मैंने यदा कदा फिल्मों और फिल्मों से जुड़े सजन सजनियों के विषय में लिखा है. पेशे-ए-ख़िदमत है.......पेशा नहीं है बस ख़िदमत है और सजन सजनियों से मतलब सज्जन सज्जनियाँ नहीं है, सजे और सजी हुईं है .....अब कहीं की बात, कहीं पर लात......हो सकता है, ऐसा बिलकुल हो सकता है... ...खैर, चलिए मेरे साथ एक बार फ़िर---
(1) !! सौ करोड़ी फिल्म की जीवन गाथा !!
बीसेक बढ़िया बढ़िया अंग्रेज़ी फिल्म एक कमरे में बिठा कर दिखाई जाती हैं....लेखक लोग उनमें से बढ़िया सीन छांटते हैं.......फिर उनको जोड़ एक कहानीनुमा चीज़ बनाई जाती हैं........
उधर से गीत संगीत देने वालों की टीम कुछ गाने तैयार कर लेती है....इन गानों को उस कहानीनुमा चीज़ में फिट फाट किया जाता है....और कुछ समझ न आये तो फिर शुरू में और अंत में गाने डाले जाते हैं........
अब लीडिंग एक्टर को भारी फीस देकर फिल्म शूट कर ली जाती है.....
फिर एक्टर, डायरेक्टर, गीत संगीत देने वाले....सब मिल मिला कर टीवी के हर चैनल पर आन खड़े होते हैं.....रेडियो पर भी और असल में तो मीडिया के हर चैनेल पर.....
और कुछ ही दिन में जनता फिल्म देख ही लेती है... फिल्म सौ करोड़ी हो चुकी होती है
(2) अगली पीढी पिछली से बेहतर होनी चाहिए, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता
फिल्म इंडस्ट्री इसका अच्छा उदाहरण है.......नितिन मुकेश अपने पिता मुकेश का मुकाबला नहीं कर पाए और न ही अमित कुमार अपने पिता किशोर कुमार का, धर्मेन्द्र का कोई बेटा उनके बराबर नहीं पहुँच सका, और न हेमा मालिनी की बेटियां माँ का मुकाबला कर पाई, अभिषेक अमिताभ का मुकाबला नहीं कर पाए, कुमार गौरव राजेन्द्र कुमार के आस-पास भी न आ पाए
वजह क्या है?
वजह है जीवन का संघर्ष
संघर्ष निखार लाता है
सो पिछली पीढी का फर्ज़ है कि अगली पीढी संघर्ष करे, मतलब यह नहीं कि अगली पीढी खेल वहीं से शुरू करे जहाँ से पिछली पीढी ने शुरू किया था, अगर उसने फाके काटे, ठोकरें खाई , बे-इज़्ज़ती सही तो ऐसा ही नई पीढी के साथ भी हो...नहीं, यह मतलब नहीं है, लेकिन संघर्ष ज़रूर करे, अपने स्तर का संघर्ष करे.......अपने बापों के बेटे बेटियां ही न बने रहें सारी उम्र
(3) सुना है स्वच्छता नाम का भी कोई ब्रांड है , जिसके ब्रांड Ambassdor कोई बड़े फिल्म स्टार हैं, अब ये स्टार साब अपने फ़िल्मी काम धाम में से समय निकाल हर रोज़ सडक, नाली और सीवर साफ़ करने वाले हैं, आखिर उनका ब्रांड जो है स्वच्छता ....सच है क्या?
(4) कुछ मित्रगण कहते हैं कि मोदी को गोधरा या गुजरात दंगों के लिए बिलकुल भी दोष नहीं दिया जाना चाहिए, कोर्ट तक ने उनको दोषी नहीं पाया...
अब यही तर्क क्या दिल्ली के दंगों पर भी लागू करेंगे? कोर्ट ने तो आज तक सज्जन कुमार और जगदीश Titler या किसी भी बड़े नेता को इसमें दोषी नहीं पाया.....तो शायद कोई दोषी है ही नहीं, या शायद सिखों के विरुद्ध कुछ हुआ ही नहीं....वो फिल्म नहीं बनी थी...No One Killed Jessica.
(5) सुना है आमिर खान PK फिल्म का मर्म समझ गए हैं और अब खुद को खान नहीं कहलायेंगे....और न ही हज को जायेंगे......मुस्लिम नहीं, अब इंसान बन गए हैं...कौनो ठप्पा थोड़ा लगा है ...............अरे सही सुना है का...........बतावा भई.....या कि आमिरवा फिरकी लयेबो???????
और सुना है अनुष्का शर्मा भी PK फिल्म का मर्म समझ गयी हैं.....उन्हें समझ आ गया है कि कौवा अगर टाई पहन लेगा तो भद्दा लगेगा, उन्हें समझ आ गया है कि प्रकृति को विकृति की तरफ़ नहीं ले जाना चाहिए ....इसलिए अब वो नग्न तो खैर नहीं घूमेंगी लेकिन अगली फिल्म में बोटॉक्स के इंजेक्शन लगवा अपने होंठ भी खराब नहीं करेंगी.
