"आज मेरी बात-1"

माँ सिख परिवार से हैं.......पिता हिन्दू........लेकिन पिता गुरुद्वारे ज़्यादा जाते थे.....माँ मंदिर ज़्यादा मानती हैं, पिता जी गुज़रे तो माँ ने गरुड़ पाठ रखवाया था, मंदिर गुरुद्वारे का कभी भेद नहीं रहा, जब जिधर रुख हो गया उधर चल दिए
वैसे मुझे गोद लिया हुआ है, पिछले परिवार से भाई भी आधे मौने, आधे केसधारी....सब मिला जुला है.......एक भाभी इसाई हैं लेकिन आज खूब गुरुद्वारे जाती हैं.....सब मिलाजुला
अब बेटी, वो और मैं एक जैसे.....बागी.....
लेकिन बीवी ब्राह्मणी है, जन्म से भी और कर्म से भी.... मुझे सिवा सन के यह कभी ठीक से याद नहीं रहता कि महीना कौन सा है, दिन वार, तारीख तो दूर की बात....उसे अमावास, पूर्णिमा, दिन, वार सब याद होता है........शनिवार लेने वाली अपने आप द्वार पर पहुँच जाती है, उसे ससम्मान जो देना होता है दिया जाता है, पीपल पर जल चढाया जाता है, ज्योतिषी से परामर्श लिया जाता है
श्रीमती जी को सब पता है मैं क्या सोचता हूँ, कहता हूँ, लिखता हूँ लेकिन बढ़िया बात यह है कि हमारे घर में इन मामलों को लेकर पूरी स्वतन्त्रता है........कोई किसी को ज़बरदस्ती नहीं करता
श्रीमती जी मंदिर में घंटी बजाती रहती हैं ......माँ वाहगुरू वाहगुरू करती हैं......मैं और बेटी अपने फलसफे घड़ते रहते हैं
हाँ, इक दूजे का मन रखने को कभी कभार न मानते हुए भी बात मान लेते हैं लेकिन अंदर से सब पक्के ढीठ हैं.......सबको सबका पता है
एक बड़े भैया हैं, मौसी के बेटे लेकिन सगे से भी ज़्यादा सगे, उनकी कहानी किताबों से निकली लगती है, किसी ज़माने में झुग्गियों में रहते थे आज दिल्ली के सबसे महंगे इलाकों में से एक, पंजाबी बाग़ में रहते हैं.......भाभी को पता है कि बाला (यह मेरा नाम है) कुछ नहीं मानता लेकिन वो साल में जितने प्रोग्राम करते हैं, हमें बुलाते हैं और हम सपरिवार जाते हैं...प्रोग्राम मतलब शिव संध्या, शिव बरात, कांवड़ सेवा, गणेश विसर्जन और भी पता नहीं क्या.....साल में कम से कम आधा दर्ज़न भारी भरकम प्रोग्राम.....बीवी जाती हैं अपनी वजह से, हम जाते हैं अपनी वजह से.....बाकी सब मत्था टेकते हैं, मैं और बेटी बस हाजिरी लगाते हैं, साथ खड़े रहते हैं......आँखों ही आँखों मुस्कराते हुए
खैर, आपको हक़ है पूछने का कि जब मैं इतना विरोध करता हूँ तथा कथित धर्मों का तो फिर यह सब बखान क्यों...और मेरा जाना क्यों......मेरा जवाब सिर्फ इतना ही है दोस्तो, अन्दर से बात को समझना ज़रूरी है....सर्वाइवल भी ज़रूरी है......दीवार से सर की टक्कर मारोगे तो सर ही टूटेगा, दीवार नहीं.....समाज बहुत मज़बूत दीवार है.......मरना ही शहादत नहीं, जीना भी शहादत है.......सो समाज में जीते रहो, सीखते रहो , सीखाते रहो......सब हालात के मुताबिक
क्रमशः

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