बच्चे को न सर दर्द पता है, न थकावट और न ही पागलपन और न ही मूर्खता.....आपको शायद ही कभी कोई बच्चा मूर्ख दिखे, पागल दिखे ...यह सब बड़ों की बीमारियाँ हैं, न ही बच्चे को कभी सर दर्द होता है....न ही उसे थकावट होती है...जीवन उसके लिए नित नया है, बच्चा कभी थकता ही नहीं.........उस तरह से कभी नहीं जैसे बड़े लोग थकते हैं, उचाट कभी नहीं, ऐसे कभी नहीं जैसे जीवन चूका जा रहा हो, रीता जा रहा हो, ऐसे कभी नहीं.....
अभी पड़ोस में ही एक मृत्यु हो गई.....लगभग चालीस साल का व्यक्ति...ब्लड कैंसर......उनकी तकरीबन पांच साल की बेटी से यदाकदा मैं खेलता था....उसका नाम है 'विधि'.....प्यार मैं उसे मैं मेथड......'ओ मेथड' बुलाता हूँ......बहुत चंचल...बहुत तेज़ भागती दौडती है........उनके घर के बाहर भीड़ थी.......औरते और आदमी सब.....कहीं से भागती आयी सबके सामने, मुझसे लिपट गई...हंसती हुई.....अंकल अंकल मुझे गोदी उठाओ, मैंने उठा लिया. "अंकल , आपको पता है, ऊपर मेरे पापा मरे पड़े हैं."
मैं फक्क. सब मुझे और उसे देख रहे.....मैं कुछ बोल ही न सका. उसके लिए जैसे यह कुछ हुआ ही न हो. आप इस घटना को कैसे भी देख सकते हैं. जैसे बच्चे को अभी पता नहीं कि पापा का मरना क्या होता है, उसके जीवन पर इसका क्या असर होने वाला है.....मेरे भी मन में बहुत कुछ आया. फिर मैं सोच रहा था कि यदि हमारा समाज ऐसा हो कि बच्चे के आगामी जीवन का उसके पापा की मृत्यु का कोई बहुत असर न पड़ता हो तो शायद बच्ची अपनी जगह सही है, इसके लिए आज का दिन भी भागने दौड़ने का है, मस्ती भरा है. दरियाँ बिछी हैं......बड़े पंखे चल रहे हैं, खुली जगह है.
बहुत कुछ है जो हमें बच्चों से सीखना है, शायद हमें अंदर अंदर से यह पता भी है...तभी तो हम 'वो बारिश का पानी और कागज़ की कश्ती' को याद करते रहते हैं, वो बचपन की गलियां नहीं भूलते, तभी हम गाते भी हैं 'बच्चे मन के सच्चे'.......तभी हैरी पॉटर, नार्निया और लार्ड ऑफ़ दी रिंग्स जैसी कहानियाँ न सिर्फ बच्चों में बल्कि बड़ों को भी प्रिय हैं...... तभी हम बच्चों के साथ थोड़ी देर खेल कर ही तरोताजा हो जाते हैं.
तमाम दुनिया की किताबें एक तरफ हैं और बच्चे का जीवन एक तरफ़.....वो पुलकित, वो कुसुमित.......असल में बहुत किताबें तो लिखनी ही इसलिए पड़ी कि मनुष्य बचपना खो चुका........बचपन की सुगंध खो चुका....मनुष्य ऐसी जीवन पद्धति विकसित ही नहीं कर पाया कि वो बच्चों की तरह उछलता, कूदता, चहकता जीवन व्यतीत कर सके.....जैसे जैसे वो बड़ा होता है, उसका जीवन कोल्हू के बैल जैसा हो जाता है, धोबी के गधे जैसा हो जाता है.........नीरस.
लाख कहते रहो कि हमारी संस्कृति बहुत विकसित है...नहीं, अभी तो हम प्राकृतिक भी नहीं हुए, संस्कृत होना, सुसंस्कृत होना तो दूर की बात है...अभी तो विकृत हुए हैं.
