Sunday 26 January 2020

दिल्ली वालो मत दो वोट केजरीवाल को

मैसेज है मेरा दिल्ली वालों को.  मत दो वोट केजरीवाल  को. 

निश्चित ही सवाल पूछेंगे आप कि  क्यों नहीं देना चाहिए वोट केजरीवाल को उसने बहुत कुछ सस्ता किया और बहुत फ्री किया.  फिर क्यों कह रहा हूँ मैं कि उसे वोट नहीं देना चाहिए?

जवाब लीजिये. 

पहला पॉइंट  है. केजरीवाल  इस्लामिक थ्रेट, जिसे लगभग सारी  गैर-इस्लामिक दुनिया समझ रही है, महसूस कर रही है, उसे नहीं समझता. उसे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम कि बात करना फ़िज़ूल है. गलत है वो. सौ प्रतिशत गलत है. मूर्ख है वो.

मुस्लिम नारे लगाते फिरते हैं.
"तेरा मेरा रिश्ता क्या? ला-इलाहा-लिलल्लाह".
"रोहिंग्या से रिश्ता क्या? ला-इलाहा-लिलल्लाह"


कलमा जानते हैं क्या है?
"ला-इलाहा-लिलल्लाह. मोहम्मदुर्रसूल अल्लाह."

भगवान सिर्फ एक है और वो है अल्लाह. और Muhammad is the messenger of Allah.  बात खतम. और क़ुरान है वो मैसेज जो अल्लाह ने भेजा. जो माने वो ईमानदार. जो न माने बे-ईमान. काफिर.

क़ुरआन पढ़िए सब समझ आ जायेगा. गूगल पर है. अंग्रेजी तरजुमे के साथ. भरी पड़ी  हैं आयतें गैर-मुस्लिम के खिलाफ.  और उन आयतों का नतीजा पूरी  दुनिया भुगत  रही है.  अगर ऐसा नहीं होता तो खालसा का सृजन ही नहीं होता? अगर ऐसा न होता तो चीन में इस्लाम पर अनेकों पाबंदियां न होती. अगर ऐसा न होता तो सन   सैतालीस में मुल्क न बंटता. लाखों लोग न मारे जाते. कश्मीर से हिन्दू न भगाये जाते. 

लेकिन  केजरीवाल कहता है कि  हिन्दू-मुस्लिम कुछ  नहीं होता. धर्म की राजनीति नहीं करनी चाहिए. ठीक बात है. धर्म की राजनीति बिलकुल नहीं करनी चाहिए. फिर क्यों तीर्थ-यात्रा करवा रहे हो भाई? क्यों मुफ्त तीर्थ यात्रा करवा रहे हो?


दिल्ली वालो, आज सस्ते बिजली पानी पर अगर वोट देते हो तो याद रखो कि  महाराणा  प्रताप जंगल जंगल भटके लेकिन लड़ते रहे. घास की रोटी खाते रहे लेकिन लड़ते रहे. गुरु गोबिंद ने, उनके सारे परिवार ने  और अनेक सिंहों ने शहीदियाँ दी, किसलिए? कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थी. न. बस आइडियोलॉजी की लड़ाई थी.  

तुम्हें क्या लगता है कि मुस्लिम नहीं समझता आइडियोलॉजी की लड़ाई? आप जितनी मर्ज़ी सुविधा दे दो, सहूलियत बढ़ा दो, वो फिर भी गैर-मुस्लिम सरकार से अंदर-अंदर लड़ता रहेगा. उसे अल्लाह का निज़ाम स्थापित करना होता है. 

आइडियोलॉजी की लड़ाई में भाजपा का साथ दो दिल्ली वालो. भाजपा हिंदुत्व की बात करती है. हिंदुत्व अपने आप में कोई धर्म नहीं है. इसमें  कुछ भी लगा-बंधा नहीं है. आप आस्तिक-नास्तिक, कुछ भी हो सकते हैं. आप राम कृष्ण की आलोचना कर सकते हैं. आज भी राम ने सीता छोड़ी जंगल में तो लोग सवाल उठाते हैं. यहाँ कोई ईश-निंदा blasphemy जैसा कानून नहीं है कि  आपने राम-कृष्ण के खिलाफ कुछ लिख दिया कह दिया तो फांसी चढ़ा दिए जाओगे. यहाँ सोच पर पहरे नहीं बिठाये गए. यहाँ बहुत सी विरोधी विचार-धारा  वाले लोग रहते हैं. और ऐसे ही समाज में सोच-विचार पैदा हो सकता है. जहाँ आपकी सोच को एक किताब के दायरे में बांध  दिया जाए वहां आप सिर्फ गुलाम हो  जाएंगे.   