(6) वैसे मैं बहुत कम चुटकले सुनाता हूँ...लेकिन आज तो एक और सुना ही देता हूँ......आप बताना काबिले तारीफ़ है कि नहीं......
एक गाना है, फिल्म चेन्नई express का, लुंगी डांस, लुँगी डांस.......शाहरुख़ और दीपिका पादुकोण नाचे हैं गाने पे......अब हैरत यह है कि पूरे गाने में लुँगी दोनों ने नहीं पहनी...
(7) !!! फुकरे , हिंदी फिल्म !!!
यह एक फुकरी सी फिल्म है, हल्की फुल्की......
एक बात तो यह समझ आती है कि ज़्यादातर नए चेहरे भी बहुत अच्छी एक्टिंग कर सकते हैं.....
दूसरी यह कि हमने एक बकवास समाज बनाया है जहाँ लगभग हर व्यक्ति किसी लाटरी खुलने का इंतज़ार कर रहा है
(8) !!!! हैदर, यक तरफ़ा फिल्म !!!!
देखी पिछली रात, कुछ रिव्यु भी पढ़े, सब के सब प्रशंसा से भरे, विशाल भरद्वाज की प्रशंसा, गुलज़ार की प्रशंसा.....
लेकिन मुझे तो इस फ़िल्म में प्रशंसा लायक कुछ दिखा नहीं.....दिखा इस लिए नहीं कि इसे मात्र एक कहानी के तौर पे, एक ऐसी कहानी के तौर पे पेश किया जाता जो शेक्सपियर के नाटक पर आधारित है तो बात अलग थी
लेकिन इसे तो कश्मीर के आतंकवाद, कश्मीर के दर्द से जोड़ा गया
जोड़ो भाई जोड़ो ..... जोड़ो क्या, सीधा साफ़ दिखाओ...
बिल्कुल दिखाओ कि हिन्दू लोगों को कश्मीर से भगाने के लिए, उन्हें क़त्ल किया जाता रहा, उन को निशाना बनाया जाता रहा, कुछ वैसे ही जैसे पंजाब में हिन्दुओं को खालिस्तानियों द्वारा
आज तक पंजाब के लहुलुहान आतंकित दौर पर जितनी फिल्में बनी हैं, किसी ने सही तस्वीर नहीं दिखाई......हिन्दू पर कोई अत्याचार होता या तो दिखाया ही नही और दिखाया भी तो न के बराबर , अभी एक पंजाबी फिल्म देखी "साडा हक़" , बड़ा रौला रप्पा पड़ता रहा है, ...अधूरी फिल्म है, :माचिस" की तरह और इस विषय पर बनी बाक़ी फिल्मों की तरह ....
आतंकवादी इसलिए पैदा नहीं हुए कि उन पर अत्याचार हो रहे थे...न, न.......उन पर अत्याचार इसलिए हुए क्योंकि वो अत्याचार कर रहे थे........पैदा तो वो अपनी ही भ्रष्ट सोच समझ की वजह से हुए थे
और यहाँ भी "हैदर" फिल्म में, हैदर अपने पिता का बदला लेना चाहता है लेकिन देखने लायक बात यह थी कि उसके पिता आतंकियों के साथी थे, लेकिन पिता को हीरो दिखाया गया है और हैदर के चाचा को विलन, चाचा जिसकी मुखबिरी से हैदर का पिता पकड़ा जाता है, चूँकि उसने अपने घर में आतंकी छुपाया होता है ....पता नहीं, फिल्म बनाने वाले क्या साबित करना चाहते हैं?
और बड़ा मुद्दा दिखाया गया कि कश्मीरी मुसलमान गायब हो गये, निश्चित ही फ़ौज द्वारा मारे गये , टार्चर किये गये ...लेकिन क्या ये लोग आतंकी नहीं थे, या उनके साथी नहीं थे ? थे, फिल्म में दिखाया गया कि थे ....यहाँ लगता है कि फिल्म ठीक है
मेरा मानना है कि यदि कश्मीर का आतंक से भरा काल-खंड दिखाना है तो पूरा दिखाओ, दिखाओ कि हिन्दू क़त्ल किया गया मुस्लिम आतंकी द्वारा, बेघर किया गया.....दिखाओ कि फ़ौज ने आतंकी को पकड़ा और टॉर्चर किया और मारा, दिखाओ कि बहुत से गलत काम फ़ौज से भी हुए....पॉवर का बेजा इस्तेमाल दोनों तरफ से
दिखाओ कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति , चाहे खालिस्तानी हो चाहे कश्मीरी आतंकी , किसी को हक़ नहीं किसी को मारने का और यह दुनिया रही है रंग बिरंगे धर्म मानाने वाले लोगों से भरी.......
