिस सिर्फ नकली विजिल करती है. जैसे ही पुलिस आती है, वो लोग दिखावे के लिए चंद मिनट के लिए इधर-उधर हो जाते हैं. फिर शुरू. सब सेटिंग है, वरना मैं एक दिन में सब को दादी-नानी याद दिला दूं.
और वहां मार्किट में, चलती मार्किट में, खचा-खच भरी मार्किट में NDMC के लोग झाड़ू चला रहे थे और रेहड़ी से कूड़ा उठा रहे थे. धूल उड़ाते हुए. लोगों को मुफ्त में खांसी बांटते हुए. वल्लाह! इनसे vacuum cleaner टाइप मशीन न ली गयी! ऐसी जगह के लिए भी! शाबाश! अक्ल के अंधो, मेरी दिल्ली के कौंसिलर लोगो शाबाश!!!
अच्छी बात रोज़गार चल रहा है लेकिन आखिर व्यवस्था भी तो होनी चाहिए न जी.
आख़िरी बात. शुरू में यह मिक्स टाइप की मार्केट थी, जहाँ सब्जी, मिठाई, फर्नीचर, कपड़ा तथा अन्य कई किस्म की दुकान-दारी थी. लेकिन अब यह मार्किट सिर्फ रेडी-मेड कपड़ों के लिए मशहूर है. किन्तु मेरी नज़र में यह अज़ीब सी मार्किट है, जहाँ आधे से ज्यादा माल सेकंड-हैण्ड होता है, सोच-समझ कर खरीदें तो शायद कुछ बढ़िया माल हाथ लग भी जाए आपके. वहां तो पानी तक ब्रांडेड नहीं मिल रहा था. Aqua-life नामक था कोई ब्रांड...बीस रुपये भी दो ...तो भी पानी बड़े ब्रांड का, अपनी पसंद के ब्रांड का नहीं मिलेगा. क्या हुआ अगर हम दारू नहीं पीते? पानी पीते हैं, वो भी अपनी पसंद के ब्रांड का.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
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