Monday 29 June 2015

RELATIONS

CAN WE MAINTAIN RELATIONS WITH DIFFERENCES?

Often I see people who claim and do claim somewhat proudly having a good relationship with someone even having differences.

Hmmmm.........What I see?

I see, we all, are never in absolute agreement or disagreement with anyone.

We must be having some differences with our closest friend and must be having some agreements with our worst enemy.

So what I wanna show?

I wanna show you that it is the quality and quantity of agreement and disagreement which decides whether a relationship will float or sink.

As long as you feel that the differences are unimportant or bearable you go on maintaining, enjoying relations.

So what I conclude?

Whenever someone exclaims that the one is enjoying a relationship even with differences or when someone wanna claim that even though there are huge differences still the relationship is floating, I conclude that the differences are small, bearable, not big, not big enough to make the SHIP OF THE RELATIONS sunk.

That is it.

Copyright.




CIRCUMSTANCES, MAKERS & BREAKERS OF HUMAN RELATIONS

See, our friendship and animosity is mostly circumstantial.

Circumstances can turn the fastest friends into cut throat enemies. Literally. Suppose 40 good friends are crammed in a room and do not have anything to eat for many days. A time might come when the physically strong ones will kill the weaker ones and start eating their flesh.

Circumstances can turn hardcore enemies into allies. The blood thirsty enemies, facing a bigger mutual threat, will forget their animosity and become allies against that mutual enemy.

People often abuse politicians for their opportunist kinda alliances. Before elections they talk evil of each other and after elections, they become allies to form a Government. But this does not happen in politics alone.

This happens in every arena of LIFE.

Lawyers fight with each other in the Courts and sit with each others in Coffee houses.

An understanding of Circumstances can give us deeper understanding of human relations.



!!!! अहिंसा/प्रेम की शिक्षा खतरनाक भी है !!!!

सबको गले लगाना, अहिंसा, प्रेम यह सब बढ़िया बातें हैं, बढ़िया जीवन मूल्य, लेकिन जीवन ऐसा है नहीं ......तो बुद्ध और गुरु गोबिंद में से यदि चुनना हो तो गोबिंद साहिब को चुनता हूँ, सर काट दो बुरे का यदि कोई और चारा न हो, यह जानते हुए कि वो भी सोया बुद्ध है, पगलाया बुद्ध है, जानते हुए भी


कृष्ण अर्जुन को लड़ना सिखाते हैं, अर्जुन तो बुद्ध हुआ जा रहा था, गांधी बा
बा, लेकिन वो सिखाते हैं लड़ना .....फिर बुद्ध के चेलों को भी सीखना पडा मार्शल आर्ट, फिर गोबिंद सिंह साहेब का संत और सिपाही दोनों होने का फार्मूला, फिर गांधी बाबा की अहिंसा .......एक संघर्ष है हिंसा और अहिंसा के बीच.........लेकिन चुनना हो तो बुद्ध और गांधी को नहीं चुन सकता....कृष्ण को भी नहीं ....चूँकि चाहे कृष्ण हिंसा सिखा रहे हैं लेकिन कौरवों और पांडवों में से ज़्यादा सही कौरवों को मानता हूँ सो कृष्ण की हिंसा को गलत मानता हूँ .....मात्र गुरु गोबिंद को चुनुँगा


हिंसा क्यों है, कैसे है , यह देखना ज़रूरी है......बिन हिंसा तो जीवन ही सम्भव नहीं....जीवन अपने आप में महा-हिंसा है.........सांस लो तो हिंसा, खाओ तो हिंसा........चलो तो हिंसा.......आप जैन हो जाओ.....कपडा बाँध लो मुंह पर, छान कर लो पी....लेकिन खाना खाओगे तो ...वो खाना भी तो हिंसा से ही पैदा होता है......ढूंढते रहो वृक्ष से पक कर अपने आप गिरा फल.....हो गया जीवन....नहीं, हिंसा बिन जीवन ही नहीं



हिंसा के बदले में हिंसा हो तो क्या बुरा, गलत हिंसा के बदले में सही हिंसा ही जवाब है.......हाँ, मौका देख सकते हो यदि लगे की शांति का सन्देश बिन हिंसा के दिया जा सकता है तो उससे बेहतर कुछ नहीं लेकिन यह स्थित -काल-देश पर निर्भर है कि शांति का संदेश शांति से दिया जाना चाहिए या हिंसा से



तो न तो मैं हिंसा के पक्ष में हूँ न विपक्ष में......चाहता तो मैं भी यही हूँ कि प्रेम हो, शांति हो लेकिन जैसा मैंने कहा मुझे हिंसा और अहिंसा/ प्रेम में से यदि कुछ चुनना होगा तो मैं व्यक्ति विशेष, स्थिति विशेष के मुताबिक चुनुँगा ...



यदि व्यक्ति/स्थिति मजबूर करे तो हिंसा का बदला हिंसा भी सही हो सकता है ..यह सदैव शांति/प्रेम की शिक्षा घातक है...खतरनाक है ...नाक को ही नहीं पूरे शरीर को......शरीर को ही नहीं पूरे समाज को खतरा है ......सावधान

!!पंगे और स्यापे !!

या तो मरी मरी ज़िंदगी जीयो या फिर पंगे लो
पंगा पंजाबी शब्द है....बड़ा प्यारा
इसके आसपास का ही शब्द स्यापा
इनके शाब्दिक अर्थों पर मत जाएँ, वो तो दोनों का मतलब जुदा है, लेकिन फिर भी दोनों शब्द एक दूसरे की जगह फिट किये जा सकते हैं
तो मैं कह यह रहा था साहेबान, हाज़रीन की इंसानी तरक्की जितनी भी हुयी है, हुयी पंगे लेने वालों की वजह से है
तजुर्बे करने वाले...स्यापा पायी रखने वालों की वजह से
कहते हैं, कितना सही कहते हैं इसका मेरा कोई ठेका नहीं चूँकि कहते वो हैं मैं नहीं, तो जनाब / मोहतरमा कहते हैं कि गल्लैन नाम का आदमी कब्रों में से लाशें निकाल उन्हें रात को अपनी टेबल पर चीर फाड़ करता था और जिस्म के अंदर की anatomy की तस्वीरे बनाता था, तफसील से लिखता था
पंगेबाज़
सब पंगेबाज़
या तो मरी मरी ज़िंदगी जीयो या मुर्दों को उठा दो
उखाड़ दो
बहुत पहले एक फिल्म देखी थी Frankenstein, उसमें एक वैज्ञानिक मुर्दों को कब्र से ला ला कर उनके हाथ पैर काट काट एक नया शरीर तैयार करता है आड़ा टेड़ा ...और वो ही मुर्दा जिंदा हो जाता है, उसी का नाम होता है Frankenstein.....लेकिन वो मुर्दा जहाँ तक मुझे याद है अच्छा मुर्दा होता है, अच्छाई से भरा
लेकिन सब मुर्दे ऐसे नहीं होते , उन्हें उखाड़ो तो वो कोई ऐसे ही तो बख्श नहीं देंगे...ज़िंदगी छीन लेते हैं...जो उनको उठाये, उखाड़े, ज़िंदगी देने की कोशिश करे...उसकी ज़िंदगी छीन लेते हैं
मुर्दे तो मुर्दे हैं.......कबीरा यह मुर्दन का गाँव
सो पंगे लो, स्यापे डालो .......बस होशियार रहो, मुर्दे मार न डालें

!!हटाओ पर्दे, ये नकाब, ये घूंघट, ये बुर्के!!


अबे कौन बच्ची पर्दों में रहना चाहती है
ब्रेन वाश कर दो, और फिर बोलो कि देखो यह सब उनकी अपनी मर्ज़ी है, फ्री-विल

बुर्क़ा फ्री-विल है, घूंघट फ्री-विल है, पर्दा फ्री-विल है

शाबाश

कभी बच्चे , बच्चियां पाल कर देखो......उन्हें सिखाना मत कि यह तुम्हारी पवित्र किताब में लिखा, इसलिए यह ज़रूरी है

फिर देखना कि कितनी बच्चियां बुरका और घूंघट में रहना मांगती हैं, तब तुम्हें पता लगेगा कि फ्री-विल होती क्या है

कहीं उत्तेजित न हो जाए, मर्द औरत को देख, कहीं औरत उत्तेजित न हो जाए सेक्स के लिए आदमी को देख सो पर्दों में ढक दो ......सात पर्दों में ढक दो ....लाख पर्दों में ढक दो

वो, कुदरत , वो खुदा, वो प्रभु, वो स्वयम्भु ....वो पागल है जिसने सेक्स बनाया.....जिसने औरत को औरत और मर्द को मर्द बनाया...सबको हिजड़ा ही बना के भेज देता...बच्चों का क्या है, बना देता कोई और सिस्टम.......कुछ भी, सर्व शक्तिमान जो ठहरा....कान में उंगली हिलाओ, बच्चा बाहर, या फिर नाक में , या फिर कुछ भी और..... तो मूर्ख ही रहा होगा. वो तो आसमानी बाप....कपड़ों समेत क्यों नहीं पैदा किया इंसान को..........महामूर्ख.......कम से कम एक चड्ढी ही पहना भेजता , बेशर्म........

तुम समझदार, तुम्हारी आसमानी किताब समझदार ......कभी सोचा कि आसमानी किताब की कथनी और आसमानी बाप की करनी में इतना फर्क क्यों है......क्योंकि कोई किताब आसमानी नहीं है.....सब किताब ज़मीनी हैं.....लेकिन ज़मीनी हकीकत से दूर.

पर्दे ...अगर पर्दे डालोगे तो नज़रें और ज़्यादा तेज़ हो जायेंगे...नज़रें वो देखेंगी जो है भी नहीं, नज़रें हूरें देखेंगी, नज़रें गज़ल गायेंगे, शेरो-शायरी करेंगी......नजरें पागल हो जायेंगी

अब तो समझो कि यह पर्दे, ये नकाब, ये घूंघट, ये बुर्के .....ये सब इंसानियत को पागल करने के ढंग हैं...हटाओ........हटाओ, पर्दे डालने से नग्नता छुपती नहीं, और उभरती है.....