प्रकृति देखनी है तो बच्चों में देखिये........विकृत देखनी है तो बड़ों को देखिये.
दो बिटिया हैं मेरी.......यकीन जानिये दोनों नहीं होती इस पृथ्वी पर यदि मेरी चलती......दोनों बार बहुत कलेश किया मैंने....मैं चाहता ही नहीं था कि हमारे बच्चे हों..."बहुत जनसंख्या है पृथ्वी पर.......फिर हमारे बच्चे हमारे ही शरीर से हों यह भी क्या ज़रूरी"......लेकिन मेरी कहाँ चलती? सब परिवार वाले दोनों बार श्रीमतीजी की तरफ़........छोटी वाली की बारी तो बहुत ही ज़्यादा कलेश किया मैंने कि उसे ड्राप कर दिया जाए....लेकिन हारना पड़ा मुझे......आप मानेंगे, वो ही सबसे प्रिय है मुझे.
अभी मेरी पीठ को बोर्ड बना कर पेन से पेंटिंग कर रही थी.......सारा दिन घर उसकी चिल्ल-पों से गूंजता रहता है.....उसके उठते ही घर जैसे जाग जाता है.....अलसाने तक का मौका नहीं मिलता........सबको छोटी उंगली पर नचा के रखती है...उसे हर चीज़ समझनी हैं, हर चीज़ जाननी है, हर काम खुद करना है......हम खाना खिलाएं तो नहीं खाना, अपने हाथ से खायेगी, आधा गिरा देगी लेकिन अपने हाथ से खायेगी.....कुत्तु को पूँछ पकड़ के घुमा देगी, वो भी उसे कुछ नहीं कहता जैसे जन्मों का नाता हो.....कार की पिछली सीट पर कभी नहीं टिकती, दोनों अगली सीटों के बीच खड़ी हो मुझे आवाजें मारेगी........हर तीसरे दिन हैप्पी बर्थडे करना होता है.....केक काटा जाए, मोमबत्ती लगाई जाए........सब तालियाँ बजाएं.....बहुत खुश होती है........केक को "हैप्पी टू यू" बोलती है.........आजकल विडियो देखने का शौक है....दीदा (बड़ी बेटी) का डेस्कटॉप और मेरा लैप टॉप घेरे रहती है.......अभी तीन चार दिन पहले ही कह रही थी......"पापा मेला मोबाइल...मेला मोबाइल".....यानि मुझे अलग से मोबाइल ले के दो, ताकि मैं निर्विरोध विडियो देख सकूं........अपनी ज़िद मनवाने को पुच्चियों की रिश्वत देगी, उसे पता है, उसकी पुच्चियों से पहाड़ भी पिघल जाते हैं, वो भी तुरंत......ब्रह्मास्त्र......सो जो बात मनवानी हो, तुरत मनवा लेती है....यदि लगे कि माँ, डांट रही हैं, गुस्सा हैं, पुच्चियों की बारिश, माँ बर्फ़......मेरी बच्ची.
छोटे बच्चे के साथ बैट बॉल खेलने में जो मज़ा है, वो क्रिकेट वर्ल्ड कप मैच देखने में कहाँ?
जो मज़ा बच्चे से कुश्ती हारने में है वो शायद दुनिया का सबसे बड़ी जंग जीतने में भी नहीं है ...असल में जंग जीतने का मज़ा तो कोई रुग्ण व्यक्ति ही ले सकता है.
