मुआवजा दे तो सकते हैं, कर्जा माफ़ कर तो सकते हैं ...लेकिन यह भी तो समाज पर बोझ ही होगा, सामाजिक असंतुलन पैदा करेगा. यह ज़रूरी तो है लेकिन क्या यह कोई हल है?
किसान की ऐसी हालात इस बारिश की वजह से नहीं हुआ है, उसकी वजह यह है कि जनसंख्या के बढ़ने से ज़मीन टुकड़ों में बंटती चली गयी, और बंटते बंटते वो इतनी कम रह गयी कि अब वो किसी एक परिवार के पेट पालने लायक भी नहीं रही, आज अगर एक किसान परिवार के पास पहले जैसा बड़ा टुकड़ा हो ज़मीन का, तो उसकी कमाई से ही वो अपना वर्तमान और भविष्य सब संवार लेगा
खेती तो है ही कुदरत पर निर्भर, वो कभी भी खराब हो सकती है सो यदि किसान होगा पूरा-सूरा तो निश्चित ही कुदरत की मार उसकी कमर तोड़ देगी, लेकिन यदि वो मज़बूत होगा तो निश्चित ही इस तरह की बारिशें तो उस पर कभी कहर बन कर न टूट सकेंगी........
सो मेरे ख्याल से मुआवजा फ़ौरी हल तो हो सकता है लेकिन इससे कोई मुद्दा हल नहीं होगा .....आज आप बचा लो किसान, कल वो और बच्चे पैदा करेगा, फिर उनकी दिक्कतें बढ़ती जायेंगी.......आप कब तक मुआवजें देते रहेंगे और मुआवज़े कोई आसमान से तो गिरते नहीं.....वो भी समाज का पैसा है.......समाज का एक हिस्सा दूसरे हिस्से को कब तक पाले, क्यों पाले?
सो हल तो निश्चित ही कुछ और हैं
कहीं पढ़ा था कि विज्ञान की मदद से बारिश पर नियंत्रण किया जाए. बेमौसम बारिश का इलाज होना चाहिए
लेकिन ऐसी बारिश हुई क्यों?
चूँकि हमने कुदरत की ऐसी तैसी कर रखी है
मुझे लगता है विज्ञान की मदद से हम जो जनसंख्या बढ़ा लेते हैं, प्रकृति अपने प्रकोप से घटा देती हैं
ये बाढ़, बेमौसम बरसात, भूकम्प सब उसी का नतीजा है ...
हर जगह हमने अपनी जनसंख्या का दबाव बना रखा है
कुदरत बैलेंस नहीं करेगी?
विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल प्रकृति चक्र को और खराब कर सकता है
यह देखना बहुत ज़रूरी है
सो पहले विज्ञान का उपयोग यह जानने को करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है
क्या वजह हमारा प्रकृति का अनाप शनाप दोहन तो नहीं? मेरे ख्याल से है. विज्ञान के उत्थान के साथ साथ मानव प्रकृति को बड़ी तेज़ी से चूस रहा है
बजाए विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल के, मानव की संख्या और गुणवत्ता पर कण्ट्रोल ज़रूरी है, अन्यथा यह सब तो चलता ही रहेगा, एक जगह से रोकेंगे, दूसरी जगह से प्रकृति फूटेगी......जैसे बहुत तेज़ पानी के बहाव को एक छेद से रोको तो दूसरी जगह से फूट निकलता है
हमें विज्ञान से यह जानने में मदद लेनी चाहिए कि किस इलाके में कितने मानव बिना कुदरत पर बोझ बने रह सकते हैं, किस इलाके में कितने वाहन से ज़्यादा नहीं होने चाहिए, किस जगह कितनी फैक्ट्री से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, किस पहाड़ पर कितने लोगों से ज़्यादा यात्री नहीं जाने चाहिए. जब हम इस तरह से जीने लगें तो निश्चित ही कुदरत के चक्र अपनी जगह आ जायेंगे
अभी हम कहाँ सुनते हैं कुदरत की या विज्ञान की?......सो भुगत रहें हैं
ये सब चलता रहेगा, किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं
जैसे बचपन में खेलते ......बैठते थे गोल चक्कर बना, पीछे से दौड़ते दौड़ते लड़का मुक्का मरता था, "कोकला छपाकी जुम्मे रात आई है, जेहड़ा मुड़ के पिच्छे देखे उसदी शामत आई है"
किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं
आज किसान की फसल बारिश से मर रही है, कल कश्मीरी बाढ़ से मर रहा था, परसों केदारनाथ के पहाड़ खिसक गए थे......बचा लो, मुआवज़े दे दो, राहतें दे दो ..अच्छी बात है.....वाहवाही मिलेगी
लेकिन समस्या के असल हल तक कोई क्यों जाए? उस तरफ तो सिवा गाली के कुछ नहीं मिलने वाला....वोट या नोट तो दूर की बात
हल तो समाज के ढाँचे में आमूल चूल परिवर्तन हैं, और समाज को समझना चाहिए कि उसकी समस्याओं के निवारण के लिए कोई सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं.....ज़िम्मेदार समाज खुद है, समाज की सोच समझ है, सामाजिक व्यवस्था है.......