उम्मीद है समझेंगे.....नमन

कॉपी राईट

!!! फर्क IPP और AAP का !!!

मुझ से कुछेक मित्रों ने पूछा था कि IPP और AAP में फर्क क्या है......बताता हूँ....केजरीवाल कहते हैं कि उन्हें गणतंत्र दिवस की परेड में बुलाया नहीं गया....उनके साथी लोग भी यहाँ पोस्ट कर रहे हैं कि भई यह तो अन्याय है..गलत है....यह दिवस कोई भाजपा का थोड़ा है, यह तो पूरे राष्ट्र का दिवस है.

अब फर्क यह है कि मैंने IPP एजेंडा मे सिफारिश की है कि इस तरह के सब दिवस मानना बंद कर देना चाहिए.....इतना तामझाम, सब बंद, आपको मानना है, सिंबॉलिक आयोजन करें और फिर काम शुरू रोज़ की तरह बल्कि उससे भी ज़्यादा जोश से .....लेकिन यह गाजा बाजा हर साल....साल में दो बार छुटी बंद .

जब केजरीवाल कह ही रहे हैं कि वो आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे हैं तो फिर ठीक है.....करो विरोध कि यह सब गणतन्त्र-स्वतंत्र दिवस बंद होना चाहिए....सुना है कि शायद किया भी था विरोध लेकिन लगता है कि विरोध उपरी था

मैं करता हूँ विरोध IPP एजेंडा पढ़ लीजिये, लिखा है मैंने .. लिखा है कि जन समर्थन से ऐसा होना चाहिए ....चूँकि जब वर्षों से कोई परम्परा चली आ रही हों तो यकायक बदलाव पब्लिक को नागवार गुज़र सकता है...सो पब्लिक की राय से ऐसा किया जाना चाहिए

मेरा मानना है कि इस तरह के आयोजन पाखंड हैं, ढकोसला हैं.....राष्ट्र की सम्पति का, समय का, उर्जा का गलत इस्तेमाल है....

क्या हासिल है इन आयोजनों से.....?

यह मजाक है, मजाक है भारत के उन तमाम लोगों का जो आज तक दाल रोटी की हद से बाहर नहीं हो सके

इसे गणतन्त्र कहते हैं?

जब यह गणतन्त्र है ही नहीं तो फिर काहे का आयोजन और फिर यदि सच में विरोध किया था तो फिर काहे का विरोध कि हमें नहीं बुलाया, आपको तो आज और जोर-शोर से यह कहना चाहिए कि ऐसे आयोजन होने ही नहीं चाहिए ?

यह है फर्क IPP और AAP का और ऐसे ही बहुत और फर्क हैं साफ़ करेंगे कि IPP और AAP एक नहीं, न एक जैसी हैं

!!!बदलो ग्रन्थों को किताबों में !!!



किसी भी किताब को मात्र एक सलाह मानना चाहिए, सर पर उठाने की ज़रुरत नहीं है, पूजा करने की ज़रुरत नहीं है..... किताबें मात्र किताबें हैं.....उनमें बहुत कुछ सही हो सकता है बहुत कुछ गलत भी हो सकता है, आज शेक्सपियर को हम कितना पढ़ते हों....पागल थोड़ा हैं उनके लिए, मार काट थोड़ा ही मचाते हैं...और शेक्सपियर, कालिदास, प्रेम चंद सबकी प्रशंसा करते हैं तो आलोचना भी करते हैं खुल कर.....

यही रुख चाहिए सब किताबों के प्रति......एक खुला नजरिया.....चाहे गीता हो, चाहे शास्त्र, चाहे कुरआन, चाहे पुराण, चाहे कोई सा ही ग्रन्थ हो

ग्रन्थ असल में इंसान की ग्रन्थी बन गए हैं......ग्रन्थ इंसान के सर चढ़ गए हैं...ग्रन्थ इंसान का मत्था खराब करे बैठे हैं...

इनको मात्र किताब ही रहने दें.....ग्रन्थ तक का ओहदा ठीक नहीं......

ग्रन्थ शब्द का शाब्दिक अर्थ तो मात्र इतना कि पन्नों को धागे की गाँठ से बांधा गया है...धागे की ग्रन्थियां....

लेकिन आज यह शब्द एक अलग तरह का वज़न लिए है...ऐसी किताबें जिनके आगे इंसान सिर्फ़ नत मस्तक ही हो सकता है...जिनको सिर्फ "हाँ" ही कर सकता है....तुच्छ इंसान की औकात ही नहीं कि वो इन ग्रन्थों में अगर कुछ ठीक न लगे तो बोल भी सके...ये ग्रन्थ कभी गलत नहीं होते...इंसान ही गलत होते हैं, जो इनको गलत कहें, इनमें कुछ गलत देखें वो इंसान ही गलत होते हैं....

सो ज़रुरत है कि इन ग्रन्थों को किताबों में बदल दिया जाए....इनमें कुछ ठीक दिखे तो ज़रूर सीखा जाए और अगर गलत दिखे तो उसे खुल कर गलत भी कहा जाए...इनको मन्दिरों, गुरुद्वारों और मस्जिदों से बाहर किया जाए..इनके सामने अंधे हो सर झुका, पैसे चढ़ा, पैसे मांगने का नाटक बंद किया जाए

नमन

"HOW TO EARN - MOVING FROM SHIT TO HIT"

It is the learning which we are selling always. Not the services, not the products. We sell the learning.. Even when we are selling any product or any service still we are selling our "learning".

I was discussing McDonald's success story with some of my friends. 

One of my friend said that be it McDonald's or Cafe Coffee Day, they are actually into the business of "property", they hire a place and then sublet to their customers, who sit their, chat with friends, family and beloved ones. I said, yeah that is right.

Another friend said that actually they are selling a "system", their products are immaterial, actually their products are just crap. If they stop advertising perhaps within one year their sales will fall drastically. I agreed, yeah, that too is right. They are selling their "system" and now they are just copycatting, producing replicas.

But as I see, they are selling their "learning". They learnt by and by, how to hire a place, how to sublet, how to make a system, how to make its replicas.

Product!

Do you think that none can make a better burger than McDonald's? I think even the Wada-Pavs sold in Mumbai are far better than their burgers.

Do you think none can make better coffee than CCD? I think espresso coffee served by a shop near to Apna Baazar, in Jwala Heri, Paschim Vihar, New Delhi is far better than the ones in CCD.

So see, product is not very much important for them, It is the system and it is the learning to erect that system which is important.

They are selling this "learning". Once they learnt, they go on and on and on earning.

So see, learning is the most important. learning is the key to earning.

Just start studying any business, if anyone can do, you and me or anyone can do it successfully. And if we fail that is because of lack of learning, perhaps we underestimated the value of learning.

LEARNING is the key to earning. But learning WHAT?

Here I see, instead of teaching how to be an entrepreneur, we are teaching our kids to be employees, teaching them crap, worthless things and we call it education.

That is the shit!

The decades we waste of our kids, they can learn how to be successful entrepreneurs in this period.

That is the hit!

Better we move from shit to the hit.
Sooner we move from shit to the hit.

Naman.

Copyright.

KNOWING?

Even after knowing, one do not know.
Knowing can give a misconception of knowing.
One can go on living in an oblivion of knowing. 

Seems paradoxical, I explain. 

Knowing can be knowing of words only. Shallow knowing.

A class 4th student, living in an English speaking atmosphere can perhaps understand a play of Shakespeare but perhaps by word meanings only, can he understand the life experiences of what William Shakespeare wanna convey through those words? Perhaps not, because he has not seen that much life to relate the contexts, to compare the different aspects of life.

Knowing can be knowing of words' meaning. But still not knowing the meaning deep enough to get penetrated into one's life.

Almost everyone knows that physical exercise is good but this knowing remains knowing only, this knowing is not so much knowing which could penetrate into one's being.It remains at surface only and one go on living in an oblivion of knowing.

Knowing is a very tricky thing.

Do you know, what is the meaning of Sanskrit word "Ved"? It means "knowing".
Do you know what is the meaning of Sikh? It means a learner, one who is a seeker of knowing.

Understand this knowing, do not be a victim of knowing, be a master of knowing.

With the advent of internet, today it is very easy to know different things, and people go on collecting all kinda garbage.

Knowing what to know and what not know, very important.

You know and you know that you know. ...OK.
You don't know and you know that you don't know.....that too OK
But you don't know and you don't know that you don't know....that creates the problem.

Sometimes you don't know that you don't know.
And sometimes you don't know that you know.
And sometimes you know that you don't know.
And sometimes you know that you know.

This knowledge is really a tricky thing.

Confused. Good. Confusion is a very high state of mind.

Be confused, never be fused, but be confused.

There is nothing bad in being confused and there is nothing good in being fused.

Clarity comes outta confusion.

Know it.

All friends, welcome, participate plz.

Copy Right

THE REAL POLITICIANS

This democracy is mediocracy. Electing mediocre people, by the electors who are mediocre.

Darwin's theory ,"survival of the fittest" does not fit here. Just see human history, our fittest people could not survive. 

Our philosophers like Socrates, Mystics like Jesus, Painters like Vangogh, Writers like Oscar Wilde, Scientists like Galileo, they either became mad, or sick or landed in jail or got murdered. Such people are not elected. Such people are selected to get humiliated, prosecuted.

Our cream is bound not to survive.Our society is such a stupid thing. Our mediocre people are bound to survive, live long and rule because they accomplish the stupidities, mediocrity of the multitude.

A real political party is that which stands in election declaring knowing pretty well, declaring before handedly that it is going to get defeated and that defeat will be the defeat of the society.

Such a party, such politicians have the solutions but society is so idiotic it cannot face the real solutions, because problems are nowhere else except into the very weaving of the society and the real leaders are going to expose that and which can never be accepted by the society because it has always presumed that problem is somewhere else, hence the solutions too are somewhere outside.