नमकीन में से निकाली गई मूंगफली, बिस्कुट के ऊपर से उतारा गया काजू और बच्चे से ली गई आइसक्रीम ज़्यादा ही स्वाद होते हैं
छोटी के लिए लिखा था, कोई साल भर पहले
"मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है
तू ही प्रभु है या फिर तुझे स्वयम्भू कहूं
तू कौन है
तू क्या है
तू कितनी अच्छी है
तू कितनी प्यारी है
तुझे कुदरत ने कितनी उम्मीदों से भेजा है
सोचता हूँ, मैं इस काबिल भी हूँ, तेरे काबिल भी हूँ
फिर सोचता हूँ, कुदरत ने भेजा है तो सोच कर ही भेजा होगा
तेरी किलकारियों के साथ ही घर जैसे रोशनी से भर जाता है
तेरे उठते ही जीवन जाग जाता है
तेरे सोते ही रात घिर आती है
मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है"
कभी सोचता हूँ, कितनी प्यारी है यह, क्या दुनिया इसके लायक है......बड़ी होगी, कैसी बकवास दुनिया का सामना करेगी.....जहाँ इंसान इंसान पे कभी भरोसा नहीं कर सकता...हर वक्त यही डर लगा रहता है कि कोई हमें मूर्ख न बना ले, लूट न ले, मार न दे.
हमारी आधी से ज़्यादा समझदारी तो बस यह है कि दूसरे हमें बेवकूफ़ न बना दें, दूसरों से खुद को कैसे सुरक्षित करना है, बचा के रखना है......ऐसी दुनिया विकसित की है हमने और इसे हम संस्कृति कहते हैं, इस पर गर्व करते हैं.....
छोटी बड़ी तेज़ी से बड़ी होती जा रही है, अभी कल पैदा हुई थी, अब सवा दो साल की हो गई है, कब बराबर की हो जायेगी पता भी न चलेगा......सोचते हैं हम सब कितना अच्छा हो यह छोटी ही रहे, हम सब यूँ ही इसके साथ हँसते खेलते रहें, मस्ती करते रहें......उसके साथ हम सब भी छोटे हो जाते हैं और हममें से कोई भी बड़ा नहीं होना चाहता...हम अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय उसके साथ ही बिताना चाहते हैं.....अभी तो बिता भी पाते हैं....मैं सोचता हूँ, कैसे अभागे हैं, वो माँ बाप जो अपने बच्चों को समय ही नहीं दे पाते...कितनों को तो यह पता ही नहीं लगता कि उनके बच्चे कब बड़े हो गए.
आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो.
मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया.
मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, बैरे नंगे पैर घूमते थे, आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब सागर रत्न रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता.
खैर, आज भी डबल ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे
बड़ी वाली बिटिया को मैं आज भी वैसे ही चूमता हूँ, गले लगता हूँ......उसे कहता हूँ, "बेटा तू जितनी भी बड़ी हो जा, तेरा बाप ऐसा ही रहेगा, ये बड़ा नहीं होगा".....वो भी कहती है,"पापा बड़ा कौन होना चाहता है? बड़े हो के क्या मिलना है सिवा सर दर्द के, पागलपन के, बीमारियों के?"
जब मैं यह कहता हूँ कि माँ बाप को समय बिताना चाहिए बच्चों के साथ तो मेरा मतलब यह कि माँ बाप को बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत हैं, बच्चों से. असल में बच्चों के पास सिखाने को बहुत कुछ है, बहुत कुछ कीमती. सिखाने के लिए तो बड़ों के पास भी है लेकिन उसमें बहुत कुछ कचरा तो है, घातक है.
जीवन कैसे जीया जाए.....यहाँ 'आर्ट ऑफ़ लाइफ' सिखाया जाता है....यहाँ 'नींद कैसे ली जाए' सम्मोहन से सिखाया जाता है...उसके हज़ारों रुपैये लिए जाते हैं......नाचना, खुल के हँसना, चीखना चिल्लाना सिखाया जाता है......ध्यान की विधियाँ.
सब सिखावन इसलिए है कि बचपन से नाता टूट गया है....होशियार होना पड़ा...हम ऐसी दुनिया नहीं बना सके कि मस्त रह सकें...हमें हर वक्त चौकन्ने रहना पड़ता है........सब्ज़ी भी लेते हैं तो उल्ट पुलट देखनी पड़ती है...कहीं हमारा बेवकूफ न बनाया जा रहा हो.
