अनाथालय टाइप स्कूल

कुछ मित्र अनाथालय टाइप स्कूल चला रहे हैं, ऐसे बच्चों के लिए जिनके माँ बाप हैं भी लेकिन बेहद गरीब हैं.......... बहुत मित्रगण वाह-वाह  भी करते हैं......चलिए मेरे साथ थोड़ा विचार विमर्श कर लीजिये इस विषय पर 

समाज ने ठेका ले रखा है गरीबों के बच्चे पालने का.....एक तरह से तो नहीं....जब हर बन्दा अपनी फॅमिली के लिए उत्तरदायी है तो फिर हम किसी और के लिए कैसे ज़िम्मेदार हैं......दूसरी तरह से है, समाज के इस हिस्से को यह समझाना ज़रूरी है कि देखो तुम्हारे बच्चों के लिए सिर्फ तुम ही ज़िम्मेदार हो.....तो क्यों बच्चे पैदा करते हो.. जिनकी जिंदगियां सिर्फ ज़लील होनी हैं...........एक निश्चित रकम जो परिवार नहीं कमाता उनके बच्चे हर हाल में समाज पर बोझ बनेंगे और यदि आप सच में इस समाज का कुछ भला करना चाहते हैं तो आपको सामाजिक व्यवस्था बदलनी होगी अन्यथा लाख खोलते रहें इस तरह के स्कूल कुछ नही होगा....

दिल्ली में ट्रैफिक बहुत था....सुधार के लिए पुल बनाये गये.....मेट्रो दी गयी...तो क्या ट्रैफिक कम हो गया..नहीं हुआ....सुविधा देख और लोग आ गये........उम्मीद है मेरी बात समझ में आयेगी.

इस तरह के जितने भी और प्रयास..... या फिर कहें सत्यार्थी जी जैसे प्रयास...यह सब ऊपर से बहुत ही उम्मीद देते लगते हैं.......ठीक है करें इस तरह के प्रयास......लेकिन .....कोई बहुत फ़ायदा नहीं होने वाला.....जिन बच्चों को मदद मिल जायेगी उनको फ़ायदा होगा भी लेकिन गहरे में समाज को बहुत कुछ फ़ायदा नही मिलेगा इस तरह से............असली रूट है समाज के ताने बाने में झांकना और इलाज ढूंढना..........
यह जो काम हैं न सत्यार्थी जी के जैसे .....ये पत्ते काटने जैसे हैं......जितना काटेंगे उससे ज्यादा नए पत्ते आ जायेंगे......समस्या जड़ से न जायेगी....

जोर किस पर होना चाहिए........पैच वर्क पर क्या? 

सड़कों पर भीख मांगते छोटे बच्चे देख ज़रा सा भी दिलो-दिमाग रखने वाला इंसान एक बार तो परेशान होगा 

मुद्दा सिर्फ इतना ही है कि आप कीजिये पैच वर्क , लेकिन पैच-वर्क को ही असली इलाज न समझ जाएँ.......

ये सत्यार्थी जी को नोबेल मिलना,........यह सब आज तक हुआ यही है कि पैच-वर्क glamorize हो गया, असल इलाज का तो ज़िक्र भी बहुत कम होता है...

मेरा ख्याल से बस इंसान की सोच बदलने जितनी देर है.... आज मीडिया का ज़माना है और यदि मीडिया का प्रयोग कर burger/ पिज़्ज़ा/ कोला जैसा कूड़ा करकट लोगों के गले से उतारा जा सकता है तो सामाजिक विचार भी दिमाग में बिठाए जा सकते हैं.

मेरा मानना बस इतना ही है कि कर लीजिये इस तरह के प्रयास, साथ में ध्यान रखें कि इन प्रयासों से असल समस्या का हल नहीं होगा.....तो बेहतर हो पूर्ण इलाज की तरफ कदम बढायें 

मैं उदयन जैसे प्रयासों को सेकेंडरी मानता हूँ .. ...लेकिन प्राइमरी नहीं है यह सब

कुछ बच्चों की, कुछ लोगों की मदद हो सकती है इस तरह से, लेकिन यह कोई तरीका नहीं है.....

दूसरे ढंग से समझें, इस तरह के प्रयास अतार्किक आधार पर खड़े हैं.......करे कोई , भरे कोई......... वो भी तब जब कि इस तरह से समस्या का कोई निदान नहीं होने वाला..........

मान लीजिये कि हम ऐसे प्रयास नहीं भी करते लेकिन जैसा मैं कह रहा हूँ, कुछ उस तरह के प्रयास करते हैं, प्रयोग करते हैं तो निश्चित ही समस्या हल हो सकती है, वैसे यह ज़रूरी नहीं कि जो मैंने सुझाव दिए उसी तरह से हुबहू सामाजिक रद्दो -बदल हों, मेरे सुझाव मात्र एक इशारा हैं, एक दिशा हैं कि इस तरह से सोचा जाना चाहिए, प्रयोग किये जाने चाहियें.....

Comments

Popular posts from this blog

Osho on Islam

RAMAYAN ~A CRITICAL EYEVIEW