But the real leaders are gonna smash this misconception, the real leaders are gonna attack the very fibre of the society.

The real leaders are gonna challenge the very fabrication of the society.

And the society is never gonna elect the real leaders, the real leaders are gonna get defeated in elections for sure but in this defeat will be the ray of hope for the society, future of the humanity, there is no other way out, there is no other way in.

Your leaders are gonna fail.
Your heroes are gonna fall.

Teachers are cheaters
Leaders are dealers
Administrators are traitors

Great LIVES are great EVILS
PASSIONLESS COMPASSIONLESS

Priest and Pope
No Hope, No Hope
Parted East and West
STILL ALL THE BEST
STILL ALL THE BEST

A political party designed to succeed in elections eventually will prove no great help to the society, only the party designed to fail will help. Hope lies in the failure of such a party. And leaders of such a party are the real Politicians.

COMMENT PLZ.

DEMAND & SUPPLY DECIDE THE PRICE--FAIR CAPITALISM-BULLSHIT

Example-1

Most of the diamond supply is controlled by a company head-quartered in London called DeBeers. Several times a year, DeBeers invites diamond
merchants to London to view diamonds. 

Each dealer is shown a predetermined quantity and quality of diamonds and told what the price is. The number of stones each dealer can buy is strictly limited.

In fact, though, DeBeers has several years’ worth of supply in their vaults and continues to mine more and more diamonds every year. Basically they control the supply so the market is not flooded with diamonds.

in reality, emeralds are far rarer than diamonds, but there is no central organization controlling the supply, so a good-quality emerald tends to sell for about the same price as a similar quality and size diamond. If the supply were not controlled by DeBeers, diamonds would be far cheaper than emeralds.
Fair market. Steered by demand and supply. Free market.Bullshit!



Example-2

I have been into properties for several years. If you start hoarding rice, sugar, wheat or anything edible, it is illegal. It causes black marketing.You simply cannot do this. These items are life essentials.

But have not you heard that ROTI (BREAD), KAPDA (CLOTH) AUR MAKAAN (SHELTER) are 3 basic physical needs for survival.

Wheat and rice like things you cannot hoard. No, it is black marketing but what if you go on hoarding houses?

It is WHITE MARKETING. It is INVESTMENT.

Fair market. Steered by demand and supply. Free market. Bullshit!




Example--3

Do you know, these days even a kid of 2 years know what Pepsi, Coke, Pizza-hut, McDonald is? Still they go on spending millions of dollars on advertising. Why?

Because they know there is no demand of there products. But they have the supplies. They want to supply.

Hence they create demand. They create a demand by continuously brain washing the people.

Supply is not because of the demand.
Demand is because of the supply.

Demand is not the deciding factor of the price of the supply.
Supply is creating the demand and supply is deciding the price.

Fair market. Steered by demand and supply. Free market. Bullshit!
One of the reasons I am against this kinda capitalism.

Comment please.
Copy Right.

JUDGE BUT DON'T BE JUDGEMENTAL

Being Non judgemental doesn't mean that one should not judge, one should have no opinion, one should become a vegetable. 

No.

It simply means that one should judge, opine but like a third person having no personal grudge or favours or biases.

Judging without being judgemental.

उदासीन होने का अर्थ यह नहीं है कि उदास रहो.
इसका मतलब यह भी नहीं है कि अपनी कोई राय ही न रखो, लुल्ल हो जाओ
इसका मतलब है कि जब भी किसी विषय विशेष पर अपनी राय बनानी हो तो त्रित्य व्यक्ति की तरह विषय को देखो, अपनी व्यक्तिगत लाग लपेट बीच में मत लाओ




NEVER BE NON-JUDGEMENTAL

Often I come across a new age statement,"Never be judgemental".

I see this statement quite foolish.

I always say,"Be judgemental, be mental, why to remain only physical?"

I am judgemental and I know everyone is, there is never any moment when one is not judgemental.

If you think, you judge, if you judge, you are judgemental.

So Never give a shit to this bullshit,"Never be judgemental"

Be judgemental, you are always already. You never live without being judgemental, you simply cannot live without being judgemental. So, instead of saying not to be judgemental, I will ask you to be judgemental, very much, but with deeper judgements, deeper and deeper and deeper.

You might be wrong in many of your judgements, but never mind, one come at rights in hit and trial method, no issue.

We do the right things, while doing the wrong things.

That is the way, that is the only way.

TALENT-- NOTHING INHERENT IN IT

There is nothing like inherent natural talent. It is just social exposure that decides one's talent. 

Just imagine that we are capable of downloading human's memory in a pen-drive and transfer to another person's mind.

What will happen?

Someone, who never drawn a single straight line can become a great painter.

Someone who never jumped a narrow street drainage can become a great Gymnast.

Someone who was afraid of mathematics can become Einstein.

Talent is nothing but impact one's social exposure.Nothing natural, nothing inherent.

Social exposure, we cannot fully control its impacts on different people. The kids put in a similar class room, taught by same teachers get different grades, Reason? They are being impacted by so many other factors. At home, at play, by peers, by TV programs. So many other factors. Hence the differences.

But why kids born and brought up in a Hindu atmosphere become mostly Hindu? Simple. Impact of Social exposure.

But why kids taught in a same class room, by same teacher score different marks? Simple. Impact of Social exposure.

Social exposure decides some macro level but at micro level there may be individualistic differences. We control social impact but not 100%. That is why what particular exposure will make what exact mind pattern on anyone, it is not 100 percent predictable. It is not 100% fixed.

A data when uploaded to a computer is uploaded as it is.
But when uploaded to a human mind, it gets coloured by a human's pre-data.
That is a reason why we see different impacts of same social exposure on different individuals.

In the future, this pre-data and its impact will be managed and the results will become near to the perfection.

In a Hindu atmosphere, a kid become a Hindu but may not be Hard core temple going Hindu.

Further, with some more studied the same Hindu kid may become a Christian or an atheist or whatever.

Social exposure.

So, my conclusion is deciding factor is social exposure, not some Nature given, God given Gifts.

If Pablo Picaso was a great painter, he was only because of some special social exposure, surroundings.

If Einstein was great scientist, only because of certain social exposure.

If Rahul Gandhi & Bilawal Bhutoo are idiots, they are just because of social exposures.

Do you think nature does some discrimination?
Does nature makes somewhat better than the others?
In general not.

All kids are born Genius.
Just watch them and you may perhaps believe me.

In future, with the introduction of more sophisticated methods of data transfer to human minds, this is also a kinda of social exposure, we will see more controlled impacts. That day may prove a bane or a boon like every new technology science gives into human hands.

Beware!

Copy Right.

क्या हर बन्दा अपनी अपनी जगह सही है?

"हर बन्दा अपनी अपनी जगह सही है"

"आपके विचार मात्र आपकी ओपिनियन हैं"

"Don't be judgemental, whatever you think right or wrong, that is only your perception.Far from reality"

इस तरह की बातें...कुछ कुछ

मेरा मानना है कि इस तरह की थ्योरी इंसान को झोलझाल बनाती हैं, उसकी सोच को लुल्ल कर देती हैं (भाषा के लिए माफी.....कृपया PK फिल्म को ध्यान में रखा जाए)

यह थ्योरी ग़लत तो है ही....खतरनाक भी है.....ऐसी थ्योरी ही ज्ञान विज्ञान की तरक्की में बाधा हैं.

ठीक और गलत का फैसला हालात....यानि देश काल...यानि ख़ास सिचुएशन ...यानि तमाम गवाह और मुद्दों की जानकारी की रोशनी में ही किया जाता है

यदि ऐसा न हो तो आप कोई ज्ञान विज्ञान विकसित ही नहीं कर सकते

यदि ऐसा न हो तो कभी आइंस्टीन आइंस्टीन न हो पाते, कभी न्यूटन , न्यूटन न हो पाते

जब यह मानेंगे कि कुछ भी सही गलत नहीं होता, कैसे कोई भी समाजिक विज्ञान विकसित करेंगे......कैसे मनोविज्ञान, राजनीति विज्ञान, समाज विज्ञान...कैसे विकसित करेंगे....सब कोशिश में रहते हैं कि एक बेहतर समाज घड पाएं....कैसे घडेंगे ....जब हम इंसानों की दुनिया में कुछ "ठीक गलत होने" के बेसिक कांसेप्ट को ही नकार देंगे ?

"बिहार में परीक्षा में नकल ....लानत, लेकिन किस पर"

बिहार में परीक्षा में हो रही नकल के बहुत फोटो छापे मित्रों ने पीछे ........बहुत कोसा वहां के निज़ाम को, सरकार को......

मुझे लगता है गलत कोसा.......गलत नज़रिया अख्तियार किया मित्रों ने......

मेरी समझ है कि विद्यार्थी जो कर रहे थे सही था.....लानत भेजो ऐसी विद्या को , जो विद्या है ही नहीं......इस तरह की विद्या को नक़ल कर के, आधा अधूरा पढ़ के जो विद्यार्थी पास करे वो समझदार है, वो प्रैक्टिकल इंसान है, जो रट रट कर जाए, सब सीख सिखा जाए वो मूर्ख है.....

रखा क्या है इस पढ़ाई में, कहाँ काम आती है, कितना काम आती है.....और इंसान को कितना समझदार बनाती है?

बकवास.....बढ़िया है, मित्रो अगली बार और खुल कर करो नक़ल...और लानत भेजो उन पर जो तुम्हारी फोटो सरकाते फिर रहे हैं फेसबुक पर, इस मंशा से जैसे पता नहीं कितना बड़ा अपराध हो गया हो, गुनाह हो गया हो

"बदमाश औरतें"

महिलाओं में एक अलग ही ब्रिगेड तैयार हो गयी है......बदमाश ब्रिगेड...जो बात बेबात आदमियों को गाली देती हैं, हाथ उठा देती हैं, थप्पड़, लात घूंसे जड़ देती हैं......और अक्सर आदमी बेचारा पिटता है, सरे राह.........