बच्चों को देख लो, वो आपके लम्बी दाढ़ी, लम्बे बालों वाले गुरुओं के गुरु हैं. बेहतरीन गुरु. लेकिन सबसे बड़े गुरु से भी आप नहीं सीख सकते, यदि आपने न सीखना हो. कहते हैं कि शिष्य तैयार हो तो गुरु हाज़िर हो जाता है. असल में गुरु तो हर वक्त हाज़िर ही होता है. पूरी कायनात गुरु है. और कायनात हर वक्त नए बच्चे भेजती है, नए गुरु, ताकि आप और हम सीख सकें लेकिन हम अटके रहते हैं, सदियों पुराने, बीत चुके, रीत चुके मुर्दों के साथ.
और जैसे सब बेह्तरीन गुरुओं के साथ इन्सान ने ना-इन्साफ़ी की है, वैसे ही बच्चों के साथ भी बेहूदगी ही की है आज तक. ज़्यादातर. उन्हें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया है...बच्चों के साथ पेश आने की तमीज़ ही नहीं है, बड़ों को. जैसे बच्चा इज्ज़त के काबिल ही नहीं...जैसे बीस तीस बरस पहले इस पृथ्वी पर आने से बड़ों में कोई सुरखाब के पर लग गए....बेहूदे
कहते हैं कि बड़े असल में बच्चे ही होते हैं, बड़े बच्चे ....Grown-up Kids.......लेकिन मुझे लगता है कि बड़े बड़े नहीं होते बिगड़े होते हैं....बिगड़े बच्चे ....या कहें कि बिगाड़े गए बच्चे.....Spoilt Kids.
वो कहते हैं .....कुछ दिन तो गुज़ारिये गुजरात में.....मैं कहता हूँ....सारा नहीं, लेकिन कुछ समय तो गुज़ारिये बच्चों में.....और सिर्फ सिखाने की नहीं, सीखने की कोशिश करिए उनसे.
आपके बहुत से गुरु बौने लगेंगे, अद्धे-पौने लगेंगे और बच्चे आपको नोने लगेंगे, सोने लगेंगे
नमन...कॉपी राईट मैटर..... चुराएं न..... साँझा कर सकते हैं
अभी पड़ोस में ही एक मृत्यु हो गई.....लगभग चालीस साल का व्यक्ति...ब्लड कैंसर......उनकी तकरीबन पांच साल की बेटी से यदाकदा मैं खेलता था....उसका नाम है 'विधि'.....प्यार मैं उसे मैं मेथड......'ओ मेथड' बुलाता हूँ......बहुत चंचल...बहुत तेज़ भागती दौडती है........उनके घर के बाहर भीड़ थी.......औरते और आदमी सब.....कहीं से भागती आयी सबके सामने, मुझसे लिपट गई...हंसती हुई.....अंकल अंकल मुझे गोदी उठाओ, मैंने उठा लिया. "अंकल , आपको पता है, ऊपर मेरे पापा मरे पड़े हैं."
मैं फक्क. सब मुझे और उसे देख रहे.....मैं कुछ बोल ही न सका. उसके लिए जैसे यह कुछ हुआ ही न हो. आप इस घटना को कैसे भी देख सकते हैं. जैसे बच्चे को अभी पता नहीं कि पापा का मरना क्या होता है, उसके जीवन पर इसका क्या असर होने वाला है.....मेरे भी मन में बहुत कुछ आया. फिर मैं सोच रहा था कि यदि हमारा समाज ऐसा हो कि बच्चे के आगामी जीवन का उसके पापा की मृत्यु का कोई बहुत असर न पड़ता हो तो शायद बच्ची अपनी जगह सही है, इसके लिए आज का दिन भी भागने दौड़ने का है, मस्ती भरा है. दरियाँ बिछी हैं......बड़े पंखे चल रहे हैं, खुली जगह है.
