Friday, 8 September 2017

फोटो....फिल्म...ज़िन्दगी

फोटो देखता हूँ तो उसके इर्द-गिर्द क्या है, बैक-ग्राउंड क्या है, इस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान देता हूँ. मैं फोटो को पूरा देखता हूँ. पीछे तार पर टंगा कच्छा, दीवार पर पान की पीक, उखड़ा हुआ प्लास्टर, सफेदी की पपड़ियाँ या फिर उगता सूरज, बहती पहाड़ी नदी, दूर तक फैला समन्दर. सब. बहुत बार फोटो जिसकी है वो शायद खुद को ही दिखाना चाहता है, बैक-ग्राउंड पर उसका ध्यान ही नहीं जाता. कई बार वो सिर्फ बैक-ग्राउंड ही दिखाना चाहता है लेकिन मैं फोटो उसकी चाहत के अनुसार कभी भी नहीं देखता. मैं पूरी फोटो देखता हूँ, अपने हिसाब से देखता हूँ. फिल्म भी ऐसे ही देखता हूँ. फिल्म की कहानी, करैक्टर तो देखता ही हूँ, फिल्म की कहानी कहाँ बिठाई गई है, वो बहुत ही दिलचस्पी से देखता हूँ. जैसे 'मसान' फिल्म काशी के पंडों की ज़िंदगी के कुछ पहलु दिखाती थी, मिल्खा सिंह भारतीय एथलीटों के जीवन के कुछ रंग, जॉली एल.एल. बी. वकीलों-जजों की ज़िन्दगी. तो फिल्म कहाँ घूम रही है, मतलब जंगल, पहाड़, महानगर या कोई झुग्गी-बस्ती, कहाँ? मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, यह भी तय करता है कि मुझे फिल्म पसंद आयेगी या नहीं. ज़िंदगी देखता हूँ तो अपने हिसाब से कोई क्या दिखाना चाहता है, वो तो देख लेता हूँ लेकिन वो क्या नहीं दिखाना चाहता वो भी देखता हूँ. क्या मैं सही देखता हूँ?

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