इस तरह बहुसंख्यक अगर अल्पसंख्यक लोगों को मारेंगे तो आधी दुनिया क़त्ल करने पड़ेगी
दिखाओ कश्मीरी ब्राह्मण का दर्द, कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े काल-खंड का मुख्य किरदार
दिखाओ....नहीं दिखाते लेकिन .....दिखाते हैं "हैदर", बकवास हैदर..........वैसे ही जैसे "माचिस", जैसे "साड्डा हक़"
(9) !!!! पंजाब का आतंकवाद, एक और नज़र !!!!!!
एक फिल्म बनी थी माचिस, गाना याद होगा आपको "चप्पा चप्पा चरखा चले", पंजाब में आतंकवाद पर आधारित, इस फिल्म को निर्देशित किया था गुलज़ार ने.......
बहुत अच्छी चली थी यह फिल्म.......
लेकिन इस फिल्म ने सच बिलकुल भी नहीं दिखाया, उल्टा झूठ फैलाया
दिखाया यह गया कि सिख जो उग्रवादी बने, वो इसलिए कि पुलिस ने, प्रशासन ने उन पर ज़ुल्म किये.....एक दम झूठ बात है
ज़ुल्म शुरू ही सिख उग्रवादियों ने किये थे.......भिंडरावाला शुरू से इस सब के पीछे था और कांग्रेस शुरू से उसके पीछे थी
लेकिन आज तक शायद ही किसी फिल्म ने, पूरी तस्वीर दिखाई हो..........
खालिस्तान की डिमांड पर हिन्दुओं को पंजाब से खदेड़ने के लिए ही उनको चुन चुन कर , कतार बना कर गोलियों से भून दिया जाता था.
पंजाब केसरी अखबार इसके विरुद्ध आवाज़ उठाता था, उनके बन्दे मार दिए गए
जो सिख इस के खिलाफ आवाज़ उठाता था, उसे भी मार दिया गया
और पंजाब में बिलकुल भी हिन्दू सिख का कोई फर्क नहीं था, हिन्दू को विशेष अधिकार न थे, ऐसे जो सिख को नहीं थे....न...न..
लेकिन फिर भी खालिस्तान का कांसेप्ट खड़ा किया गया, दिखाया गया कि चूँकि सिख अलग हैं सो उनका अलग मुल्क होना चाहिए.......मानस की जात सबे एको पहचानबो....सब भुला दिया गया...
भुला दिया गया कि गुरुओं ने तो मज़लूम की रक्षा के लिए अपने वंश तक कुर्बान कर दिए थे......
फिर एक आम आदमी को मार कर कौन सा आदर्श घड़ा जा रहा था?
गुरुद्वारों को आतंकवादियों ने अपनी पनाहगाह बना लिया था......आज अक्सर सिख कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने हरमंदर साब की बेअदबी की, वहां अन्दर फ़ौज भेज दी...... अरे भाई, ठीक है वहां पुलिस, फ़ौज नहीं जानी चाहिए, लेकिन इसी बात का फ़ायदा उठा कर तो गुरूद्वारे को एक सेफ-हाउस की तरह प्रयोग किया जाता था आतंकवादियों द्वारा, क़त्ल करते थे गुरुद्वारों में छुप जाते थे, गुरुद्वारा इन कामों के लिए बनाया जाता है क्या, बेअदबी तो आतंकवादियों ने की गुरुद्वारों की ...लेकिन वो शायद ही किसी सिख को नज़र आता हो
गुलज़ार जैसे कलाकार को नज़र नहीं आयी पूरी तस्वीर, और ये हमारे बुद्धीजीवी हैं, अरे जब तक नज़र साफ़ न हो, कुछ साफ़ नहीं दिखता, चाहे गुलज़ार हो चाहे कोई भी हो
उम्मीद है कि कोई फिल्म, कोई नाटक बनेगा, जो पंजाब में हिन्दू सिक्खों के कत्लों से लेकर दिल्ली में सिखों के कत्ले-आम की पूरी तस्वीर सही से दिखायेगा, और दिखायेगा कि सब कड़ियाँ जुड़ी थीं, और दिखायेगा कि कैसे जुड़ी थीं
(10) मनोज कुमार, कौन.....अरे वोही अपने भारत कुमार जी........उन्होंने ने अपनी छवि हनुमान यंत्र बेच कर खराब की है और किरण बेदी ने बीजेपी में आकर
सारी उम्र की कमाई गवा दी
उम्र के साथ अक्ल घट जाती है क्या?