बहुत कुछ है जो हमें बच्चों से सीखना है, शायद हमें अंदर अंदर से यह पता भी है...तभी तो हम 'वो बारिश का पानी और कागज़ की कश्ती' को याद करते रहते हैं, वो बचपन की गलियां नहीं भूलते, तभी हम गाते भी हैं 'बच्चे मन के सच्चे'.......तभी हैरी पॉटर, नार्निया और लार्ड ऑफ़ दी रिंग्स जैसी कहानियाँ न सिर्फ बच्चों में बल्कि बड़ों को भी प्रिय हैं...... तभी हम बच्चों के साथ थोड़ी देर खेल कर ही तरोताजा हो जाते हैं.
तमाम दुनिया की किताबें एक तरफ हैं और बच्चे का जीवन एक तरफ़.....वो पुलकित, वो कुसुमित.......असल में बहुत किताबें तो लिखनी ही इसलिए पड़ी कि मनुष्य बचपना खो चुका........बचपन की सुगंध खो चुका....मनुष्य ऐसी जीवन पद्धति विकसित ही नहीं कर पाया कि वो बच्चों की तरह उछलता, कूदता, चहकता जीवन व्यतीत कर सके.....जैसे जैसे वो बड़ा होता है, उसका जीवन कोल्हू के बैल जैसा हो जाता है, धोबी के गधे जैसा हो जाता है.........नीरस.
लाख कहते रहो कि हमारी संस्कृति बहुत विकसित है...नहीं, अभी तो हम प्राकृतिक भी नहीं हुए, संस्कृत होना, सुसंस्कृत होना तो दूर की बात है...अभी तो विकृत हुए हैं.
प्रकृति देखनी है तो बच्चों में देखिये........विकृत देखनी है तो बड़ों को देखिये.
दो बिटिया हैं मेरी.......यकीन जानिये दोनों नहीं होती इस पृथ्वी पर यदि मेरी चलती......दोनों बार बहुत कलेश किया मैंने....मैं चाहता ही नहीं था कि हमारे बच्चे हों..."बहुत जनसंख्या है पृथ्वी पर.......फिर हमारे बच्चे हमारे ही शरीर से हों यह भी क्या ज़रूरी"......लेकिन मेरी कहाँ चलती? सब परिवार वाले दोनों बार श्रीमतीजी की तरफ़........छोटी वाली की बारी तो बहुत ही ज़्यादा कलेश किया मैंने कि उसे ड्राप कर दिया जाए....लेकिन हारना पड़ा मुझे......आप मानेंगे, वो ही सबसे प्रिय है मुझे.
अभी मेरी पीठ को बोर्ड बना कर पेन से पेंटिंग कर रही थी.......सारा दिन घर उसकी चिल्ल-पों से गूंजता रहता है.....उसके उठते ही घर जैसे जाग जाता है.....अलसाने तक का मौका नहीं मिलता........सबको छोटी उंगली पर नचा के रखती है...उसे हर चीज़ समझनी हैं, हर चीज़ जाननी है, हर काम खुद करना है......हम खाना खिलाएं तो नहीं खाना, अपने हाथ से खायेगी, आधा गिरा देगी लेकिन अपने हाथ से खायेगी.....कुत्तु को पूँछ पकड़ के घुमा देगी, वो भी उसे कुछ नहीं कहता जैसे जन्मों का नाता हो.....कार की पिछली सीट पर कभी नहीं टिकती, दोनों अगली सीटों के बीच खड़ी हो मुझे आवाजें मारेगी........हर तीसरे दिन हैप्पी बर्थडे करना होता है.....केक काटा जाए, मोमबत्ती लगाई जाए........सब तालियाँ बजाएं.....बहुत खुश होती है........केक को "हैप्पी टू यू" बोलती है.........आजकल विडियो देखने का शौक है....दीदा (बड़ी बेटी) का डेस्कटॉप और मेरा लैप टॉप घेरे रहती है.......अभी तीन चार दिन पहले ही कह रही थी......"पापा मेला मोबाइल...मेला मोबाइल".....यानि मुझे अलग से मोबाइल ले के दो, ताकि मैं निर्विरोध विडियो देख सकूं........अपनी ज़िद मनवाने को पुच्चियों की रिश्वत देगी, उसे पता है, उसकी पुच्चियों से पहाड़ भी पिघल जाते हैं, वो भी तुरंत......ब्रह्मास्त्र......सो जो बात मनवानी हो, तुरत मनवा लेती है....यदि लगे कि माँ, डांट रही हैं, गुस्सा हैं, पुच्चियों की बारिश, माँ बर्फ़......मेरी बच्ची.