कौन सी आइडियोलॉजी को चुनना है आपने? यदि आपको ऐसी सोच वाला  समाज चाहिए जहाँ वैचारिक गुलामी हो तो आप वोट दीजिये केजरीवाल को, हिन्दू मुस्लिम को कोई मुद्दा ही न समझने वालों को अन्यथा आपके पास भाजपा का विकल्प है. उसे वोट कीजिये.    

 दूसरा  पॉइंट  ...  चीज़ें सस्ती होनी चाहिए.... मुफ्त भी होनी चाहिए लेकिन उसका यह तरीका नहीं है. इंसान का क्या है. उसे सब कुछ चाहिए. सबको सब कुछ चाहिए. मुफ्त चाहिए. और यह काफी कुछ संभव है. लेकिन वो तभी संभव है जब इंसान  वैज्ञानिकों से, समाज-वैज्ञानिकों (सोशल साइंटिस्ट) से अपनी समाजिक और व्यक्तिगत मान्यताएं लें न कि किन्ही आसमानी कही जाने वाली किताबों से. इस धरती पर इंसान का वज़न, उसी मूर्खताओं का वज़न पूरे प्लेनेट को खतरे में डाले हुए हैं, अब प्लेनेट तभी बच सकता है यदि इंसान विज्ञान  के मुताबिक जीने को राज़ी हो, समाज विज्ञान के मुताबिक जीने को राज़ी हो. और  जो इंसान विज्ञान के साथ नहीं चलना चाहता, जो इंसान अपनी तथा-कथित धार्मिक-मज़हबी किताबों से, इलाही किताबों से टस से मस  नहीं होना चाहता, उसको कुछ मुफ्त नहीं मिलना चाहिए. कुछ सस्ता नहीं मिलना चाहिए. यह कोई तरीका नहीं कि मूर्ख भीड़ पैदा किये जाओ. सब कुछ मुफ्त पाओ और अँधा-धुंध इस धरती को निचोड़ दो. न यह कोई तरीका नहीं  है. 

केजरीवाल उथला व्यक्ति है. यह "मुफ्त मुफ्त स्कीमें " गहरी समस्याओं के उथले हल हैं.   

जैसे उसकी ओड-इवन स्कीम. दिल्ली में पॉलुशन  है तो वो ओड इवन से थोड़ा न हल होगा?  कुत्ते ज़्यादा होते हैं तो क्या करते हो? नसबंदी. इंसान ज़्यादा न हों तो क्या करते हो? नसबंदी. कार-स्कूटर-ट्रक  ज़्यादा हों तो क्या करना चाहिए. गाड़ी बंदी. नयी मोटर व्हीकल पर पाबंदी. यह होते हैं हल. अगर है हिम्मत तो टकराओ  समस्या से सीधा.   यह उथले हल मत दो. 

तीसरा  पॉइंट   ... साढ़े चार साल केजरीवाल कहता रहा कि  भाजपा उसे काम नहीं करने दे रही और आखिरी छह महीने में, जब चुनाव करीब आ गए तो भाजपा ने उसे काम करने दिया? किसलिए? ताकि वोट केजरीवाल की तरफ खिसक जाए. इतनी मूर्ख है न भाजपा? वैरी गुड. किसे मूर्ख समझता है केजरीवाल? सब बकवास था. केजरीवाल खुद निकम्मा था. न-तज़ुर्बेकार था. अन्यथा जो नियामतें-रिआयतें वो चुनाव के ठीक पहले दे रहा था, वो पांच साल पहले से देना शुरू कर सकता था. मूर्ख बना रहा है जनता को, अब जनता को चाहिए  उसे मूर्ख बनाये. रिआयतें जो दीं, ले भी लीं तो भी वोट भाजपा को दे. केजरीवाल तो खुद कहता था कि  जो भी तुम्हार वोट खरीदने आये उससे पैसे ले लो, मन मत करो  लेकिन वोट उसे मत दो. अब केजरीवाल तुम्हारा वोट खरीदने आया है. तुम्हें मुफ्त की चीज़ें देकर  तुम्हारा वोट खरीदने आया है, उसे वोट मत देना. वो तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी समाजिक मान्यतों की लड़ाई लड़ने नहीं आया,  उसे वोट मत देना. 