क्या है इन औरतों की शक्ति का राज़?....

इन्हें लगता है कि इनका औरत होना सबसे बड़ी शक्ति है....खास करके भीड़ में..........समाज का सामूहिक परसेप्शन बन चुका है कि आदमी शिकारी है और औरत शिकार, बेचारी अबला.....सो यह बेचारी अबला बस मौका देखते ही आदमी की इज्ज़त उतार देती है....इसे लगता है कि अव्वल तो आदमी उस पर वापिसी हाथ उठाने की हिम्मत ही नहीं करेगा और करेगा भी तो वो अपने कपड़े फाड़ लेंगी.......शोर मचा देंगी........बलात्कार का आरोप लगा देंगी..

इलाज़ क्या है.......इलाज एक तो यह है कि समाज में यह विचार प्रसारित किया जाए कि औरत मर्द किसी को भी एक दूजे के खिलाफ अत्याचार की छूट नहीं दी जा सकती

दूजा है ये जो बदमाश किस्म की औरतें हैं इनको जब भी सम्भव हो बाकायदा तरीके से धुना जाए.........लकड़ी को लकड़ी नहीं काटती...लेकिन लोहे को लोहा काटता है

यदि मर्द को औरत की इज्ज़त से खिलवाड़ करने का हक़ नहीं है तो औरत को कैसे है ?

कानून बिलकुल अपना काम करता है, लेकिन आप पर कोई जिस्मानी वार करे तो आप क्या करेंगे?....आत्म रक्षा आपका कानूनी हक़ है .........निश्चिंत रहें किसी के भी कपड़े फटे होने से साबित नहीं होता कि उसके साथ बलात्कार हुआ है .....इस तरह के आरोप केस के शुरू में ही धराशायी हो जायेंगे

!!! टैक्स !!!

मास्टर जी-1 अप्रैल को मुर्ख दिवस क्यों कहते है?

पप्पू- हिंदुस्तान की सबसे समझदार जनता,पूरे साल गधो की तरह कमा कर 31 st मार्च को अपना सारा पैसा टैक्स मे सरकार को दे देती है।
और 1 st अप्रैल से फिर से गधो की तरह सरकार के लिए पैसा कमाना शुरू कर देती है। इस लिए 1st अप्रैल को मुर्ख दिवस कहते है। ( By my friend Vinod Kumar)

टैक्स भरो इमानदारी से!!

क्यों भई, क्यों भरें इमानदारी से टैक्स? चोरों जैसे टैक्स लगा रखें हैं....और उम्मीद करते हैं कि टैक्स इमानदारी से भरें लोग...........

नहीं, टैक्स कम होने चाहिए......सरकारी खर्चे घटने चाहिए.....एक सरकारी नौकर जिसे पचास हज़ार सैलरी मिलती है महीने की, तथा और तमाम तरह की सुविधायें.....वो खुले बाज़ार में पांच से दस हज़ार भी न पा सके..........कहाँ से दी जा रही है उसे सैलरी? पब्लिक से लिए गए टैक्स से.......

सो यह तो बात ही नहीं कि लोग टैक्स इमानदारी से भरें....असली बात है कि भरें ही क्यों?

तुम कुछ भी अनाप शनाप टैक्स लगा दो और जो न भरे उसे चोर घोषित कर दो, उसके पैसे को दो नम्बर का घोषित कर दो. लानत! चोर तो तुम हो........

संसद की कैंटीन में मुफ्त जैसा खाना खाते हो, चोर तो तुम हो...

सरकारी बंगले खाली नहीं करते, चोर तो तुम हो.......

तमाम तरह के टैक्स थोपने के बाद भी राजमार्गों पर टोल टैक्स ठोक रखें हैं, क्यूँ? क्या इतने सारे टैक्सों से अच्छी सडकें नहीं बनती, जो अलग से टोल टैक्स की ज़रुरत है? चोर तुम हो, जो उन सड़कों के इस्तेमाल के लिए भी टोल टैक्स ले रहे हो, जो आम सड़कों से भी गयी बीती हैं, गड्डों से भरी हैं, चौड़ाई में छोटी हैं और जिन पर रोशनी तक की सुविधा नहीं है...चोर तुम हो

भारत का नेता पाकिस्तान से डराता है, पाकिस्तानी नेता भारत से डराता है...दोनों तरफ सेना खड़ी रखते हैं...ये जो सेना है, इसका खर्चा कौन भरता है? पब्लिक

क्या यह सेनायें घटाई, हटाई नहीं जा सकती और पब्लिक के पैसे से, टैक्स से फ़िज़ूल का खर्च कम नहीं किया जा सकता? किया जा सकता है....लेकिन नहीं, इन्हें तो डराए रखना है न जनता को.........ताकि ये लोग पॉवर में बने रहें

देशभक्ति की परिभाषा भी नेतागण ने अपने हिसाब से बना रखी है..........टैक्स भरो तो देशभक्त, दूसरे मुल्कों से लड़ाई में शहीद हो जाओ तो देशभक्त..........

असल में टैक्स भरना, नेतागण और सरकारी अमले का पेट भरना है ....

बहुत सर खपाई करते है कि टैक्स का साधारण करण कैसे हो? लगाना ही हो तो खरीद पर टैक्स लगाओ बस......और वो भी आटे में नमक जैसा ...सरकार को पैसे की ज़रुरत, व्यवस्था चलाने के लिए चाहिए न कि ऐयाशी के लिए......

सब सरकारी कर्मचारी कच्चे करो, कर्मचारी काम करें तभी ओहदे पर रहें, वरना बहुत और लोग खड़े हैं जो बेरोजगार हैं और इनसे कहीं कम पैसों में काम करने को राज़ी हैं......

ज़्यादा से ज़्यादा काम CCTV के नीचे लाओ, RTI के नीचे लाओ, TIME LIMIT के नीचे लाओ

सरकारी छुटियाँ कम करो.....फ़ालतू के सरकारी आयोजन ..जैसे शपथ ग्रहण, स्वतंत्र-गणतन्त्र दिवस खत्म करो......विदेश यात्रा कम करो......

टैक्स अपने आप कम हो जायेंगे

टैक्स कम होंगें तो उद्यमों पर जोर कम पड़ेगा, और चीज़ें सस्ती हो जायेंगी , निर्यात बढ़ेगा, रोज़गार बढ़ेगा, खुशहाली आयेगी

कुल जमा मतलब है कि अच्छी अर्थ व्यवस्था का मतलब है मुल्क में खुशहाली हो, मात्र सरकारी अमले और नेता की खुशहाली अच्छी अर्थ व्यवस्था को नहीं दर्शाती.....अच्छी अर्थ व्यवस्था का मतलब है लोग अपनी मेहनत का पैसा अपनी जेब में रख पाएं ... ज़्यादा से ज़्यादा, रोज़गार बढें ...निर्यात बढें.......टैक्स की डकैती खतम हो

आमिर खान की लगान फिल्म याद हो शायद आपको, सारा संघर्ष टैक्स को लेकर था......आप हम आज परवाह ही नहीं करते कि कब कहाँ से सरकार हमारे जेब काटती रहती है...शायद हमने मान लिया है कि सरकारें जब चाहें, जितना चाहिएं, जहाँ चाहे हम से पैसा वसूल सकती हैं...... दफा कीजिये इस मिथ्या धारणा को और आज से यह देखना शुरू कीजिये कि आपकी सरकारें पैसा वसूल सरकारें हैं या नहीं...ठीक ऐसे ही जैसे आप देखते हैं कि कोई फिल्म पैसा वसूल फिल्म है या नहीं

कुछ सुझाव दिए हैं मैंने..... आप अपने सुझाव दीजिये, सादर आमन्त्रण

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"इंडस्ट्री"


इंडस्ट्री बढनी चाहिए, इससे रोज़गार बढेगा, निर्यात बढ़ेगा और फिर निर्यात से जुड़े रोज़गार तो बढेंगे ही

लेकिन ख्याल यह रखना चाहिए कि उद्यम वो होने चाहिए जो देश दुनिया के फायदे में हों, मात्र पैसा कमाने के लिए आज जो बहुत सी कंपनियां खड़ी हैं, वैसे उद्यम तो न ही हों तो बेहतर.

जैसे पानी को बोतल में भर के बेचना, यह कोई धंधा नहीं है, यह इंसान के मुंह पर तमाचा है, उसे बताना है कि तुझे साफ़ पानी भी अगर पीना है तो एक लीटर के अठारह रुपये देने होंगे....

जैसे मैदे से भरे पिज़्ज़ा, बर्गर बेचना, जिनमें न स्वाद है न सेहत...

जैसे फेयर एंड लवली क्रीम , जो इंसान को बताती है कि काले होना कोई गुनाह से कम नहीं है

एक बात और समझनी ज़रूरी है, उद्यम उतने ही बढ़ने चाहिए, जितने से इकोलोजिकल संतुलन बना रहे.....उद्योग प्रदूषण फैलाते हैं, प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ते हैं......

इंसान को फर्नीचर चाहिए, पेड़ काट दो.......क्या उतने ही पेड़ लगाये भी जाते हैं, क्या बार बार पेड़ काटने और लगाने से पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति पर बुरा असर तो नहीं पड़ता?

सस्ती पैकिंग चाहिए प्लास्टिक के लिफ़ाफ़े पैदा करो....बिना यह सोचे कि यह जल्दी से गलेंगे नहीं.