छोटे बच्चे के साथ बैट बॉल खेलने में जो मज़ा है, वो क्रिकेट वर्ल्ड कप मैच देखने में कहाँ?
जो मज़ा बच्चे से कुश्ती हारने में है वो शायद दुनिया का सबसे बड़ी जंग जीतने में भी नहीं है ...असल में जंग जीतने का मज़ा तो कोई रुग्ण व्यक्ति ही ले सकता है.
नमकीन में से निकाली गई मूंगफली, बिस्कुट के ऊपर से उतारा गया काजू और बच्चे से ली गई आइसक्रीम ज़्यादा ही स्वाद होते हैं
छोटी के लिए लिखा था, कोई साल भर पहले
"मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है
तू ही प्रभु है या फिर तुझे स्वयम्भू कहूं
तू कौन है
तू क्या है
तू कितनी अच्छी है
तू कितनी प्यारी है
तुझे कुदरत ने कितनी उम्मीदों से भेजा है
सोचता हूँ, मैं इस काबिल भी हूँ, तेरे काबिल भी हूँ
फिर सोचता हूँ, कुदरत ने भेजा है तो सोच कर ही भेजा होगा
तेरी किलकारियों के साथ ही घर जैसे रोशनी से भर जाता है
तेरे उठते ही जीवन जाग जाता है
तेरे सोते ही रात घिर आती है
मेरी नन्ही बिटिया
तू बस सवा साल की है
तू मासूम है
तू ही तो प्रकृति है
तू है विशुद्ध जीवन
तू निपट प्रेम है"
कभी सोचता हूँ, कितनी प्यारी है यह, क्या दुनिया इसके लायक है......बड़ी होगी, कैसी बकवास दुनिया का सामना करेगी.....जहाँ इंसान इंसान पे कभी भरोसा नहीं कर सकता...हर वक्त यही डर लगा रहता है कि कोई हमें मूर्ख न बना ले, लूट न ले, मार न दे.
हमारी आधी से ज़्यादा समझदारी तो बस यह है कि दूसरे हमें बेवकूफ़ न बना दें, दूसरों से खुद को कैसे सुरक्षित करना है, बचा के रखना है......ऐसी दुनिया विकसित की है हमने और इसे हम संस्कृति कहते हैं, इस पर गर्व करते हैं.....
छोटी बड़ी तेज़ी से बड़ी होती जा रही है, अभी कल पैदा हुई थी, अब सवा दो साल की हो गई है, कब बराबर की हो जायेगी पता भी न चलेगा......सोचते हैं हम सब कितना अच्छा हो यह छोटी ही रहे, हम सब यूँ ही इसके साथ हँसते खेलते रहें, मस्ती करते रहें......उसके साथ हम सब भी छोटे हो जाते हैं और हममें से कोई भी बड़ा नहीं होना चाहता...हम अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय उसके साथ ही बिताना चाहते हैं.....अभी तो बिता भी पाते हैं....मैं सोचता हूँ, कैसे अभागे हैं, वो माँ बाप जो अपने बच्चों को समय ही नहीं दे पाते...कितनों को तो यह पता ही नहीं लगता कि उनके बच्चे कब बड़े हो गए.
आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो.
मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया.
मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, बैरे नंगे पैर घूमते थे, आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब सागर रत्न रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता.