चौथा  पॉइंट ...  जिनको  केजरीवाल बहुत पढ़ा-लिख, बहुत समझदार लगता है, बता दूँ वो जब नया-नया आया  था  तो मुद्दा एक ही था लोकपाल. लोकपाल. बड़ी धीर-गंभीर शक्ल बना कर लोकपाल को प्रायोजित करते थे श्रीमान. सुना आपने दुबारा लोकपाल उसके मुंह से? हो गया करप्शन खत्म दिल्ली में? असल बात यह है कि समाज में न तो भ्र्ष्टाचार  कोई एक मात्र  मुद्दा है और न ही लोकपाल कोई एक रामबाण समाधान. वो बात ही उथली थी. उथला आदमी. उथली बात.  

पांचवा पॉइंट   ... जब वो आया  था तो उसके साथ बहुत गण्य-मान्य लोग थे. अन्ना  हज़ारे. किरण बेदी. कुमार बिस्वास. प्रशांत भूषण. योगेन्द्र यादव. कहाँ गए वो लोग? शुरू में ये सब लोग साथ थे केजरीवाल के. क्यों अलग-थलग हो गए ये लोग? चूँकि यह श्रीमान उनको साथ लेकर चल ही नहीं पाए. कोई एक-आध बंदा गया होता तो मैं इस मुद्दे को तूल नहीं देता, लेकिन इतने सारे  लोग छोड़-छोड़, प्रमुख लोग साथ छोड़ जाएं तो  ज़रूर कोई मसला है. और मसला यह है कि केजरीवाल को लोगों को अपने साथ लेकर चलना ही नहीं आता. जो चंद लोगों को अपने साथ नहीं लेकर चल पाया, वो इस भारत को, जहाँ रंग-बिरंगे लोग हैं, एक दम  भिन्न-भिन्न मान्यताओं के लोग हैं, विपरीत मान्यताओं  के लोग हैं,  साथ लेकर चल पायेगा? कदापि नहीं. उसे वोट मत देना. 

और आखिरी में बता दूँ तुषार कॉस्मिक नाम है मेरा. गूगल करेंगे मिल जाएगा. मैं कोई भाजपा का बंदा नहीं और न ही मोदी भक्त हूँ और न आरएसएस का स्वयं सेवक. मैं  स्वतंत्र हूँ. आलोचक हूँ. मैं तो इस लोकतंत्र से भी आगे के तंत्र की रूप-रेखा दे चूका हूँ. मेरे ब्लॉग है. पढ़ सकते हैं. लेकिन फिलहाल जैसी व्यवस्था है उसके मुताबिक भाजपा को वोट देने के लिए कह रहा हूँ और  कल अगर ये काम नहीं करेंगे, अपेक्षा के अनुसार काम नहीं करेंगे या कोई मूर्खता करेंगे तो इनके भी खिलाफ बोलूँगा, पुरज़ोर बोलूँगा. 

सो यह  मुफ्त  का लालच छोड़ों, वैसे भी मुफ्त कुछ नहीं होता. किसी न किसी को कीमत अदा करनी ही पड़ती है. 


तो अपील है मेरी, पुरजोर अपील है,  वोट दो, भाजपा को वोट दो. 

नमस्कार.  

Saturday 18 January 2020

Islam is not a religion

John Bennett, a Republican state legislator in Oklahoma, said in 2014, “Islam is not even a religion; it is a political system that uses a deity to advance its agenda of global conquest.”

In 2015, a former assistant United States attorney, Andrew C. McCarthy, 
wrote in National Review that Islam “should be understood as conveying a belief system that is not merely, or even primarily, religious.”