देखिये, यह पृथ्वी मात्र इंसानों की नहीं है, इस पर पेड़ पौधों, पशु पक्षियों सब का हक़ है और इस हक़ का ख्याल रखने में ही इंसानों का भी भला छुपा है....यदि हम कहीं भी असंतुलन पैदा करेंगे तो उसका खामियाजा हमें भी भुगतना पड़ेगा

सो हमें पूरा ज़ोर इंसानी आबादी कम करने पर इसलिए भी लगाना चाहिए कि हमें कम से कम उद्योगों की ज़रुरत पड़े

यदि मेरी बात सही से समझें तो एक तरफ मैं यह कह रहा हूँ कि उद्योग बढ़ने चाहियें, दूसरी तरफ मैं यह भी कह रहा हूँ कि उद्योग बेतहाशा नहीं बढ़ने चाहिए .......उद्योग बढ़ने चाहियें ताकि रोज़गार मिले, चीज़ें सस्ती हों ..लेकिन चूँकि उद्योग प्राकृतिक संतुलन खराब कर रहे होते हैं सो इंसानों को अपनी ज़रूरतें कम करनी होंगी, आबादी कम करनी होगी

प्रकृति ने ठेका नहीं लिया इंसान की हर ज़रूरी, गैर ज़रूरी ज़रुरत को पूरा करने का....यदि हम उसका ख्याल रखना बंद कर देते हैं तो वो भी हमारा ख्याल रखना बंद कर देती है.....भूकम्प, सूनामी, बाढें हमारी अपनी बेवकूफियों का नतीजा हैं

सो इंडस्ट्री चाहिए, लेकिन सीमित

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"करप्शन"


एक फिल्म थी A WEDNESDAY जिसमें नसीरुद्दीन शाह मेन रोल में थे, उसमें एक आम आदमी की पॉवर दिखाई थी, वो सारे सिस्टम से आगे चलता हुआ, अपनी पहचान छुपाता हुआ, आतंकियों को खत्म करता है....

कुछ कुछ वैसे ही सलाह दे रहा हूँ.....आप, मैं और हम...करप्शन खतम कर सकते हैं, जड़ से

आप कहेंगे, कैसे? हम तो बिलकुल साधरण लोग हैं, आम आदमी

मेरा प्लान पढ़ लीजिये, समझ आ जायेगी

हमें पता है कि पुलिस वाले हमारे आपके झगड़े में खुद ही, वकील, जज बन जाते हैं और दोनों तरफ से पैसे खाते हैं, हम समझौते पर राज़ी हो भी जाएँ तब भी जब तक उनका पेटा न भरा जाए, वो समझौता तक नहीं करने देते..अपना रौब , दबदबा बनाये रखते हैं........

आपको राज़ की बात बताता हूँ, ये जितने सरकारी कर्मचारी हैं , ये बर्फ के बने हैं, इनकी सख्ती, इनकी कठोरता, ज़रा सा गर्मी लगते ही और पिघलना, गलना शुरू ........

तो नाज़रीन, हाज़िर हैं कब्ज़ नाशक......... अरे अरे, नहीं, नहीं ..... करप्शन नाशक चूर्ण

आप एक नकली लड़ाई करो आपस में और 100 नम्बर पर काल कार दो, कॉल एंड्राइड फ़ोन से करो, रिकॉर्डिंग सब रखो....... पुलिस देर सवेर आएगी ......आपस में एक दूजे के खिलाफ खूब बोलो......धीरे धीरे पुलिस मामला सुलटाने पे आएगी....और किसी न किसी ढंग से पैसे भी लेगी....सारे मामले की ऑडियो विडियो जैसी भी रिकॉर्डिंग हो सके करते जाओ......और अंत में इसे whatsapp, या ईमेल से अपने ख़ास दोस्तों, रिश्तेदारों को भेज दो....फिर अपने प्यारे पुलिस वालों को बता दो कि आपके पास उनके लिए कितना बड़ा सुसमाचार है.... पुलिस वाले आपको वापिसी पैसे देने को राज़ी होंगे और कई गुणा ज़्यादा .......हज़ारों लिए होंगे तो लाखों रुपये वापिस देंगे

आगे क्या करना है, खुद समझो, लेकिन इससे रिश्वत तो निश्चित ही कम होगी

इससे मिलती जुलती ट्रिक आप हर महकमे में प्रयोग कर सकते हैं .........बस याद रखें... ये जितने सरकारी कर्मचारी हैं , ये बर्फ के बने हैं, इनकी सख्ती, इनकी कठोरता, ज़रा सा गर्मी लगते ही और पिघलना, गलना शुरू ........

ये सरकार से तनख्वाह भी लेते हैं, पब्लिक से रिश्वत भी लेते हैं, बदतमीजी भी करते हैं और जो थोड़ा बहुत काम भी करते हैं वो भी ऐसे जैसे पब्लिक पर अहसान कर रहे हों ........इन्हें सबक सिखाना शुरू कीजिये....बस थोड़ी हिम्मत की ज़रुरत है

"सरकारी नौकर"





यह निज़ाम पब्लिक के पैसे से चलता है, जिसका बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरों को जाता है…सरकारी नौकर जितनी सैलरी पाते हैं, जितनी सुविधाएं पाते हैं, जितनी छुट्टिया पाते है … क्या वो उसके हकदार हैं?.... मेरे ख्याल से तो नहीं … …


सरकारी नौकर रिश्वतखोर हैं, हरामखोर हैं, कामचोर हैं ....

ये जो हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा सरकारी नौकरी पाने को मरा जाता है, वो इसलिए नहीं कि उसे कोई पब्लिक की सेवा करने का कीड़ा काट गया है, वो मात्र इसलिए कि उसे पता है कि सरकारी नौकरी कोई नौकरी नहीं होती बल्कि सरकार का जवाई बनना होता है, जिसकी पब्लिक ने सारी उम्र नौकरी करनी होती है ....

सरकारी नौकर कभी भी पब्लिक का नौकर नहीं होता, बल्कि पब्लिक उसकी नौकर होती है....

सरकारी नौकर को पता होता है, वो काम करे न करे, तनख्वाह उसे मिलनी ही है और बहुत जगह तो सरकारी नौकर को शक्ल तक दिखाने की ज़रुरत नहीं होती, तनख्वाह उसे फिर भी मिलती रहती है

सरकारी नौकर को पता होता है, उसके खिलाफ अव्वल तो पब्लिक में से कोई शिकायत कर ही नहीं पायेगा और करेगा भी तो उसका कुछ बिगड़ना नही है

सीट मिलते ही सरकारी नौकर के तेवर बदल जाते हैं, आवाज़ में रौब आ जाता है ……आम आदमी उसे कीडा मकौड़ा नज़र आने लगता है .…

अपनी सीट का बेताज बादशाह होता है सरकारी नौकर…

सरकार नौकरी असल में सरकारी मल्कियत होती है, सरकारी बादशाहत होती है.... इसे नौकरी कहा भर जाता है, लेकिन इसमें नौकरी वाली कोई बात होती नहीं … .. इसलिए अक्सर लोग कहते हैं की नौकरी सरकारी मिलेगी तो ही करेंगे

लगभग सबके सब सरकारी उपक्रम कंगाली के करीब पहुँच चुके हैं .... वजह है ये सरकारी नौकर, जिन्हें काम न करने की हर तकनीक मालूम है.…

लानत है, जब मैं पढता हूँ कि सरकारी नौकरों की तनख्वाह,, भत्ते, छुट्टियां बढ़ाई जाने वाली हैं, मुझे मुल्क के बेरोज़गार नौजवानों की फ़ौज नज़र आती हैं .... जो इनसे आधी तनख्वाह, आधी छुट्टियों, आधी सुविधाओं में इनसे दोगुना काम खुशी खुशी करने को तैयार हो जाएगी. .....लेकिन मुल्क को टैक्स का पैसा बर्बाद करना है, सो कर रहा है....लानत है

MURDER MYSTERY STORIES


I have read whole of Sherlock Holmes. Sherlock, his deduction method, very unique, none could match till now. People are still mad for 221 b, Baker Street, London. 

Another name, Hercule Poirot of Agatha Christie, a Genius, he reads situation, he reads psychology, he reads everything. "Murder at Orient Express". A master piece. Rest I forgot. From Belgium. Having egg shaped head. Uttering "Mon ami".

Agatha's main characters "Hercule Poirot" & "Miss Marple". I could never read Miss Marple. I tried but failed, could not raise enough interest.

And now about Surender Mohan Pathak, an Indian mystery writer, writing in Hindi. I have read, not all, but some of his novels.

Pathak is very poor in weaving mystery. Very Poor. I read "धब्बा" only a few days back. Very Poor. Pathak is good at presentation, language, flow. Very good. One can learn life, many aspects of life from Pathak but not the mystery writing. To me Pathak is a good writer in a different way, one can learn a lot about relationships, role of money in the society, human psychology, and so many other aspects of life through his novels. He could have been a great social writer but he chose to be a mystery writer, who describes society a lot, so much that the mystery aspect remains very poor.


What if you go on reading a whole book and eventually come to know that someone from Mars was the murderer?

Would it be a good mystery story in which in the end the murderer is declared someone who never appeared in the whole story?

Or someone, who never did anything from which the reader could guess him/her as the criminal?

What if someone is declared a murderer in the last pages of a mystery novel on the basis of some aspects of the story which had been never mentioned earlier?

Bullshit!

Such stories are poorest murder mystery.

That is why, I am calling Pathak a poor mystery writer.

Great are the murder mysteries, in which the killer is always in front of the reader, leaving many clues. And the reader can never make any head or tail of those clues but the great detective like Sherlock or Poirot does that magic.

Voilà!

Such are the real mystery stories.

And in the end, a clarification. In Hindi, there is word jasoos (जासूस), which is used equally for people like James Bond and Sherlock Holmes.

But a secret agent or a spy and a detective are absolutely different kinda people.
James Bond is a secret agent,a spy and all the rest are detectives.

Sunday 28 June 2015

देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर

कभी नन्हे बच्चे की किलकारी सुनी है......कभी उसकी आँखों में झाँका है......मूर्ख जंग करने चले हैं...मरने मारने चले हैं........


"आओ प्यारे सर टकरायें"

1) हलवाई यदि सिर्फ हलवा ही नहीं बनाता तो उसे हलवाई कहना कहाँ तक उचित है ...?