लेकिन यह सब समाज यूँ ही तो समझेगा नहीं....समझाने के लिए भी कोई संगठन चाहिए, जो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा, आपको दिख रहा हो तो ज़रूर बताएं
सप्रेम नमन
COPYRIGHT
किसान की ऐसी हालात इस बारिश की वजह से नहीं हुआ है, उसकी वजह यह है कि जनसंख्या के बढ़ने से ज़मीन टुकड़ों में बंटती चली गयी, और बंटते बंटते वो इतनी कम रह गयी कि अब वो किसी एक परिवार के पेट पालने लायक भी नहीं रही, आज अगर एक किसान परिवार के पास पहले जैसा बड़ा टुकड़ा हो ज़मीन का, तो उसकी कमाई से ही वो अपना वर्तमान और भविष्य सब संवार लेगा
खेती तो है ही कुदरत पर निर्भर, वो कभी भी खराब हो सकती है सो यदि किसान होगा पूरा-सूरा तो निश्चित ही कुदरत की मार उसकी कमर तोड़ देगी, लेकिन यदि वो मज़बूत होगा तो निश्चित ही इस तरह की बारिशें तो उस पर कभी कहर बन कर न टूट सकेंगी........
सो मेरे ख्याल से मुआवजा फ़ौरी हल तो हो सकता है लेकिन इससे कोई मुद्दा हल नहीं होगा .....आज आप बचा लो किसान, कल वो और बच्चे पैदा करेगा, फिर उनकी दिक्कतें बढ़ती जायेंगी.......आप कब तक मुआवजें देते रहेंगे और मुआवज़े कोई आसमान से तो गिरते नहीं.....वो भी समाज का पैसा है.......समाज का एक हिस्सा दूसरे हिस्से को कब तक पाले, क्यों पाले?
सो हल तो निश्चित ही कुछ और हैं
कहीं पढ़ा था कि विज्ञान की मदद से बारिश पर नियंत्रण किया जाए. बेमौसम बारिश का इलाज होना चाहिए
लेकिन ऐसी बारिश हुई क्यों?
चूँकि हमने कुदरत की ऐसी तैसी कर रखी है
मुझे लगता है विज्ञान की मदद से हम जो जनसंख्या बढ़ा लेते हैं, प्रकृति अपने प्रकोप से घटा देती हैं
ये बाढ़, बेमौसम बरसात, भूकम्प सब उसी का नतीजा है ...
हर जगह हमने अपनी जनसंख्या का दबाव बना रखा है
कुदरत बैलेंस नहीं करेगी?
विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल प्रकृति चक्र को और खराब कर सकता है
यह देखना बहुत ज़रूरी है
सो पहले विज्ञान का उपयोग यह जानने को करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है
क्या वजह हमारा प्रकृति का अनाप शनाप दोहन तो नहीं? मेरे ख्याल से है. विज्ञान के उत्थान के साथ साथ मानव प्रकृति को बड़ी तेज़ी से चूस रहा है
बजाए विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल के, मानव की संख्या और गुणवत्ता पर कण्ट्रोल ज़रूरी है, अन्यथा यह सब तो चलता ही रहेगा, एक जगह से रोकेंगे, दूसरी जगह से प्रकृति फूटेगी......जैसे बहुत तेज़ पानी के बहाव को एक छेद से रोको तो दूसरी जगह से फूट निकलता है
हमें विज्ञान से यह जानने में मदद लेनी चाहिए कि किस इलाके में कितने मानव बिना कुदरत पर बोझ बने रह सकते हैं, किस इलाके में कितने वाहन से ज़्यादा नहीं होने चाहिए, किस जगह कितनी फैक्ट्री से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, किस पहाड़ पर कितने लोगों से ज़्यादा यात्री नहीं जाने चाहिए. जब हम इस तरह से जीने लगें तो निश्चित ही कुदरत के चक्र अपनी जगह आ जायेंगे
अभी हम कहाँ सुनते हैं कुदरत की या विज्ञान की?......सो भुगत रहें हैं
ये सब चलता रहेगा, किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं
जैसे बचपन में खेलते ......बैठते थे गोल चक्कर बना, पीछे से दौड़ते दौड़ते लड़का मुक्का मरता था, "कोकला छपाकी जुम्मे रात आई है, जेहड़ा मुड़ के पिच्छे देखे उसदी शामत आई है"
किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं
आज किसान की फसल बारिश से मर रही है, कल कश्मीरी बाढ़ से मर रहा था, परसों केदारनाथ के पहाड़ खिसक गए थे......बचा लो, मुआवज़े दे दो, राहतें दे दो ..अच्छी बात है.....वाहवाही मिलेगी
लेकिन समस्या के असल हल तक कोई क्यों जाए? उस तरफ तो सिवा गाली के कुछ नहीं मिलने वाला....वोट या नोट तो दूर की बात
हल तो समाज के ढाँचे में आमूल चूल परिवर्तन हैं, और समाज को समझना चाहिए कि उसकी समस्याओं के निवारण के लिए कोई सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं.....ज़िम्मेदार समाज खुद है, समाज की सोच समझ है, सामाजिक व्यवस्था है.......
लेकिन यह सब समाज यूँ ही तो समझेगा नहीं....समझाने के लिए भी कोई संगठन चाहिए, जो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा, आपको दिख रहा हो तो ज़रूर बताएं
सप्रेम नमन
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