In 2016, Michael Flynn, who the next year was briefly President Trump’s national security adviser, 
told an ACT for America conference in Dallas that “Islam is a political ideology” that “hides behind the notion of it being a religion.”

In a January 2018 news release, Neal Tapio of South Dakota, a Republican state senator who was planning to run for the United States House of Representatives, 
questioned whether the First Amendment applies to Muslims.


https://www.nytimes.com/2018/09/26/opinion/islamophobia-muslim-religion-politics.html

Saturday 4 January 2020

बहुत ज़्यादा आरामपसंदगी हरामपसंदगी है.

आप सोचते हैं कि जो कष्ट आपने सहे हैं वो आपके बच्चे न सहें. बिलकुल ठीक बात है. लेकिन इस चक्कर में आपके बच्चे पिलपिले हो जाते हैं-थुलथुले  हैं.

बहुत ज़्यादा आरामपसंदगी हरामपसंदगी है.

आपके बच्चे हों , आपका शरीर हो, इन्हें ज़्यादा पुचकारें न. इन्हें  थोड़ा सख्त मिज़ाज़ से पालें.

मैं प्रॉपर्टी डीलिंग करता हूँ, देखता हूँ लोग ऊपर के फ्लोर खरीद के राज़ी नहीं. लिफ्ट चाहिए सब को. न. लिफ्ट हो तो भी सीढ़ी चढ़ें. सीढ़ी उतरें. Gym में आपको स्टेप ऊपर चढ़ने और नीचे उतरने को बोला जाता है. क्यों? चूँकि आप सीढ़ी  चढ़ना ही नहीं चाहते असल जीवन में.

पैदल चलें, जहाँ तक हो सके. वहां Gym में वो आपको ट्रेडमिल पर चलवाते हैं. वो इसलिए चूँकि आप असल जीवन में पैदल चलना नहीं चाहते. आप एस्क्लेटर पर खड़े होकर राज़ी है. बस आप खड़े रहें. एस्क्लेटर चलता रहे. ट्रेडमिल ठीक उससे उल्टा है. ट्रेडमिल खड़ा रहता है और आपको चलना होता है उसके ऊपर.

 सख्त मिजाज़ बनिए.

 अपने प्रति अपने बच्चों के प्रति

आराम हराम है

भारतीय रसोई दवाखाना है

एक  सम्मोहन है जो हमारे दिमागों में TV के ज़रिये बिठाया गया है. टीवी की Advertisement कोई मशहूरी मात्र नहीं है. सम्मोहन है. इसीलिए वो बार-बार बार-बार दिखाते हैं. उन्होंने बताया की पिज़्ज़ा बर्गर कोई अमृतनुमा चीज़ है. मैक्डोनाल्ड और पिज़्ज़ा-हट नहीं गए, डोमिनो का पिज़्ज़ा नहीं खाया तो जीवन अधूरा है. निरा मैदा है. आपको पता है मक्डोनल्ड को कितनी ही बार जुर्माना लगता है. खाने में गड़बड़ की वजह से.

भारतीय खाना खाएं. हमारी रसोई दवाख़ाना है. हमारे मसाले सब दवा हैं. हल्दी, अजवाइन, काला  नमक, सेंधा नमक, काली मिर्च, दाल चीनी...सब दवा हैं. वो वहां वेस्ट में इनको दवा के नाम से पेटेंट करवा रहे हैं. TV के सम्मोहन से बाहर आएं.

बुड्ढा होगा तेरा बाप

Introduction & Benefit:--

"इंक़ेलाब ज़िंदाबाद" 


3 idiots फिल्म किस किस ने देखी  है? उसमें आमिर खान था, याद है? क्या नाम था उसका उस फिल्म में?

"रेंचो". 


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इंक़ेलाब का मतलब क्या है? क्रांति. मतलब बदलाव. मतलब उथल-पुथल. लेकिन पॉजिटिव. कुछ बेहतरी के लिए. तो मेरी रिक्वेस्ट है आप सब से की अगले पंद्रह मिनट आप पूरी तरह से अटेंटिव हो कर मेरी बात सुनें. आधे-अधूरे मन से नहीं, पूरे मन से सुनें. अपने फोन बंद करके सुनें. बिना पड़ोसी से बात किये सुनें. बिना यह सोचें सुनें कि  मैं कौन हूँ? बस इस बात पर ध्यान दें कि मैं क्या कह रहा हूँ. 