2) कोई ग्लास पीतल या स्टील का कैसे हो सकता है जब ग्लास का मतलब ही कांच होता है?

3) स्याही को तो स्याह (काली) ही होना था, फिर नीली स्याही, लाल स्याही क्योंकर हुयी?

4) सब गंदगी पानी से साफ़ करते हैं, लेकिन जब पानी ही गन्दा कर देंगे तो किस को किस से साफ़ करेंगे?

5) जल जब जल ही नहीं सकता तो इसे जल कहना कहाँ तक ठीक है?

6) जब कोई मुझे कहता है ,"आ जा "तो मुझे कभी समझ नहीं आता कि वो मुझे आने को कह रहा है, या जाने को या आकर जाने को, क्या ख्याल है आपका?

7) जित्ती भी आये, लगता है कम आई...तभी तो कहते हैं इसे कमाई....मुझे नहीं अम्बानी से पूछ लो भाई.... क्या ख्याल है आपका?

8) जब हम राजतन्त्र से प्रजातंत्र में तब्दील हो गए हैं तो क्या राजस्थान का नाम प्रजास्थान न कर देना चाहिए. नहीं?

9) वेस्ट बंगाल भारत के ईस्ट में है , फिर भी इसे वेस्ट बंगाल क्यों कहते हैं..?

10) गुजरात में शायद सिर्फ गूजर तो नहीं रहते अब फिर भी इसे गुजरात क्यों कहते हैं?

11) छोटे डब्बे में बड़ा डिब्बा तो नहीं समाता, फिर राष्ट्र में महाराष्ट्र कैसे है?

12) सिंध तो भारत में नहीं है अब, फिर भी वो जो राष्ट्र गान है न,,,,,,,,उसमें पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा ...ऐसा कुछ क्यों कहते हैं?

13) आम तो एक ख़ास फ़ल है फिर भी इसे आम क्यों कहते हैं?

14) If the right is right, then is the left wrong?

शेयर करना जायज़ है, चुराना नाजायज़ है, नमन



बढिया कहने का ठेका क्या सुरिंदर शर्मा या अशोक चक्रधर के पास ही है.....हमारे पास भी है.....अभी अभी उठाया है CPWD से
ठेका बोले तो "शराब देसी".....शराब, जिसे पीकर इन्सान ख़राब कहता ही नहीं, जो कहता है बढ़िया ही कहता है
 


सुना है नेहरु ने नारा दिया था "आराम हराम है".......
नारा गलत है, उथली सोच है, आराम और काम का बैलेंस होना चाहिए.......
यदि आराम हराम हो जाएगा तो काम भी ऊट पटांग हो जाएगा
सरकार किसी की भी हो.....
यदि सरक सरक कर काम करे....
यदि किये वायदे पूरे न करे.....
ज़रूरी नहीं इसे पांच साल तक सरकाना....
इन्हें मंत्री, संत्री मौज मारने को नहीं, काम करने को बनाया गया है 
उखाड़ फेंको.....क्योंकि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतेज़ार नहीं करती
बिन खुद की खुदाई, खुदा कहीं न मिलेगा
और खुदा मिले न मिले, जो मिलेगा वो खुदा होगा
प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति थीं या राष्ट्रपत्नी ? I am still confused.


प्रेम प्रेम सब कहें , जग में प्रेम न होए
ढाई आखर बुद्धि का, पढ़े तो शुभ शुभ होए


हमाम में ही हम सब नंगे नहीं होते, कहावत अधूरी है, जिस ने कही वो शायद कपड़े पहन कर पैदा हुआ था और सेक्स भी कपडे पहन कर करता था.




न तुम कोई GF/BF साथ लाये थे, न लेकर जाओगे
जो आज तुम्हारा/तुम्हारी है, वो कल किसी और का था /की थी
और फिर कल किसी और का होगा/होगी
ज़रा देखिये अपने विश्वास. शायद ही विश्वसनीय हों.
ज़िंदगी हमेशा ऐसे जिओ जैसे मौत है ही नहीं...यह जानते हुए भी कि अगले पल का भरोसा नहीं है...
और ऐसे जिओ जैसे यही पल आखिरी पल है...कुछ भी बाक़ी मत छोड़ो , जो तुम कर सकते हो
किसी डिग्री का ना होने दरअसल फायेदेमंद है। अगर आप इंजिनियर या डाक्टर हैं तब आप एक ही काम कर सकते हैं, पर यदि आपके पास कोई डिग्री नहीं है, तो आप कुछ भी कर सकते हैं।
~ Shiv Khera 

आप डिग्री होते हुए भी कुछ भी कर सकते हैं.....किसी ने रोका है क्या... Tushar Cosmic

जीतने वाले अलग चीजें नहीं करते, वो चीजों को अलग तरह से करते हैं।
~ Shiv Khera 

ग़लत.....वो दोनों करते हैं....यह खेड़ा ने मात्र मीडियाकर लोगों को बहलाने के लिए लिखा है

गलत होना भी अपने आप में गलत नहीं 
क्योंकि जो कुछ करेगा वो ही गलत या ठीक करेगा....
गलती भी उसी से होती है जो कुछ करता है.....
और जो जितना ज्यादा करता है...
जितना तेज़ी से करता है 
उतनी ही उससे ज्यादा गलती भी होती हैं
इसलिए टेंशन नोट

"Brutus, you too"---- dying Julius Caesar
सज्जना ने फूल मारेया, साडी रूह अम्बरा तक रोई
Fair and Lovely जैसी कंपनियों को मानव द्रोही मान कर इनका सब कुछ ज़ब्त कर लेना चाहिए ...और सज़ा अलग देनी चाहिए

किसी भी ज़बरदस्ती, ज़ुल्म का विरोध हिन्दू मुस्लिम खांचो में बंट कर करेंगे तो दुनिया कभी एक न होगी.......ज़ुल्म और जुर्म को हिन्दू और मुस्लिम आदि रंग नहीं दिया जाना चाहिए.....कोई भी ज़ुल्म करेगा तो इंसान बन कर उसका डट कर विरोध करना चाहिए उसके लिए हिन्दू, ईसाई, सिख आदि होने की कोई ज़रुरत नहीं है........
लेखन मात्र लेखन नहीं होता...वो विचार भी होता है.....आईडिया भी होता है...वो साहित्य भी होता है...वो भविष्य की प्लानिंग भी होता है....वो नए समाज का नक्शा भी होता है...मूर्ख है वो लोग जो एक लेखक को यह कहते हैं कि तुमने समाज के लिए किया ही क्या है

फिर तो मुशी प्रेम चंद, मैक्सिम गोर्की और ऑस्कर वाइल्ड ने भी कुछ नहीं किया

लानत !! 
इस देश में द्रोण जैसे व्यक्ति के नाम पर द्रोण अवार्ड रखा गया है शायद गुरु दक्षिणा में बिन सिखाये ही शिष्यों के अंग भंग करना भारतीय सभ्यता के लिए आदर्श है




जब जागो, तब सवेर
जब सोवो, तब अंधेर

सीधी बात, नो बकवास--Sprite
टेढ़ी बात, ओनली बकवास---Tushar Cosmic


ताजमहल में कुछ दम नहीं है ....बस ऐसे ही मशहूर कर दिया गया है…है क्या सीधे सीधे संगमरमर के पत्थर लगे हैं …… कभी माउंट आबू में दिलवाड़ा के जैन मंदिर देखें हों … संगमरमर के हैं.... क्या कलाकारी है.……संगमरमर की ये बड़ी चट्टानों को तराश कर, बहुत महीन नक़्क़ाशी की है.... क्या कला है, वाह


अरे, भाई, एक कहावत है, गरीब की जोरू. हरेक की भाभी........गरीब तो वैसे ही शुद्र होता है...चाहे वो..किसी भी जात का हो
चलो अभी बता दो कितने पंडित, कितने क्षत्रिय, कितने वैश्य सीवर साफ़ करते हैं, कूड़ा उठाते हैं...नाली साफ़ करते हैं?.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का

ब्रह्मण हमारे घरों से रोटी लेने आता था और शूद्र टट्टी.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का


झंडू बाम नामक कंपनी के मालिक कितने झंडू होंगे, ये इस कम्पनी के नाम से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं---- आपका ख़ादिम, तुषार कॉस्मिक


मोदी जी के मितरो कहने से और फेसबुक लिस्ट में रहने से कोई मित्र नहीं हो जाता मित्र....सो सावधान

आज कल गीता, सीता, राधा घरों में झाड़ू पोचा, बर्तन मांजती हैं
और मोना, सोना, मोनिका, सोनिका टेलीमार्केटिंग करती हैं 

अक्सर

"बहन का खसम" और "जीजा जी" आगे भी "जी" पीछे भी "जी" 
मतलब एक है और नहीं  भी  है

तिथि 06-10-12, समय 9 बजे रात्रि , हमारे प्रोग्राम के मुख्य "अतिथि" होंगे अक्ल मंद जी महाराज" मंद बुधि, नहीं नहीं, बंद बुधि जी महाराज मंच पर दहाड़ रहे हैं .





क्या नवरात्रों का गरबा पुरातन भारत के वसंत-उत्सव जैसा नही है?


आवारा घूमने वाले पशुओं और पशुनुमा इंसानों के मालिको के ऊपर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए!



यदि औरत बहादुरी दिखाए तो मर्दानी!

और यदि आदमी बहादुरी दिखाए तो जनाना ........क्यों नहीं? क्यों नहीं?? क्यों नहीं???
जब वैराग्य होने लगे तो वियाग्रा प्रयोग कर सकते हैं, व्यग्र हो जायें
ईश्वर की परिभाषा, उसकी कल्पना, परिकल्पना और उसके इर्द गिर्द बनाया गया पाप पुण्य, स्वर्ग नरक, मंदिर, मस्जिद इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ, फरेब, मक्कारापन और नक्कारापन है.
हम जो भी समझते हैं..दिक्कत यह है कि बस वही समझते चले जाते हैं..
ये जो सरकारी आभूषण/विभूषण/रत्न आदि पदवियां हैं...
ये सम्मान कम और अपमान ज्यादा होती हैं..........नहीं?
आज भी दुनिया लगभग वहीं खडी है जहाँ से शुरू हुई थी, जंगलो में......बस जंगल कंक्रीट के हो गये, इंसान ने तन ढक लिए.....बाकी अंदर से सब जंगली हैं, सब नंगे हैं

एक सीक्रेट वोटिंग करवा लो कि यदि मौका दिया जाए तो कितने लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बनना चाहेंगे......आपको पता लग जाएगा कितने लोगों को आज भी भारत की महान सभ्यता संस्कृति में यकीन है.