घिस जाती है
(11) क्या अमिताभ बच्चन सदी के महानायक हैं?------लानत है, उस मुल्क कि सभ्यता संस्कृति पे, जहाँ सदी के महानायक के रूप में ऐसे व्यक्ति को प्रतिबिम्बित किया जा रहा है ----
a) जिन्होंने ने फिल्मों में काम करने के अलावा लगभग कुछ नहीं किया...अरे यदि मानदंड फिल्मों में काम ही रखना था तो बेहतर था गुरुदत्त को या आम़िर खान जैसे व्यक्ति को महानायक मान लेते.....कम से कम इन लोगों ने समाज को अपनी फिल्मों के ज़रिये बहुत कुछ सार्थक देने का प्रयास तो किया ....अमिताभ की ज्यदातर फिल्मों में दिखाया क्या गया...एक एंग्री यंग मन .....जो समाज की बुराईयों से लड़ता है शरीर के जोर पे.....सब बकवास ....शरीर नहीं विचार के जोर से समाज की बुराई खतम की जा सकती है..और जिन कलाकारों ने यह सब दिखाने का प्रयास किया, वो चले गए नेपथ्य में...उनकी फिल्मों को आर्ट फिल्में, बोर फिल्में कह के ठुकरा दिया गया.....समाज को कचरा चाहिए था..अमिताभ की फिल्मों ने कचरा परोस दिया.....काहे की महानता.....कला में क्या बलराज साहनी, ॐ पूरी, नसीरुद्दीन शाह किसी से कम रहे हैं....अगर सिनेमा के महानायक की ही बात कर लें तो भी अमिताभ मात्र कचरा सिनेमा के ही महानायक हैं.
b) जिन्होंने ने पैसों की खातिर अंट शंट advertisements की, इनसे तो बेहतर गोपी चंद पुलेला हैं, जिन्होंने पेप्सी की advertisement का बड़ा ऑफर ठुकरा दिया और इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें पता है कि पेप्सी सेहत के लिए हानिकारक है
कुछ ही समय पहले अमिताभ ने एक advertisement किया है ....पारले जी बिस्कुट का .......इस में वो एक अमीर व्यक्ति दिखाये गए हैं जो अपने नौकर पे इसलिए खफा होते हैं कि वो "सोचता" है ...श्रीमानजी फरमाते हैं , "अच्छा, तो अब आप सोचने भी लगे हैं"...जैसे सोचने का ठेका सिर्फ मालिक को है....जैसे नौकर ने सोच लिया तो गुनाह कर दिया
http://www dot youtube dot com/watch?v=x9VmK0L5vrk
Life taught me that Khushiyan (Happiness) can be brought in life through understanding of Life, but Amitabh Bachan is teaching me that Khushiyan are can be brought by eating MAGGI (2 Minute Me Khushiyan).
http://www dot youtube dot com/watch?v=ww8o0aCNDR0
c) जिनमें राजनीति की न सोच थी, न समझ... बस कूद गए बिना सोचे समझे....लेकिन फ़िर भागे मैदान छोड़ के तो दोबारा नहीं पलटे...अरे, मुल्क का समय, पैसा, उम्मीदें सब बर्बाद होती हैं ऐसे गैर ज़िम्मेदार नेतायों की वजह से ..... यदि वास्तव में ही जज़्बा होता देश सेवा का, तो सीखते और टिके रहते मैदान में.
d) जो अमर सिंह जैसे नेता को साथ चिपकाये रहे......वो अमर सिंह... जिनका शायद ही देश की दिशा दशा सुधारने में कोई योगदान किसी को पता हो
e) लानत है..... इस देश को सदी महानायक के लिए आंबेडकर, सी वी रमण, जगदीश बसु, मुंशी प्रेम चंद, भगत सिंह, आज़ाद, सुरजो सेन, अशफाकुल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे लोग न दिखे...
ऐसे लोग न दिखे जो समाज के दिए में तेल कि जगह अपना लहू जलाते रहे, दिखे तो पाद मारने के भी पैसे लेने वाले एक्टर, लानत है
जन जीवन के लिए जो असली नायक हैं, महानायक हैं...वो चले गए हाशिये पे और ऐसे व्यक्तियों ने जगह घेर ली जिनका योगदान नगण्य है या फिर ऋणात्मक है.
f) हमारा समाज यदि उन्हें मात्र सिनेमा का ही महानायक मानता तो वो आपको मैगी, कोला जैसी अंट शंट advertisement में न दीखते... व्यापारी वर्ग कोई मूर्ख नहीं है जो उनको करोड़ों रुपये देगा चंद सेकंड की परदे पे मौजूदगी के....व्यापारी को पता है कि भारतीय समाज सिनेमा के नायक को भगवान् की तरह पूजता है, मंदिर तक बनाता है, और यहीं मेरा विरोध है .....आप लाख कहते रहो कि वो तो मात्र सिनेमा के नायक हैं, महानायक हैं......लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म कलाकार भारतीय जनमानस के देवता हैं.........
g) लाख गीत गाते रहो अपनी महान सभ्यता संस्कृति के, महानायक के चुनाव से सब ज़ाहिर होता है कितनी महान सभ्यता है, कितनी महान संस्कृति.....
h) जिस दिन इस देश के मापदंड बदलेंगे उस दिन कोई उम्मीद बनेगी, वरना जैसी देश की कलेक्टिव सोच है, वैसे ही नायक मिलेंगें, वैसे ही महानायक, वैसी ही सरकार बनेगी, वैसे ही बे-असरदार सरदार मिलेंगें, और खिलाड़ी ओलंपिक्स में पिटते रहेंगें और रुपया बाज़ार में धूल फांकता रहेगा.