क्या पॉजिटिव इंक़ेलाब हो सकता है मेरी बात पंद्रह मिनट भर सुनने से, एक ऐसे ज़माने में जब आप सब के पास दुनिया भर की इनफार्मेशन मुट्ठी में है?

इंक़ेलाब यह हो सकता है कि आपकी उम्र कोई दस-बीस-तीस साल बढ़ जाए. इंक़ेलाब यह हो सकता है कि  आपकी हेल्थ में इज़ाफ़ा हो जाए, रोग से लड़ने की ताकत बढ़ जाए. 

तो शुरू करता हूँ    

Stories:--

१. यह फोटो देखिये.

ये कौन हैं जानते हैं? जॉर्ज बर्नार्ड शॉ.अंग्रेज़ी के साहित्यकार थे. जाने -माने. स्कूलों में इनके लेख पढ़ाये जाते हैं. ये लंदन रहते थे. जब ये कोई साठ साल की उम्र के आस-पास पहुंचे तो इन्होने अपना बोरिया-बिस्तर लंदन से समेट  लिया. बोले अब नहीं रहना यहाँ. दोस्त-रिश्तेदार सब परेशान. क्यों नहीं रहना लंदन में? बोले नहीं, अब कतई नहीं रहना और सच में लंदन छोड़ दिया. और निकल पड़े नया ठिकाना खोजने  .... भटकते रहे गाँव-गाँव शहर-शहर. फिर एक कब्रिस्तान से गुज़र रहे थे तो एक कब्र पर लिखी इबारत पढ़ ठिठक गए. लिखा था, "यहाँ वो शख़्स  दफन  है जो सौ साल की कम उम्र में मर गया." बस. अब उन्होंने आगे कहीं न जाने की ठान ली और उसी गाँव में रहना स्वीकार  किया, जिस गाँव का वो कब्रिस्तान था. उनसे पूछा गया कि पूरी दुनिया छोड़, लन्दन छोड़ आप ने यहाँ क्यों ठिकाना बनाया? "

उनका जवाब था, "अगर मैं लन्दन रहता तो मैं जल्द ही बीमार पड़ जाता-मर जाता.. चूँकि मेरे इर्द-गिर्द मेरी उम्र के लोग लोग बीमार रहने लगे थे... मरते जा रहे  थे. दिन में दस बार मुझे यह याद दिलाया जाता था कि  मैं बूढ़ा  हो चुका हूँ, कमज़ोर हो चुका  हूँ. मुझे यह नहीं करना चाहिए, मुझे वह नहीं करना चाहिए. ऐसे माहौल में मैं कितने दिन स्वस्थ रहता? कितने दिन और ज़िंदा रहता? यहाँ देखो. यहाँ तो सौ साल के आदमी को भी कम उम्र समझा जाता है. यहाँ तो हर कोई मुझे जवान समझता है. मेरी उम्र के लोग नाचते फिरते हैं यहाँ."

और वो वहीं रहे और तकरीबन सौ साल जीए. स्वस्थ जीए. 

२. दूसरी फोटो देखिये. 

जानते हैं ये कौन हैं? नहीं? ये फौजा सिंह हैं. सिख हैं, इंग्लैंड में रहते हैं,  अपनी उम्र के ग्रुप में मैराथन चैंपियन रहे हैं, आज भी खूब दौड़ते हैं,  Adidas की मॉडलिंग करते देखा है मैंने इनको ..लोग प्यार से टरबंड टॉरनेडो ( पगड़ी वाला तूफान ) कहते हैं.....

पांच साल की उम्र तक चल नहीं पाए..टाँगे बहुत कमज़ोर थी....बच्चे छेड़ते थे.....छेड़ थी "डंडा" .  और ये कोई बचपन से ही नहीं दौड़ते थे. कोई पचास की उम्र के बाद ही इन्होने दौड़ना शुरू किया था. 