एक सीक्रेट वोटिंग करवा लो कि यदि मौका दिया जाए तो कितने लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बनना चाहेंगे......आपको पता लग जाएगा कितने लोगों को आज भी भारत के विश्व गुरु बनने की क्षमता में यकीन है.
एक सीक्रेट वोटिंग करवा लो कि यदि मौका दिया जाए तो कितने लोग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नागरिक बनना चाहेंगे......आपको पता लग जाएगा कितने लोगों को आज भी मोदी जी के "अच्छे दिन" वाले नारे में यकीन है.



जब आपको किसी चीज़ की कीमत धेला भी न चुकानी हो तो आप उसे बेशकीमती का ख़िताब दे देते हैं.
नमकीन में से निकाली गई मूंगफली, बिस्कुट के ऊपर से उतारा गया काजू और बच्चे से ली गई आइसक्रीम ज़्यादा ही स्वाद होते हैंहमारी आधी समझदारी तो यह है कि दूसरे हमें बेवकूफ न बना दें और आधी यह कि दूसरों को हम कैसे बेवकूफ बना दें
अब विक्रेता कंपनियों को कार के साथ थोड़ी अक्ल भी देनी चाहिए,पैकेज डील, ताकि लोगों को समझ आये कि उन्होने कार खरीदी है सड़क नहीं, सडक उनके बाप का माल नहीं है.पोस्ट शेयर करने वालों को नमन करेंगे, चोरी करने वालों का दमन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे..........जय हो!मुद्दे ही बहुत गंभीर हैं हमारे मुल्क में, सूर्य नमस्कार किया जाए या नहीं......वाह, वैरी गुड.....गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, जनसंख्या वृद्धि.....इस तरह के बकवास मुद्दों के लिए समय नहीं है हमारे पास...इडियट ....आ जाते हैं पता नहीं कहाँ कहाँ से
फुट रेस्ट खुला छोड़ के स्कूटर खड़ा करने वालो, इससे चोट खाने वाले तुम्हें माफ़ नहीं करेंगे
जो मज़ा बच्चे से कुश्ती हारने में है वो शायद दुनिया का सबसे बड़ी जंग जीतने में भी नहीं है ...असल में जंग जीतने का मज़ा तो कोई रुग्ण व्यक्ति ही ले सकता है.
'पेन' कार्ड बनवाएं, एक जगह लिखा था.
कितना सही लिखा था



एक पोस्ट देख रहा हूँ आज कल," जाति देख कर वोट देने वालो, आप अपना नेता चुन रहे हो, जीजा नहीं"

जैसे जाति देख जीजा चुनना कोई सही बात हो





जिनको आँखों में दवा डालने में दिक्कत होती हो उनको कुदरत का सीधा सा नियम समझना चाहिए कि पहाड़ों पर होने वाली बारिश अपने आप घाटियों में पहुँच जाती है


जो लोग व्यवस्था परिवर्तन को इसलिए नकार रहे हों कि नई व्यवस्था में भी कमियां होंगी इनको पूछिए कि तुम्हारा कच्छा सड़ा हो, बदबू मार रहा हो, तो क्या तुम नया कच्छा इसलिए नहीं लोगे कि धोना पड़ेगा या इसलिए नहीं लोगे कि अभी ऐसा कच्छा आविष्कृत नहीं हुआ जो मैला न हो, और सदैव सड़ा कच्छा ही पहनते रहोगे क्या?



लेखन से बहुत बार खुद के विचारों के प्रति भी क्लैरिटी बढ़ती है....बहुधा मैं लिखते लिखते ही विषय को और अच्छी तरह से समझ पाता हूँ......बाकी मित्रों के कमेंट से विषय की समझ और गहरी होती जाती है....जीवन के प्रति समझ बढ़ाने के लिए भी लेखन मददगार है.



बिटिया कह रही थी कि जानवर भी तो इन्सान ही हैं, क्यों खाना इनको
"सुना है यदि दिल्ली से बिहार तक कोई ट्रेन में सफर कर रहा हो तो यात्री बिक जाते हैं डकैतों में.... बस मालदार दिखना चाहिए.........कितने बैग हैं, साथ कितने लोग हैं, स्त्रियाँ कितनी, बच्चे कितने, पुरुष कितने, हुलिया, डील डौल ..... सारी जानकारी ...एक गैंग नहीं लूट पाया तो आगे वाला कोई लूट लेगा, सो वो अगले वाले को बेच देता हैं, इस तरह यात्री कितनी बार बिक चुका होता है, उसे कभी पता नहीं लगता, उसे तो पता बस तब लगता है जब वो लुट चुका होता है ."
इन शब्दों का निश्चित ही कॉल सेंटर वालों से सम्बन्ध है

फ़ोन लेते ही कब हम कईयों के लिए व्यापार बन गए, पता ही नहीं चला.

"कौवों की दुआ यदि कामयाब होती तो गाँव के सब ढोर कब के मर चुके होते"

दुआ/प्रार्थना आदि से कुछ नहीं होता, समझ लीजिये...

मुद्दा यह है कि हम समझ ही नहीं रहे कि मुद्दा क्या है



जब से मच्छर मारने के रैकेट आये हैं
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एक मच्छर साला आदमी को बैडमिंटन चैंपियन बना देता है



कोई मित्र बता रहे थे कि ये जो फाइव स्टार सलून खुले हैं, वहां चेहरा शेव कराने के पांच सौ रुपये ज़रूर लगते हैं लेकिन उसके बाद सफ़ेद बाल भी काले ही उगते हैं, सच है क्या?
कोई मित्र बता रहे थे कि ये जो फाइव स्टार सलून खुले हैं, वहां चेहरा शेव कराने के पांच सौ रुपये ज़रूर लगते हैं लेकिन उसके बाद सोने के बाल उगते हैं, सच है क्या?
जहाँ विश्वास होगा वहां विश्वास घात हो सकता है .....यह जानते हुए भी विश्वास करना होता है, कितना करना है, कब करना है यह समझना जीवन की महान कलाओं में से एक है
यदि आप अपने नाम के साथ "जी" लिखें तो लोग आप पर हसेंगे, और यदि "जी जी" लिखें तो लोग आपको पागल समझेंगे लेकिन भारत एक ऐसा महान मुल्क है जहाँ अपने नाम के साथ "श्री श्री" लगाने वालों को महान संत समझा जाता है
बास्केट बाल के लिए लम्बे खिलाड़ी ही क्यों चाहिए? अलग अलग ऊँचाई वाले लोगों के लिए अलग अलग ऊंचाई के गोल पोस्ट भी तो बनाए जा सकते हैं, जैसे कुश्ती या बॉक्सिंग में अलग अलग वज़न के मुताबिक मुकाबले होते हैं, बास्केट बाल में ऊंचाई के मुताबिक मुकाबले नहीं हो सकते क्या?ईश्वर को कोई इनकार कर ही नहीं सकता, नास्तिक भी नहीं....हाँ, परिभाषा सबकी अलग हो सकती है
न कोई शत प्रतिशत खरा है और न ही खोटा........सो खोटे के खोट को जानते हुए भी उसके खरेपन का उपयोग करना जीवन की महान कलाओं में से एक हैखबरदार जो मेरी अर्थी उठाते किसी ने राम नाम सत्य बोला........नाम नाम होता है.........कोई भी हो.......काम चलाऊ .....सो बेहतर हो बोला जाए ""मस्त  है जी मस्त  है, मुर्दा बिल्कुल मस्त है "
सडक और अपने घर के ड्राइंग रूम में फर्क न समझने वालो, एक्सीडेंट तुम्हे माफ़ नहीं करेंगेमैं मरूं तो मेरे साथ ढेरों लकड़ियाँ न जलाई जाएँ, मुझे नहीं बनना नेपाल जैसे भूकम्प की वजहकाश कोई ऐसा भूकम्प आए कि इस दुनिया से मंदिर, चर्च, मस्ज़िद, गुरूद्वारे जैसी जगहें हमेशा हमेशा के लिए ढह जाएँ.......दुनिया कहीं ज़्यादा खूबसूरत हो जायेगी, आने वाले बच्चे कहीं ज़्यादा खुशनुमा माहौल पायेंगेरोड रेज में कत्ल तक हुए जा रहे हैं........बहुत गलत है....वैसे लोग भी तो रोड और ड्राइंग रूम में फर्क नहीं समझते.......जहाँ मर्ज़ी गाड़ी खड़ी कर देते हैं.........दस साल तक के बच्चों को कारें चलाने को दे देते हैं.
"अगर सच कहूं तो.........."
"हम्म्म्म.... तो आप मानते हैं कि आप अभी तक सच नहीं कह रहे थे?
"नहीं, नहीं, मेरा मतलब..................."
"समझ गये भाई जी, मतलब......और न समझाओ...नमस्ते"


"भाई, सो रहे हो क्या?"
"हाँ, गहरी नीदं में हूँ "
स्कूल में सिखाया जाता था,"मान लो मूलधन सौ" और फिर असल हल तक पहुंचा जाता था.
लेकिन कुछ महान लोग होते हैं, जो अड़ जाते हैं, कि जब पता है कि मूलधन सौ है ही नहीं, तो मानें क्यों.
मूर्ती तोड़ने वाले ऐसे ही लोग थे/हैं

स्कूल में सिखाया जाता था,"मान लो मूलधन सौ" और फिर असल हल तक पहुंचा जाता था.
लेकिन कुछ महान लोग होते हैं, जो अड़ जाते हैं, कि जब पता है कि मूलधन सौ है ही नहीं, तो मानें क्यों.
एक मित्र मेरे किसी हाइपोथिसिस को हवा में यह कह कर उड़ा रहे थे कि यह तो सिर्फ हाइपोथिसिस है


"वैसे कहना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर भी कह रहा हूँ........."
"नहीं तो फिर कह ही क्यों रहे हो भाई, और कह रहे हो तो फिर यह क्यों कह रहे हो कि कहना नहीं चाहिए?"