वैसे कीमत तो कोई मिलेगी नहीं, लेकिन फिर भी अपनी कीमती राय ज़रूर दीजिये
नमन.......कॉपी राईट मैटर........चुराएं न....शेयर करें
(1) !! सौ करोड़ी फिल्म की जीवन गाथा !!
बीसेक बढ़िया बढ़िया अंग्रेज़ी फिल्म एक कमरे में बिठा कर दिखाई जाती हैं....लेखक लोग उनमें से बढ़िया सीन छांटते हैं.......फिर उनको जोड़ एक कहानीनुमा चीज़ बनाई जाती हैं........
उधर से गीत संगीत देने वालों की टीम कुछ गाने तैयार कर लेती है....इन गानों को उस कहानीनुमा चीज़ में फिट फाट किया जाता है....और कुछ समझ न आये तो फिर शुरू में और अंत में गाने डाले जाते हैं........
अब लीडिंग एक्टर को भारी फीस देकर फिल्म शूट कर ली जाती है.....
फिर एक्टर, डायरेक्टर, गीत संगीत देने वाले....सब मिल मिला कर टीवी के हर चैनल पर आन खड़े होते हैं.....रेडियो पर भी और असल में तो मीडिया के हर चैनेल पर.....
और कुछ ही दिन में जनता फिल्म देख ही लेती है... फिल्म सौ करोड़ी हो चुकी होती है
(2) अगली पीढी पिछली से बेहतर होनी चाहिए, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता
फिल्म इंडस्ट्री इसका अच्छा उदाहरण है.......नितिन मुकेश अपने पिता मुकेश का मुकाबला नहीं कर पाए और न ही अमित कुमार अपने पिता किशोर कुमार का, धर्मेन्द्र का कोई बेटा उनके बराबर नहीं पहुँच सका, और न हेमा मालिनी की बेटियां माँ का मुकाबला कर पाई, अभिषेक अमिताभ का मुकाबला नहीं कर पाए, कुमार गौरव राजेन्द्र कुमार के आस-पास भी न आ पाए
वजह क्या है?
वजह है जीवन का संघर्ष
संघर्ष निखार लाता है
सो पिछली पीढी का फर्ज़ है कि अगली पीढी संघर्ष करे, मतलब यह नहीं कि अगली पीढी खेल वहीं से शुरू करे जहाँ से पिछली पीढी ने शुरू किया था, अगर उसने फाके काटे, ठोकरें खाई , बे-इज़्ज़ती सही तो ऐसा ही नई पीढी के साथ भी हो...नहीं, यह मतलब नहीं है, लेकिन संघर्ष ज़रूर करे, अपने स्तर का संघर्ष करे.......अपने बापों के बेटे बेटियां ही न बने रहें सारी उम्र
(3) सुना है स्वच्छता नाम का भी कोई ब्रांड है , जिसके ब्रांड Ambassdor कोई बड़े फिल्म स्टार हैं, अब ये स्टार साब अपने फ़िल्मी काम धाम में से समय निकाल हर रोज़ सडक, नाली और सीवर साफ़ करने वाले हैं, आखिर उनका ब्रांड जो है स्वच्छता ....सच है क्या?
(4) कुछ मित्रगण कहते हैं कि मोदी को गोधरा या गुजरात दंगों के लिए बिलकुल भी दोष नहीं दिया जाना चाहिए, कोर्ट तक ने उनको दोषी नहीं पाया...
अब यही तर्क क्या दिल्ली के दंगों पर भी लागू करेंगे? कोर्ट ने तो आज तक सज्जन कुमार और जगदीश Titler या किसी भी बड़े नेता को इसमें दोषी नहीं पाया.....तो शायद कोई दोषी है ही नहीं, या शायद सिखों के विरुद्ध कुछ हुआ ही नहीं....वो फिल्म नहीं बनी थी...No One Killed Jessica.
(5) सुना है आमिर खान PK फिल्म का मर्म समझ गए हैं और अब खुद को खान नहीं कहलायेंगे....और न ही हज को जायेंगे......मुस्लिम नहीं, अब इंसान बन गए हैं...कौनो ठप्पा थोड़ा लगा है ...............अरे सही सुना है का...........बतावा भई.....या कि आमिरवा फिरकी लयेबो???????
और सुना है अनुष्का शर्मा भी PK फिल्म का मर्म समझ गयी हैं.....उन्हें समझ आ गया है कि कौवा अगर टाई पहन लेगा तो भद्दा लगेगा, उन्हें समझ आ गया है कि प्रकृति को विकृति की तरफ़ नहीं ले जाना चाहिए ....इसलिए अब वो नग्न तो खैर नहीं घूमेंगी लेकिन अगली फिल्म में बोटॉक्स के इंजेक्शन लगवा अपने होंठ भी खराब नहीं करेंगी.
(6) वैसे मैं बहुत कम चुटकले सुनाता हूँ...लेकिन आज तो एक और सुना ही देता हूँ......आप बताना काबिले तारीफ़ है कि नहीं......