३. तीसरी फोटो देखिये ........ इनको आप ज़रूर जानते होंगे. 

ये  MDH  के महाशय जी  हैं. इंटरनेट पर अक्सर लोग उनके बुढ़ापे का मज़ाक उड़ाते हैं. कहते हैं कि  वो तो यमराज से अमर होने का वरदान लेकर आये हैं. 

मज़ाक उड़ाना चाहिए क्या? प्रेरणा लेनी चाहिए. 

Deductions from the Stories:---- 

क्या साबित करना चाहता हूँ मैं? मैं साबित यह करना चाहता हूँ  फौजा सिंह की कहानी से, जॉर्ज की कहानी से, महाशय जी की कहानी से कि हमारा स्वास्थय, हमारी उम्र  हमारी सोच पर निर्भर करती है.हमारी मौत कब होगी यह तक हमारी सोच पर निर्भर करता है और हमारी सोच सामाजिक सम्मोहन पर निर्भर करती है.  समाज तय कर देता है. आपकी उम्र के साथ आपका  बुढ़ापा. बुढ़ापे के साथ रोग. उसके बाद एक निश्चित उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मौत. 

हम अंग्रेजी बोलने में फख्र महसूस करते हैं. करना चाहिए. कोई बुराई नहीं लेकिन उनकी हर बुराई हमने नहीं खरीदनी. अंग्रेजी में  छह साल के बच्चे को भी कहते हैं, He is six years old. ध्यान दीजिये छह साल का बूढ़ा  ....  मतलब छह साल का बच्चा नहीं.....  छह साल का जवान नहीं   ........  छह साल का बूढा. मतलब सोच ही यह है कि  इंसान पैदा होते ही बूढ़ा  होना शुरू हो जाता है. भाड़ में गया बचपना. भाड़ में गयी जवानी. भाड़ में गयी मिडिल ऐज.... सीधा बुढ़ापा. पैदा  डायरेक्ट फ्लाइट बुढ़ापे में लैंड करती है. ऐसी सोच में जीएंगे तो कैसे यौवन आएगा, कैसे स्वस्थ  रहेंगे ?

तो आप क्या करें. जॉर्ज की तरह शहर छोड़ दें? वो प्रैक्टिकल नहीं है. सबके लिए सम्भव नहीं है. और सब ऐसे गाँव पहुँच गए तो उस गाँव को भी अपने जैसा बना देंगे. फिर हो सकता है उस गाँव के लोग इनके सामूहिक सम्मोहन के तले दब जायें.

तो क्या करें? 

Conclusion:-   आप बस यह जो मैंने कहा इसे जज़्ब कर लें. दिन रात. मेरी बात को दोहराते चले जाएँ. खुद को याद दिलाते चले जाएँ कि नहीं बीमार होना है, नहीं बूढ़े होना है, नहीं मरना है. आपको क्या लगता है कि फौजा सिंह ने, महाशय जी ने  यह सब बकवास नहीं सुनी होगे कि उम्र के साथ व्यक्ति यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता.कमज़ोर होता जाता है, मौत के करीब आ जाता है......सब सुना होगा, लेकिन इनकार कर दिया

आप ढीठ हो जाएँ कि नहीं मरना आप लम्बा जी जाएंगे. आप ढीठ हो जाएँ कि नहीं बीमार होना है  आपके स्वस्थ रहने  की संभावना बढ़ जायेगी.  इसे कहते हैं माइंड  ओवर मैटर.   मन की ताकत. मन का पीछा करता है तन. मन मज़बूत तो तन मज़बूत हो ही जाएगा. 

कोई भी उम्र हो आपकी, खिले-खिले चटक रंग पहनें. खेलें-कूदें.. पार्क  में झूला झूलें....स्टापू खेलें ....गिल्ली डंडा खेलें  .... खुद को कभी इस  विश्वास में मत डालें कि आप बूढ़े हो गए हैं. जिस  दिन आपने सामाजिक सम्मोहन ओढ़ लिया कि  अब आप बूढ़े हो चुके हैं. उस दिन गई भैंस पानी में. उस दिन आप बूढ़े हो गए. आपका  हमारा जीना-मरना सब सामाजिक सम्मोहन का नतीजा है. इस  सम्मोहन को तोड़ दें.  

