इंडस्ट्री बढनी चाहिए, इससे रोज़गार बढेगा, निर्यात बढ़ेगा और फिर निर्यात से जुड़े रोज़गार तो बढेंगे ही
लेकिन ख्याल यह रखना चाहिए कि उद्यम वो होने चाहिए जो देश दुनिया के फायदे में हों, मात्र पैसा कमाने के लिए आज जो बहुत सी कंपनियां खड़ी हैं, वैसे उद्यम तो न ही हों तो बेहतर.
जैसे पानी को बोतल में भर के बेचना, यह कोई धंधा नहीं है, यह इंसान के मुंह पर तमाचा है, उसे बताना है कि तुझे साफ़ पानी भी अगर पीना है तो एक लीटर के अठारह रुपये देने होंगे....
जैसे मैदे से भरे पिज़्ज़ा, बर्गर बेचना, जिनमें न स्वाद है न सेहत...
जैसे फेयर एंड लवली क्रीम , जो इंसान को बताती है कि काले होना कोई गुनाह से कम नहीं है
एक बात और समझनी ज़रूरी है, उद्यम उतने ही बढ़ने चाहिए, जितने से इकोलोजिकल संतुलन बना रहे.....उद्योग प्रदूषण फैलाते हैं, प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ते हैं......
इंसान को फर्नीचर चाहिए, पेड़ काट दो.......क्या उतने ही पेड़ लगाये भी जाते हैं, क्या बार बार पेड़ काटने और लगाने से पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति पर बुरा असर तो नहीं पड़ता?
सस्ती पैकिंग चाहिए प्लास्टिक के लिफ़ाफ़े पैदा करो....बिना यह सोचे कि यह जल्दी से गलेंगे नहीं.
देखिये, यह पृथ्वी मात्र इंसानों की नहीं है, इस पर पेड़ पौधों, पशु पक्षियों सब का हक़ है और इस हक़ का ख्याल रखने में ही इंसानों का भी भला छुपा है....यदि हम कहीं भी असंतुलन पैदा करेंगे तो उसका खामियाजा हमें भी भुगतना पड़ेगा
सो हमें पूरा ज़ोर इंसानी आबादी कम करने पर इसलिए भी लगाना चाहिए कि हमें कम से कम उद्योगों की ज़रुरत पड़े
यदि मेरी बात सही से समझें तो एक तरफ मैं यह कह रहा हूँ कि उद्योग बढ़ने चाहियें, दूसरी तरफ मैं यह भी कह रहा हूँ कि उद्योग बेतहाशा नहीं बढ़ने चाहिए .......उद्योग बढ़ने चाहियें ताकि रोज़गार मिले, चीज़ें सस्ती हों ..लेकिन चूँकि उद्योग प्राकृतिक संतुलन खराब कर रहे होते हैं सो इंसानों को अपनी ज़रूरतें कम करनी होंगी, आबादी कम करनी होगी
प्रकृति ने ठेका नहीं लिया इंसान की हर ज़रूरी, गैर ज़रूरी ज़रुरत को पूरा करने का....यदि हम उसका ख्याल रखना बंद कर देते हैं तो वो भी हमारा ख्याल रखना बंद कर देती है.....भूकम्प, सूनामी, बाढें हमारी अपनी बेवकूफियों का नतीजा हैं
सो इंडस्ट्री चाहिए, लेकिन सीमित
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