एक गाना है, फिल्म चेन्नई express का, लुंगी डांस, लुँगी डांस.......शाहरुख़ और दीपिका पादुकोण नाचे हैं गाने पे......अब हैरत यह है कि पूरे गाने में लुँगी दोनों ने नहीं पहनी...
(7) !!! फुकरे , हिंदी फिल्म !!!
यह एक फुकरी सी फिल्म है, हल्की फुल्की......
एक बात तो यह समझ आती है कि ज़्यादातर नए चेहरे भी बहुत अच्छी एक्टिंग कर सकते हैं.....
दूसरी यह कि हमने एक बकवास समाज बनाया है जहाँ लगभग हर व्यक्ति किसी लाटरी खुलने का इंतज़ार कर रहा है
(8) !!!! हैदर, यक तरफ़ा फिल्म !!!!
देखी पिछली रात, कुछ रिव्यु भी पढ़े, सब के सब प्रशंसा से भरे, विशाल भरद्वाज की प्रशंसा, गुलज़ार की प्रशंसा.....
लेकिन मुझे तो इस फ़िल्म में प्रशंसा लायक कुछ दिखा नहीं.....दिखा इस लिए नहीं कि इसे मात्र एक कहानी के तौर पे, एक ऐसी कहानी के तौर पे पेश किया जाता जो शेक्सपियर के नाटक पर आधारित है तो बात अलग थी
लेकिन इसे तो कश्मीर के आतंकवाद, कश्मीर के दर्द से जोड़ा गया
जोड़ो भाई जोड़ो ..... जोड़ो क्या, सीधा साफ़ दिखाओ...
बिल्कुल दिखाओ कि हिन्दू लोगों को कश्मीर से भगाने के लिए, उन्हें क़त्ल किया जाता रहा, उन को निशाना बनाया जाता रहा, कुछ वैसे ही जैसे पंजाब में हिन्दुओं को खालिस्तानियों द्वारा
आज तक पंजाब के लहुलुहान आतंकित दौर पर जितनी फिल्में बनी हैं, किसी ने सही तस्वीर नहीं दिखाई......हिन्दू पर कोई अत्याचार होता या तो दिखाया ही नही और दिखाया भी तो न के बराबर , अभी एक पंजाबी फिल्म देखी "साडा हक़" , बड़ा रौला रप्पा पड़ता रहा है, ...अधूरी फिल्म है, :माचिस" की तरह और इस विषय पर बनी बाक़ी फिल्मों की तरह ....
आतंकवादी इसलिए पैदा नहीं हुए कि उन पर अत्याचार हो रहे थे...न, न.......उन पर अत्याचार इसलिए हुए क्योंकि वो अत्याचार कर रहे थे........पैदा तो वो अपनी ही भ्रष्ट सोच समझ की वजह से हुए थे
और यहाँ भी "हैदर" फिल्म में, हैदर अपने पिता का बदला लेना चाहता है लेकिन देखने लायक बात यह थी कि उसके पिता आतंकियों के साथी थे, लेकिन पिता को हीरो दिखाया गया है और हैदर के चाचा को विलन, चाचा जिसकी मुखबिरी से हैदर का पिता पकड़ा जाता है, चूँकि उसने अपने घर में आतंकी छुपाया होता है ....पता नहीं, फिल्म बनाने वाले क्या साबित करना चाहते हैं?
और बड़ा मुद्दा दिखाया गया कि कश्मीरी मुसलमान गायब हो गये, निश्चित ही फ़ौज द्वारा मारे गये , टार्चर किये गये ...लेकिन क्या ये लोग आतंकी नहीं थे, या उनके साथी नहीं थे ? थे, फिल्म में दिखाया गया कि थे ....यहाँ लगता है कि फिल्म ठीक है
मेरा मानना है कि यदि कश्मीर का आतंक से भरा काल-खंड दिखाना है तो पूरा दिखाओ, दिखाओ कि हिन्दू क़त्ल किया गया मुस्लिम आतंकी द्वारा, बेघर किया गया.....दिखाओ कि फ़ौज ने आतंकी को पकड़ा और टॉर्चर किया और मारा, दिखाओ कि बहुत से गलत काम फ़ौज से भी हुए....पॉवर का बेजा इस्तेमाल दोनों तरफ से
दिखाओ कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति , चाहे खालिस्तानी हो चाहे कश्मीरी आतंकी , किसी को हक़ नहीं किसी को मारने का और यह दुनिया रही है रंग बिरंगे धर्म मानाने वाले लोगों से भरी.......
इस तरह बहुसंख्यक अगर अल्पसंख्यक लोगों को मारेंगे तो आधी दुनिया क़त्ल करने पड़ेगी
दिखाओ कश्मीरी ब्राह्मण का दर्द, कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े काल-खंड का मुख्य किरदार
दिखाओ....नहीं दिखाते लेकिन .....दिखाते हैं "हैदर", बकवास हैदर..........वैसे ही जैसे "माचिस", जैसे "साड्डा हक़"
(9) !!!! पंजाब का आतंकवाद, एक और नज़र !!!!!!