इस advertisement, इस सम्मोहन, सामाजिक सम्मोहन के फेर में न आएं कि  इंसान कितनी उम्र में बूढ़ा  होता है, कितनी उम्र में  बीमार रहने लगता है. On average कितनी उम्र में मरता है. आप ने बहुत पुरानी  वह मशहूरी शायद  देखी हो, "साठ साल के बुड्ढे या साठ साल के जवान".  तो यह किसी झंडू च्यवनप्राश के सेवन पर बहुत कम निर्भर करता है आपकी सोच पर बहुत ज़्यादा निर्भर करता है तो सोच बदलिए, आपका Life Span  बदल जाएगा. आपका स्वास्थ्य  बदल जाएगा  और अगर कोई आपको बूढ़ा कहे तो उसे कहें, "बुड्ढा  होगा तेरा बाप!" अमिताभ की फिल्म भी है. देख लीजिये. 


और मेरे साथ ज़ोर से एक नारा लगाएं, "बुड्ढा  होगा तेरा बाप." 
स्वस्थ रहें. मस्त रहें. 

नमस्कार. 

Friday 3 January 2020

"टांका"

यह वो धन है जो प्रॉपर्टी डीलर  तयशुदा ब्रोकरेज के अलावा डील में से निकाल लेता है. 
कैसे संभव है यह?

खरीद-दार कभी नहीं चाहता कि  ऐसा हो, फिर भी यह होता है, अक्सर होता है और  अक्सर डील के अंत तक उसे पता लग ही जाता है कि डीलर ने उसकी डील में टांका मारा है. 

यह न हो इसके लिए Seller और Purchaser दोनों को प्रयास करना चाहिए. 

पहली हिदायत:-  यह Purchaser के लिए है. Purchaser को सीधा कहना चाहिए ब्रोकर को, "भाई आपको hire कर रहा हूँ लेकिन आपकी ईमानदारी  जांचने के लिए डील के दौरन मैं आपको किसी भी वक्त  पॉलीग्राफ (Lie Detector) टेस्ट करवाने के लिए बोल सकता हूँ और आपको लिख कर देना होगा कि आप यह टेस्ट करवाएंगे." 

यकीन जानें आपका डीलर बौखला जाएगा यह सुन कर. या तो डील छोड़ देगा या फिर नाक की सीध में चलेगा. 

दूसरी हिदायत:-  यह Seller के लिए है. यदि आप सेलर हैं तो कभी भी डीलर को यह न कहें, "हमें तो हमारी तयशुदा रकम दिलवा दीजिये, बाकी आप ऊपर से जितना मर्ज़ी ले लीजिये."  Seller ऐसा इसलिए कहता है कि  असल में ब्रोकरेज चाहे Seller  पक्ष की हो चाहे Purchaser पक्ष की, वो जाती Purchaser की जेब से ही है. कैसे? सिम्पल. ब्रोकरेज चाहे 10 प्रतिशत हो, Seller को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो ठीक उतना प्रतिशत प्रॉपर्टी का रेट बढ़ा लेता है. 

सो सेलर की तरफ से तो अक्सर सीधा-सीधा ऑफर होता है  कि डीलर चाहे तो डील में टांका लगा ले.  यह सरासर गलत है. कल जब आप  Purchaser होंगे तब यदि आपको पता लगेगा कि आपकी डील में डीलर ने टांका मारा है तो आपको बहुत बुरा लगेगा. सो स्वार्थी मत बनें. लकीर पर चलें. डीलर भी लकीर पर तभी चलेगा. 

तीसरी हिदायत:- यह Seller और Purchaser दोनों के लिए है. डीलर पढ़ा-लिखा hire करें, जिसे प्रॉपर्टी के काम का तज़ुर्बा हो, प्रॉपर्टी से जुड़े कायदे-कानून की जानकारी हो. किसी भी नाई, कसाई, हलवाई को अपना डीलर मत बना लें. लोग तो दूधिये तक के ज़रिये  प्रॉपर्टी का लेन-देन  कर लेते हैं. पीछे पछताते हैं. 