सवाल, "बुरा न मानें तो इक बात पूछूं?"
मेरा जवाब,"क्यों भई, बिना खाए आपको पता लग जाएगा कि चाइना राम हलवाई की मिठाई कैसी है?
सवाल, "बुरा न मानें तो इक बात पूछूं?"
मेरा जवाब," मत पूछो, यह ज़रूर कोई बुरा मानने वाली ही बात होगी"




छोटे बच्चे के साथ बैट बॉल खेलने में जो मज़ा है, वो क्रिकेट वर्ल्ड कप मैच देखने में कहाँ?


कमल में कीचड़ खिला है

मैं अपने जितेन्द्र साहेब यानि जम्पिंग जैक जी को कहना चाहता हूँ कि बच्चे सफल हों यह अच्छी बात है लेकिन एकता कपूर की तरह नहीं, जिसे आधी दुनिया गालियाँ देती फिरे कचरा परोसने की वजह से


अरुंधती रॉय सुंदर दिखती हैं, मेरा मतलब सुंदर लिखती हैं

धुआं उगलती फैक्ट्रीयों की तसवीरें नहीं लगाते हम अपने कमरों में
लगाते हैं कुदरती नज़ारे, नदियाँ, पहाड़, जंगल, झरने
फिर भी चिंता हमारी यह है कि भारत का उद्योगीकरण कैसे हो


देखो तो दूध पिलाती माँ और पी रहा बच्चा.........मूर्ख फिर भी परमात्मा के होने का सबूत मांगते हैं


माँ अक्सर कहती थीं, जब मैं बच्चा था, "तूने खाया, मैंने खाया एक ही बात है" और खुद न खा मुझे खिला देती थीं
दशकों लग गए समझने में कि एक ही बात कैसे होती है



एक मित्र ने लिखा है,"देश के प्रत्येक नागरिक तक मूल भूत सुविधायें पहुंचे यह सरकार की जिम्मेदारी हैं "
मेरा जवाब है, "लोग बच्चे पैदा करते रहें और ठेका सरकार ने ले रखा है .....सरकार के पास पैसा किसका है......टैक्स का.........उसपे हक़ करेक का कैसे हो गया......?"



हनुमान जयंती विशेष-- हनुमान असल में सुपरशक्तियुक्त व्यक्ति थे …………… जैसे आयरनमैन, सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडर मैन........ हनुमैन 

लेकिन भारत में हो गए हनुमान … नहीं विश्वास? 

देखिये क्या वो उड़ते नहीं सुपरमैन की तरह, क्या वो कूदते नहीं स्पाइडरमैन की तरह ……… उनमें तो सूरज तक को खा जाने की शक्ति है, ख़ाक मुकाबला करेगा उनका कोई पश्चिम का सुपरमैनहनुमान जयंती विशेष-- हनुमान असल में सिक्ख थे …………… गुरदास मान, हरभजन मान, भगवंत मान , हनुमानहनुमान जयंती विशेष-- हनुमान असल में मुसलमान थे …………… रहमान, लुक़्मान, हनुमान ………… मुसलमान!यदि कहीं परमात्मा होगा भी तो इन औरतों का कीर्तन नुमा क्रन्दन सुन कर गुफाओं में छुप जाएगा, समन्दर में धंस जाएगा, हवाओं में घुल जाएगा, बादल बन उड़ जाएगा .......तौबा !

अक्सर देखता हूँ, मुस्लिम मित्रो को "गंगा जमुनी" तहज़ीब का ज़िक्र करते हुए ....मेरे प्यारो, अब गया वक्त .......अब तो ऐसे तहज़ीब विकसित होगी जिसे आपको "गंगा थेम्स अमेज़न" तहज़ीब कहना होगा और यह हिन्दू मुस्लिम इसाई जैसी तहज़ीबों की चिता पर खड़ी होगी

मुस्लिम खुश हो सकता है, मजाक बना सकता है कि हिन्दू उसकी संख्या से डर रहा है, उल्टी पुलटी हरकतें कर रहा है, हिन्दू भी मुस्लिम का किन्ही मुद्दों पर मज़ाक बना सकता है, बनाता है, लेकिन बेहतर हो यदि दोनों वो मजाक देख सकें जो उन्होंने हिन्दू मुस्लिम बन इंसानियत का बना दिया है
वैसे तो सभी मंदिर, गुरूद्वारे, मस्ज़िद बस व्यापार हैं लेकिन सबसे साफ़ सुथरा व्यापार अक्षरधाम मंदिरों का है.
विशुद्ध टूरिस्ट स्थल ......एक बार की इन्वेस्टमेंट, फिर बस बैठे कमाते रहो



कस्टमर कष्ट से मर रहा होता है लेकिन कंपनियों की कस्टमर हेल्पलाइन उसे फुटबॉल की तरह इधर उधर उछालती रहती हैं

सब नहीं...लेकिन ज्यादातर...ख़ास करके सरकारी 

कस्टमर हेल्पलाइन का मतलब ही यह देखना है कि कस्टमर की हेल्प हो न जाए कहीं
मोहल्ले की औरतें लाउड स्पीकर पर गला फाड़ कीर्तन कर रही हैं

मैंने भी लाउड स्पीकर मँगा, शकीरा का हिप्स डोंट लाई (Hips don't lie) बजा दिया है, आवाज़ कीर्तन की आवाज़ से थोड़ी ऊंची रखी है, स्पीकर का मुंह कीर्तन की दिशा में कर दिया है 

कानूनी हक़ है भई , सबका

दुनिया में सिर्फ देश एक ही है......जिसका नाम है
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जिसका नाम है बांग्ला देश

अक्सर आप और हम रोष प्रकट करते रहे हैं कि PUT पुट है तो फिर BUT बुट क्यों नहीं है


चलिए आज थोड़ा रोष इसलिए प्रकट करें कि यदि साढ़े तीन या साढ़े चार हो सकते हैं तो साढ़े एक और साढ़े दो क्यों नहीं, डेढ़ और अढाई क्यों?

जुगाड़ अपने आप में एक काम चलाऊ आविष्कार होता है, हमें नज़रिया बदलना होगा, जुगाड़ और जुगाडू दोनों को सम्मान देना होगा, जुगाड़ को विस्तार देना होगा, इतना कि वो जुगाड़ से वास्तविक अर्थों में आविष्कार हो सकेउदासीन होने का अर्थ यह नहीं है कि उदास रहो.
इसका मतलब यह भी नहीं है कि अपनी कोई राय ही न रखो, लुल्ल हो जाओ

इसका मतलब है कि जब भी किसी विषय विशेष पर अपनी राय बनानी हो तो त्रित्य व्यक्ति की तरह विषय को देखो, अपनी व्यक्तिगत लाग लपेट बीच में मत लाओ
मात्र नियत अच्छी होने से नियति नहीं बदला करती उसके लिए बुद्धि का निमित्त होना भी ज़रूरी है
कहते हैं, "बूढ़े तोते नहीं सीखते "
कहता हूँ, "जो नहीं सीखते वो ही बूढ़े होते हैं, और तोते नहीं, खोते (गधे) होते हैं"यह दुनिया ...यहाँ "एक तीर से दो शिकार" करना बढ़िया माना जाता है
अंग्रेज़ी में कुछ ऐसा कहते हैं, "To kill two birds with one stone"
....और यह दुनिया सुसंस्कृत है

प्रेशर पॉइंट...जैसे शरीर में होते हैं वैसे ही किसी भी आर्टिकल में होते हैं....दिक्कत यह कि लोग गलत पॉइंट पकड़ते हैं जल्दी
!!SEXPEER!!

अभी कहीं किसी मित्र ने एक शब्द लिखा था सेक्सपीर/ Sexpeer
वाह! आज से मैं भी SHAKESPEARE को लिखूंगा SEXPEERसीरियस न लें मेरी कोई बात...आय ऍम जस्ट मज़ाकिंग......मज़ा-किंग भई.....हाँ, मज़ा सीरियसली ले सकते हैं
हमारी मांगें पूरी करो----- राम मंदिर नहीं, काम मंदिर बनाओ, वो भी एक नहीं अनेक....गली गली
सबसे ज़्यादा काम की बात है "काम" की बात....लगभग सब बीमारियों का राम-बाण, काम-बाण
सुना है बाबर ने मंदिर तोड़ा था
सुना है संघियों ने मस्जिद तोडी थी
मेरे ख्याल से दोनों बधाई के पात्र हैं
चूँकि इस दुनिया से मंदिर मस्जिद दोनों विदा करने चाहिए




तथा कथित धर्म एक सामाजिक व्यवस्था है, सड़ी गली सामाजिक व्यवस्था जो ज्ञान, विज्ञान और बुद्धि से तालमेल नहीं रख पाती, जो समय के साथ पीछे छूट जाती है लेकिन फिर भी इंसानियत की छाती पर चढी रहती है

किसी वहम में मत रहें कि डॉक्टर कोई फ़रिश्ता होता है....वो एक इन्सान है...साधारण इन्सान...सब इंसानी, सामाजिक कमियों से लैस......उसके अपने स्वार्थ होते हैं....जहाँ सुई से इलाज हो जाना होता है वहां भी वो तोप चलवा सकता है

हमारे विश्वास, हमारी श्रधा विचारगत होनी चाहिए, न कि संस्कारगत....मामला चाहे कुछ भी हो.....