एक फिल्म बनी थी माचिस, गाना याद होगा आपको "चप्पा चप्पा चरखा चले", पंजाब में आतंकवाद पर आधारित, इस फिल्म को निर्देशित किया था गुलज़ार ने.......
बहुत अच्छी चली थी यह फिल्म.......
लेकिन इस फिल्म ने सच बिलकुल भी नहीं दिखाया, उल्टा झूठ फैलाया
दिखाया यह गया कि सिख जो उग्रवादी बने, वो इसलिए कि पुलिस ने, प्रशासन ने उन पर ज़ुल्म किये.....एक दम झूठ बात है
ज़ुल्म शुरू ही सिख उग्रवादियों ने किये थे.......भिंडरावाला शुरू से इस सब के पीछे था और कांग्रेस शुरू से उसके पीछे थी
लेकिन आज तक शायद ही किसी फिल्म ने, पूरी तस्वीर दिखाई हो..........
खालिस्तान की डिमांड पर हिन्दुओं को पंजाब से खदेड़ने के लिए ही उनको चुन चुन कर , कतार बना कर गोलियों से भून दिया जाता था.
पंजाब केसरी अखबार इसके विरुद्ध आवाज़ उठाता था, उनके बन्दे मार दिए गए
जो सिख इस के खिलाफ आवाज़ उठाता था, उसे भी मार दिया गया
और पंजाब में बिलकुल भी हिन्दू सिख का कोई फर्क नहीं था, हिन्दू को विशेष अधिकार न थे, ऐसे जो सिख को नहीं थे....न...न..
लेकिन फिर भी खालिस्तान का कांसेप्ट खड़ा किया गया, दिखाया गया कि चूँकि सिख अलग हैं सो उनका अलग मुल्क होना चाहिए.......मानस की जात सबे एको पहचानबो....सब भुला दिया गया...
भुला दिया गया कि गुरुओं ने तो मज़लूम की रक्षा के लिए अपने वंश तक कुर्बान कर दिए थे......
फिर एक आम आदमी को मार कर कौन सा आदर्श घड़ा जा रहा था?
गुरुद्वारों को आतंकवादियों ने अपनी पनाहगाह बना लिया था......आज अक्सर सिख कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने हरमंदर साब की बेअदबी की, वहां अन्दर फ़ौज भेज दी...... अरे भाई, ठीक है वहां पुलिस, फ़ौज नहीं जानी चाहिए, लेकिन इसी बात का फ़ायदा उठा कर तो गुरूद्वारे को एक सेफ-हाउस की तरह प्रयोग किया जाता था आतंकवादियों द्वारा, क़त्ल करते थे गुरुद्वारों में छुप जाते थे, गुरुद्वारा इन कामों के लिए बनाया जाता है क्या, बेअदबी तो आतंकवादियों ने की गुरुद्वारों की ...लेकिन वो शायद ही किसी सिख को नज़र आता हो
गुलज़ार जैसे कलाकार को नज़र नहीं आयी पूरी तस्वीर, और ये हमारे बुद्धीजीवी हैं, अरे जब तक नज़र साफ़ न हो, कुछ साफ़ नहीं दिखता, चाहे गुलज़ार हो चाहे कोई भी हो
उम्मीद है कि कोई फिल्म, कोई नाटक बनेगा, जो पंजाब में हिन्दू सिक्खों के कत्लों से लेकर दिल्ली में सिखों के कत्ले-आम की पूरी तस्वीर सही से दिखायेगा, और दिखायेगा कि सब कड़ियाँ जुड़ी थीं, और दिखायेगा कि कैसे जुड़ी थीं
(10) मनोज कुमार, कौन.....अरे वोही अपने भारत कुमार जी........उन्होंने ने अपनी छवि हनुमान यंत्र बेच कर खराब की है और किरण बेदी ने बीजेपी में आकर
सारी उम्र की कमाई गवा दी
उम्र के साथ अक्ल घट जाती है क्या?
घिस जाती है
(11) क्या अमिताभ बच्चन सदी के महानायक हैं?------लानत है, उस मुल्क कि सभ्यता संस्कृति पे, जहाँ सदी के महानायक के रूप में ऐसे व्यक्ति को प्रतिबिम्बित किया जा रहा है ----
a) जिन्होंने ने फिल्मों में काम करने के अलावा लगभग कुछ नहीं किया...अरे यदि मानदंड फिल्मों में काम ही रखना था तो बेहतर था गुरुदत्त को या आम़िर खान जैसे व्यक्ति को महानायक मान लेते.....कम से कम इन लोगों ने समाज को अपनी फिल्मों के ज़रिये बहुत कुछ सार्थक देने का प्रयास तो किया ....अमिताभ की ज्यदातर फिल्मों में दिखाया क्या गया...एक एंग्री यंग मन .....जो समाज की बुराईयों से लड़ता है शरीर के जोर पे.....सब बकवास ....शरीर नहीं विचार के जोर से समाज की बुराई खतम की जा सकती है..और जिन कलाकारों ने यह सब दिखाने का प्रयास किया, वो चले गए नेपथ्य में...उनकी फिल्मों को आर्ट फिल्में, बोर फिल्में कह के ठुकरा दिया गया.....समाज को कचरा चाहिए था..अमिताभ की फिल्मों ने कचरा परोस दिया.....काहे की महानता.....कला में क्या बलराज साहनी, ॐ पूरी, नसीरुद्दीन शाह किसी से कम रहे हैं....अगर सिनेमा के महानायक की ही बात कर लें तो भी अमिताभ मात्र कचरा सिनेमा के ही महानायक हैं.