खैर, आज भी डबल ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे
बड़ी वाली बिटिया को मैं आज भी वैसे ही चूमता हूँ, गले लगता हूँ......उसे कहता हूँ, "बेटा तू जितनी भी बड़ी हो जा, तेरा बाप ऐसा ही रहेगा, ये बड़ा नहीं होगा".....वो भी कहती है,"पापा बड़ा कौन होना चाहता है? बड़े हो के क्या मिलना है सिवा सर दर्द के, पागलपन के, बीमारियों के?"
जब मैं यह कहता हूँ कि माँ बाप को समय बिताना चाहिए बच्चों के साथ तो मेरा मतलब यह कि माँ बाप को बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत हैं, बच्चों से. असल में बच्चों के पास सिखाने को बहुत कुछ है, बहुत कुछ कीमती. सिखाने के लिए तो बड़ों के पास भी है लेकिन उसमें बहुत कुछ कचरा तो है, घातक है.
जीवन कैसे जीया जाए.....यहाँ 'आर्ट ऑफ़ लाइफ' सिखाया जाता है....यहाँ 'नींद कैसे ली जाए' सम्मोहन से सिखाया जाता है...उसके हज़ारों रुपैये लिए जाते हैं......नाचना, खुल के हँसना, चीखना चिल्लाना सिखाया जाता है......ध्यान की विधियाँ.
सब सिखावन इसलिए है कि बचपन से नाता टूट गया है....होशियार होना पड़ा...हम ऐसी दुनिया नहीं बना सके कि मस्त रह सकें...हमें हर वक्त चौकन्ने रहना पड़ता है........सब्ज़ी भी लेते हैं तो उल्ट पुलट देखनी पड़ती है...कहीं हमारा बेवकूफ न बनाया जा रहा हो.
बच्चों को देख लो, वो आपके लम्बी दाढ़ी, लम्बे बालों वाले गुरुओं के गुरु हैं. बेहतरीन गुरु. लेकिन सबसे बड़े गुरु से भी आप नहीं सीख सकते, यदि आपने न सीखना हो. कहते हैं कि शिष्य तैयार हो तो गुरु हाज़िर हो जाता है. असल में गुरु तो हर वक्त हाज़िर ही होता है. पूरी कायनात गुरु है. और कायनात हर वक्त नए बच्चे भेजती है, नए गुरु, ताकि आप और हम सीख सकें लेकिन हम अटके रहते हैं, सदियों पुराने, बीत चुके, रीत चुके मुर्दों के साथ.
और जैसे सब बेह्तरीन गुरुओं के साथ इन्सान ने ना-इन्साफ़ी की है, वैसे ही बच्चों के साथ भी बेहूदगी ही की है आज तक. ज़्यादातर. उन्हें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया है...बच्चों के साथ पेश आने की तमीज़ ही नहीं है, बड़ों को. जैसे बच्चा इज्ज़त के काबिल ही नहीं...जैसे बीस तीस बरस पहले इस पृथ्वी पर आने से बड़ों में कोई सुरखाब के पर लग गए....बेहूदे
कहते हैं कि बड़े असल में बच्चे ही होते हैं, बड़े बच्चे ....Grown-up Kids.......लेकिन मुझे लगता है कि बड़े बड़े नहीं होते बिगड़े होते हैं....बिगड़े बच्चे ....या कहें कि बिगाड़े गए बच्चे.....Spoilt Kids.
वो कहते हैं .....कुछ दिन तो गुज़ारिये गुजरात में.....मैं कहता हूँ....सारा नहीं, लेकिन कुछ समय तो गुज़ारिये बच्चों में.....और सिर्फ सिखाने की नहीं, सीखने की कोशिश करिए उनसे.
आपके बहुत से गुरु बौने लगेंगे, अद्धे-पौने लगेंगे और बच्चे आपको नोने लगेंगे, सोने लगेंगे
नमन...कॉपी राईट मैटर..... चुराएं न..... साँझा कर सकते हैं
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