संघ मतलब आरएसएस, मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ.
बात बठिंडा(पंजाब) की है. मुस्लिम या ईसाई को छोड़ शायद ही कोई लड़का हो जो अपने लड़कपन में एक भी बार संघ की शाखा में न गया हो....शायद मैं आठवीं में था.....ऐसे ही मित्रगण जाते होंगे शाखा...सो उनके संग शुरू हो गया जाना.....अब उनके खेल पसंद आने लगे...फिर शुरू का वार्म-अप और बहुत सी व्यायाम, सूर्य नमस्कार, दंड (लट्ठ) संचालन बहुत कुछ सीखा वहां........जल्द ही शाखा का मुख्य शिक्षक हो गया..वहीं थोड़ा दूर कार्यालय था ...वहां बहुत सी किताबें रहती थी.......पढ़ी भी कुछ......संघ की शाखा का सफर जो व्यायाम और खेल से शुरू हुआ वो संघ की विचारधारा को समझने की तरफ मुड़ गया.
लेकिन दूसरों में और मुझमें थोड़ा फर्क यह था कि मैं सिर्फ संघ की ही किताबें नही पढ़ता था, उसके साथ ही वहां बठिंडा की दो लाइब्रेरी और रोटरी रीडिंग सेंटर में बंद होने के समय तक पड़ा रहता था.......बहुत दिशायों के विचार मुझ तक आने लगे.
बस यहीं आते आते मुझे लगने लगा कि संघ की विचारधारा में खोट है.
मैं अक्सर सोचता, यह राष्ट्रवाद, यह अपने राष्ट्र पर गौरव करना, दूसरे राष्ट्रों से बेहतर समझना, विश्व-गुरु समझना, यह तो सरासर घमंड है, ऐसा ही कोई जापानी भी समझ सकता है, ऐसा ही कोई भी अन्य मुल्क का वासी भी समझ सकता है लेकिन यह तो गलत है.....और फिर भारत तो मुझे कोई महान लगता भी न था...सब जानते थे कि अमरीका, इंग्लैंड और कितने ही मुल्क हम से आगे थे....फिर काहे की महानता? किस्से-कहानियों की? इतिहास की?
पहली बात तो इतिहास का सही-गलत कुछ पता नही लगता..फिर लग भी जाए तो वो सिर्फ इतिहास है..वर्तमान नही.....मुझे संघ की अपने पूर्वजों पर, अपनी पुरातनता पर गर्व करने वाली बात भी कभी न जमती थी...मुझे हमेशा लगता कि यदि हम इतने ही महान थे तो फिर अंग्रेजों के गुलाम ही क्यों-कर हुए? मुझे लगता था कि खुद पर खोखला गर्व करने से बेहतर है अपनी कमियों को स्वीकार करना, बल्कि खोजना ताकि हम खुद को सुधार सकें.
और फिर मुझे लगता था कि संघ हिन्दुओं को जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि पर थोपना चाहता है......मेरा परिवार हिन्दू-सिख है.........तो संघ तो सिक्ख को भी हिन्दू कहता था जबकि बाबा नानक तो जनेऊ को इनकार कर चुके थे अपने बचपन में.....लगा यह तो ज्यादती है ...यह गलत है.....जो लोग हिन्दू मान्यताओं के सरासर विरोध में थे, उनको भी हिन्दू कहा जा रहा था......और फिर साफ़ समझ आया कि संघ भारत की हर पुरातन रीत-हर रिवाज़ का पोषक है.......संघ समाज में कोई वैज्ञानिक विचारधारा का पोषक नहीं है, यह तो बस चाहता है कि समाज पर हिन्दू पुरातनपंथी हावी रहे.
संघ बाबा नानक को भी महान कहता था और हिन्दू मान्यताओं को भी...अरे भाये, किसी एक तरफ तो आओ, या तो कहो कि जनेऊ बकवास है, या तो कहो कि सूरज को पानी देना गलत है या फिर कहो कि बाबा नानक गलत हैं...न, दोनों ठीक हैं, दोनों महान हैं और यही है हिंदुत्व.....जिसका न मुंह, न सर, न पैर.
जल्द ही समझ आ गया कि यह हिंदुत्व की धारणा संघ की बकवासबाजी से ज्यादा कुछ नहीं....."जो इस भारत भूमी को अपनी पुण्य भूमी मानता हो, यहाँ के पूर्वजों को अपने पूर्वज मानता हो, यहाँ कि संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता हो, वो हिन्दू है." क्या बकवास है?