b) जिन्होंने ने पैसों की खातिर अंट शंट advertisements की, इनसे तो बेहतर गोपी चंद पुलेला हैं, जिन्होंने पेप्सी की advertisement का बड़ा ऑफर ठुकरा दिया और इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें पता है कि पेप्सी सेहत के लिए हानिकारक है
कुछ ही समय पहले अमिताभ ने एक advertisement किया है ....पारले जी बिस्कुट का .......इस में वो एक अमीर व्यक्ति दिखाये गए हैं जो अपने नौकर पे इसलिए खफा होते हैं कि वो "सोचता" है ...श्रीमानजी फरमाते हैं , "अच्छा, तो अब आप सोचने भी लगे हैं"...जैसे सोचने का ठेका सिर्फ मालिक को है....जैसे नौकर ने सोच लिया तो गुनाह कर दिया
http://www dot youtube dot com/watch?v=x9VmK0L5vrk
Life taught me that Khushiyan (Happiness) can be brought in life through understanding of Life, but Amitabh Bachan is teaching me that Khushiyan are can be brought by eating MAGGI (2 Minute Me Khushiyan).
http://www dot youtube dot com/watch?v=ww8o0aCNDR0
c) जिनमें राजनीति की न सोच थी, न समझ... बस कूद गए बिना सोचे समझे....लेकिन फ़िर भागे मैदान छोड़ के तो दोबारा नहीं पलटे...अरे, मुल्क का समय, पैसा, उम्मीदें सब बर्बाद होती हैं ऐसे गैर ज़िम्मेदार नेतायों की वजह से ..... यदि वास्तव में ही जज़्बा होता देश सेवा का, तो सीखते और टिके रहते मैदान में.
d) जो अमर सिंह जैसे नेता को साथ चिपकाये रहे......वो अमर सिंह... जिनका शायद ही देश की दिशा दशा सुधारने में कोई योगदान किसी को पता हो
e) लानत है..... इस देश को सदी महानायक के लिए आंबेडकर, सी वी रमण, जगदीश बसु, मुंशी प्रेम चंद, भगत सिंह, आज़ाद, सुरजो सेन, अशफाकुल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे लोग न दिखे...
ऐसे लोग न दिखे जो समाज के दिए में तेल कि जगह अपना लहू जलाते रहे, दिखे तो पाद मारने के भी पैसे लेने वाले एक्टर, लानत है
जन जीवन के लिए जो असली नायक हैं, महानायक हैं...वो चले गए हाशिये पे और ऐसे व्यक्तियों ने जगह घेर ली जिनका योगदान नगण्य है या फिर ऋणात्मक है.
f) हमारा समाज यदि उन्हें मात्र सिनेमा का ही महानायक मानता तो वो आपको मैगी, कोला जैसी अंट शंट advertisement में न दीखते... व्यापारी वर्ग कोई मूर्ख नहीं है जो उनको करोड़ों रुपये देगा चंद सेकंड की परदे पे मौजूदगी के....व्यापारी को पता है कि भारतीय समाज सिनेमा के नायक को भगवान् की तरह पूजता है, मंदिर तक बनाता है, और यहीं मेरा विरोध है .....आप लाख कहते रहो कि वो तो मात्र सिनेमा के नायक हैं, महानायक हैं......लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म कलाकार भारतीय जनमानस के देवता हैं.........
g) लाख गीत गाते रहो अपनी महान सभ्यता संस्कृति के, महानायक के चुनाव से सब ज़ाहिर होता है कितनी महान सभ्यता है, कितनी महान संस्कृति.....
h) जिस दिन इस देश के मापदंड बदलेंगे उस दिन कोई उम्मीद बनेगी, वरना जैसी देश की कलेक्टिव सोच है, वैसे ही नायक मिलेंगें, वैसे ही महानायक, वैसी ही सरकार बनेगी, वैसे ही बे-असरदार सरदार मिलेंगें, और खिलाड़ी ओलंपिक्स में पिटते रहेंगें और रुपया बाज़ार में धूल फांकता रहेगा.
वैसे कीमत तो कोई मिलेगी नहीं, लेकिन फिर भी अपनी कीमती राय ज़रूर दीजिये
नमन.......कॉपी राईट मैटर........चुराएं न....शेयर करें
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