प्रॉपर्टी का खरीदना-बेचना बिस्कुट का पैकेट खरीदने-बेचने जैसा सीधा काम नहीं है. इसमें तमाम तरह की कानूनी और प्रैक्टिकल जानकारियां होना ज़रूरी है, जो किसी प्रोफेशनल डीलर को ही होती हैं. 

भारत में डीलर की शिक्षा और ट्रेनिंग का कोई सिस्टम नहीं है और न ही यहाँ कोई सिस्टम है कि डीलर कितनी ब्रोकरेज लेगा. सिर्फ हरियाणा में एक कानून है, "प्रॉपर्टी डीलर एक्ट", जो एक तरफा है. ऐसा लगता है प्रॉपर्टी डीलर से दुश्मनी निकाली गई  हो. या फिर RERA ACT  है. लेकिन हर कोई High-Rise बिल्डिंग्स में ही तो डील नहीं करता.   

जो ब्रोकरेज डीलर को दी जाती है, वो उसके काम, उसके ऊपर लादी गयी ज़िम्मेदारी की अपेक्षा बहुत ही कम होती है. ऊँट के मुंह में जीरा. करोड़ों रुपये की डील उसके कंधे पर होती हैं और उसे 1  से 1/2 प्रतिशत कमीशन ही दी जाती है. कई बार तो वो भी नहीं दी जाती. ज़रा-ज़रा सी बात पर उसकी कमीशन काट ली जाती है. कमीशन के लिए उसे लड़ना पड़  जाता है. कमज़ोर डीलर को तो लोग छुट-पुट कमीशन दे कर ही भगा देते हैं.  ऐसे में होशियार डीलर चोर रास्ता अख्तियार करते हैं, टांका लगाने का. लेकिन दिक्कत यह है कि  फिर होशियार डीलर सीधी-शरीफ पार्टी को भी टाँका लगाने से नहीं चूकते. असल में शरीफ खरीदार को ही सबसे ज़्यादा टाँका  लगाया जाता है. 

मैं इस सबके खिलाफ हूँ.  

टांका लगाने के सख्त खिलाफ हूँ. लेकिन मैं कम कमीशन देने वालों के भी खिलाफ हूँ. मुझसे किसी खरीद-दार ने तयशुदा कमीशन से कम पैसे लेने के लिए कहा. मैंने कहा, "ठीक है फिर, मैं आपको प्रॉपर्टी के कुछ कागज़ात भी कम ही दूंगा, बोलिये मंज़ूर है?"

पूरे पैसे दीजिये, पूरा काम लीजिये.

तुषार

Wednesday 1 January 2020

नववर्ष

क्या आप  सहमत होंगे मुझे से अगर मैं कहूँ कि  समय नाम की कोई चीज़ नहीं होती? दिन-वार, तिथि, वर्ष, माह....  कुछ नहीं होता.सिवा इंसान के किसी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे को नहीं पता कि आज कोई नववर्ष की शुरुआत है  चूँकि समय का विभाजन सिर्फ इंसान की कल्पना है.असल में समय ही इंसान की कल्पना है. कल्पना है बदलते मौसम को, दिन-दोपहर, रात को समझने के लिए. 

जब समय सिर्फ कल्पना है तो फिर कैसा नव-वर्ष? 
फिर नव वर्ष का सेलिब्रेशन? फिर शुभ कामनाएं? क्या मतलब इस सब का?

असल में तो जीवन ही अपने आप सेलिब्रेशन होना चाहिए. 
हल पल सेलिब्रेशन होना चाहिए. सेलिब्रेशन के लिए बहाने नहीं खोजने पड़ने चाहिएं.  

और

हम सब में विश्व-कल्याण का भाव सदैव होना चाहिए. 
हम सब सदैव एक दूजे के लिए शुभ-भाव से भरे होने चाहिए. शुभ-कामनाओं से भर-पूर होने चाहिए. 

लेकिन यह सब अभी दूर की कौड़ी है.दिल्ली अभी दूर है. बहुत दूर. 

सो फिलहाल हम काम चला रहे हैं नव-वर्ष की शुभ कामनाओं से. स्वीकार करें. 

नमन...तुषार कॉस्मिक.