अरे भाई, हम तो इस धरती को अपनी भूमी मानते हैं, हम तो पूरी इंसानियत को अपने पूर्वज मानते हैं, कौन कहाँ से आया था, कहाँ चला गया, किसे पता है? और यहाँ कि संस्कृति को ही अपना मानते होने से क्या मतलब? शेक्सपियर हमारी लिए क्यों अपना नहीं हो और कालिदास ही क्यों अपना हो? मात्र इसलिए कि शेक्सपियर भारत का नही था.
"हर आविष्कार पहले ही भारत में हो चुका था, हमारे ग्रन्थों में लिखा था".....मैं अक्सर सोचता कि विज्ञान कोई रुक थोड़ा ही गया है.....जहाँ तक हो चुका हो चुका, अब कर लो दुनिया को अचम्भित, अपने ग्रन्थ उठाओ और ताबड़-तोड़ आविष्कार कर दो....और दिनों में ही भारत को अमरीका से भी आगे बना दो....चलो और कोई न सही लेकिन संघ के लोग तो संस्कृत समझने वाले थे, वो तो ऐसा आसानी से कर ही सकते थे.
और भी बहुत सी बातें...
जल्द ही समझ आया कि संघ सिर्फ व्यायाम कराने के लिए, खेल खिलाने के लिए नही बनाया गया और न ही सिर्फ ट्रेन दुर्घटना में लोगों को बचाने के लिए और न सिर्फ बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए...नही...संघ की अपनी एक थ्योरी है, वो भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को अच्छी लगेगी लेकिन असल में वो थ्योरी उसी समाज के खिलाफ है, उसी के नुक्सान में है.
किसी भी समाज का सही खैर-ख्वाह वो व्यक्ति या वो संस्था होती है जो उस समाज की कमियां बताने की हिम्मत कर सके...जो उसके अंध-विश्वास दूर करने का प्रयास करे....जो उस समाज में वैज्ञानिक सोच कैसे बढ़े इसकी चिंता लेता हो.........लेकिन यह सब करने के लिए तो समाज की नाराज़गी झेलने पड़ती है, समाज गुस्सा होता है कि उसे जगाया क्यों जा रहा है...... संघ ही हिन्दू समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है क्योंकि संघ हिन्दू समाज के अंध-विश्वासों का पोषक है, क्योंकि संघ हिन्दू समाज में वैज्ञानिकता आने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है.
संघ ने हिन्दू समाज का बहुत नुक्सान किया है
इसके जर्जर ढाँचे को ठोक-पीट कर गिरने से बचा रखा है.
इसे गिरने देते, नया समाज खड़ा होता.
बस पुरखों की बकवास को पूजते रहेंगे. मैं पुरखों से सिर्फ सीखने में विश्वास रखता हूँ.
मेरे नज़र में कोई भी कहीं भी गलत-सही हो सकता है, पुरखे भी. सो उनको वैसा ही सम्मान या असम्मान देता हूँ. मिसाल के लिए पृथ्वीराज चौहान ने माफ किया गौरी को तो यह कोई अक्ल का काम नहीं था.
फिर पुरखे कोई इसी मुल्क में पैदा हुए जो, वो ही नहीं है हमारे. जिसने हमें बल्ब दिया, हमारा घर रोशन किया, हम उसके भी अहसान-मंद हैं. वो भी हमारा पुरखा है.
संघ का इस्लाम के लिए स्टैंड आंशिक तौर पर सही है.
वो जो लोभ से या डर से या ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कराए उसके खिलाफ है, वो सही भी है.
इस्लामिक आक्रमण का विरोध किया जाना चाहिए था लेकिन वो किसी और ढंग से हो सकता था. उसके लिए तार्किकता फैलानी चाहिए. क्रिटिकल थिंकिंग का नारा बुलंद करना चाहिए न कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" का.
यह सब दसवीं-ग्यारवीं क्लास तक आते समझ आ गया था.
सो तभी संघ छोड़ दिया.
कभी-कभी याद आ जाता है शरद-पूर्णिमा की रात को शाखाओं का इकट्ठा होकर खीर खाना.......संघ कार्यालय में मुफ्त ट्यूशन पढ़ाया जाना......वहीं पर सहभोज का आयोजन., जिसमें सब अपने घर से खाना लाते थे और मिल बाँट खाते थे........वो कसरतें, वो खेल.........सब बढ़िया.....लेकिन वो तो सतही था......भीतरी तो थी संघ की विचारधारा जो बिलकुल ही सतही दिखी मुझे.
और आज सालों बाद, मेरा वो संघ को छोड़ने का कदम मुझे और भी ठीक प्रतीत होता है.
शेयर कर सकते हैं, चोरी नही.
नमन..तुषार कॉस्मिक
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