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Tuesday 24 January 2017

"अम्मीजान कहतीं थीं, धंधा कोई छोटा नहीं होता"

शाहरुख़ खान फरमाते हैं, अपनी ताज़ा-तरीन फिल्म 'रईस' में, "अम्मीजान कहतीं थीं, धंधा कोई छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता." 

तो ठीक, स्मगलिंग हो चाहे गैंग-बाज़ी, धंधा कोई छोटा नहीं होता, खोटा नहीं होता. जाएँ और 'रईस' फिल्म देखें. फिल्म बनाना, एक्टिंग करना उसका धंधा है और धंधे से बड़ा कोई धर्म-ईमान होता नहीं, तो वो एक टैक्सी चलाने वाली गुमनाम औरत को भी अपनी फिल्म की प्रोमोशन में शामिल कर लेता है. लेकिन  उनसे  'तू'...'तू' करके बात करता है, जबकि वो उसे 'सर', 'सर' कह कर सम्बोधित कर रही हैं. इडियट! तमीज नहीं. अगर वाकई वो टैक्सी ड्राईवर न होकर कोई बड़ी तुख्म चीज़ होतीं तो फिर करके दिखाता....'तू...तू'. हू--तू---तू ...न करा देतीं तो. वो 'तू'  इसीलिए निकल रहा है मुंह से कि उन्हें  छोटी औरत समझ रहा है. उनके धंधे को छोटा समझ रहा है.

एक और प्रमोशनल वीडियो में श्रीमान शाहरुख़ बताते हैं कि रईस कौन है. उनके मुताबिक रईस कोई पैसे वाला नहीं है, वो सब रईस हैं, जो खुश हैं, जिंदा-दिल हैं, कुछ-कुछ ऐसा. ठीक है, मैं सहमत हूँ इस बात से, सो रईस फिल्म के लिए करोड़ों रूपये तो लिए नहीं होंगे शाहरुख़ ने और न ही फिल्म बनाने वाले कोई दो सौ-चार सौ करोड़ रुपये कमायेंगे इस फिल्म से. न. बिलकुल नहीं. ये  सब  फिल्म बनाने, दिखाने वाले दिल से रईस जो हैं, आम आदमी की तरह. सो फिल्म आप सब मुफ्त में देख सकते हैं. नहीं?  इडियट! श्याणे इडियट!!

एक डायलॉग है, इसी फिल्म का,"बनिए का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग." अब दिमाग को पता ही नहीं कि वो बनिए का है या किसका और न डेयरिंग को पता है कि वो मियां भाई की है या नहीं. और न धंधा यह देखता है कि उसके पीछे गुण, अवगुण किस धर्म, जात बिरादरी के हैं, लेकिन शाहरुख़ भाई लगे हैं उगलने कि बनिए का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग मिल जाएं तो धंधा ही धंधा. खैर जिस दिन इन्सान इस बनियागिरी और मियां-नवाज़ी से बाहर सोच पायेगा, तभी समझना कि इंसानियत का सूरज अंधेरों से बाहर आने लगा. 

जो बोलता है, वही राज़ उगलता है. 
लोग अपनी पोल ढकने में खोल जाते हैं. 
फिर से पढ़ें,"लोग अपनी पोल ढकने में ही खोल जाते हैं". 

अभी आज़म खान को देख रहा था, you-tube पर. इंटरव्यू करने वाला पूछ रहा है कि मोदी पर अगर आरोप है कि गुजरात दंगे में उसने मुसलमान मरवा दिए तो यह भी एक फैक्ट है कि उन दंगों के बाद गुजरात में कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ. बदले में आज़म खान कहते हैं कि दंगे होते कैसे? इतना डरा जो दिया मुसलमान को.

श्याना! खुद ही स्वीकार कर गया कि मुसलमान ही वजह हैं दंगों की. 

मैं झगड़े-झंझट की प्रॉपर्टी डील करता हूँ. लोग ऐसी प्रॉपर्टी से दूर भागते हैं, मैं स्वागत करता हूँ. खूब-खूब कोशिश करता हूँ कि कोई अपने मतलब का डिस्प्यूट मिल जाए. कहावत है,"आ बैल मुझे मार". लोग बचते हैं कि बैल मार न जाए. लेकिन बुल-फाइटिंग और जल्ली-कुट्टू भी यथार्थ हैं. 

तो जैसे ही कोई परेशान-आत्मा किस्सा सुनाता है डिस्प्यूट का, वो किस्सा और फिर उसके डॉक्यूमेंट, वो ही बता देते हैं करीब-करीब सब कुछ. सब उसी में छुपा रहता है. सवाल में ही जवाब छुपा रहता है. स्कूल में हमें सिखाया गया था मैथ्स के टीचर द्वारा कि उत्तर लिखने की जल्दबाजी न की जाए. सवाल को ठीक से समझा जाए पहले. दो-बार, तीन-बार सवाल पढ़ा जाए. सवाल ठीक से समझ आएगा तो ही जवाब ठीक बन पड़ेगा. और हो सकता है कि सवाल में ही जवाब छुपा हो. 

एक कहानी है, राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो सबसे तेज़ दिमाग साबित होगा उसे बड़ा इनाम मिलेगा. एक समस्या दी जायेगी, उसे हल करेगा जो सबसे पहले, वो विजेता. कोई दस लोग फाइनल में पहुंचे. सबको अलग-अलग कमरों  में बंद कर दिया गया. बाहर से ताला लगा दिया गया हर कमरे के दरवाज़े पर.  बाकायदा ताला लगने की आवाज़ सुनी सबने, ताला कुंडे में डालने की, चाबी घुमाने की. अब कहा गया कि जो सबसे पहले ताला खोल बाहर निकलेगा, वही विजेता.  भीतर सब. सब दिमाग दौड़ा  रहे हैं कि कैसे...कैसे निकलें. एक छोटा बच्चा उठा, चुपके से दरवाज़ा धकेला उसने  और बाहर. बाहर हो गया वो. इनाम उसे मिला. पूछा गया कि कैसे सूझा जवाब? उसने कहा मास्टर जी ने कहा था कि पहले सवाल समझो, हो सकता है सवाल में ही जवाब हो, सो सोचा पहले देखूं तो, ताला लगा भी है या नहीं.

शेरलोक होल्म्स कहते हैं,"यू सी, बट यू डू नोट ऑब्जर्व." आप देखते हैं, लेकिन निरीक्षण नहीं करते. अंधों की तरह देखते हैं. अक्ल के अंधे! और सबको अक्ल के अंधे चाहिएं. गाँठ के पूरे हों तो सोने पे सुहागा.

ऑस्कर वाइल्ड जब अमेरिका हवाई अड्डे पर उतरे तो उनसे पूछा गया कि कोई आढी-टेढ़ी चीज़ हो तो घोषित कर दें. जवाब था उनका कि उनके पास एक ही चीज़ है, जो इस कोटि में आती है और वो है उनकी 'अक्ल'.

अक्ल लगायें आप, सबको नागवार गुज़रता है. आपकी लड़ाई हो जायेगी जगह-जगह. लोग ज़बरन एक-दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हैं. बेशर्मी से. ढिठाई से. लडाई से.

आप अक्ल लगायेंगे, बदनाम होने लगेंगे. लोग झगड़ालू समझेंगे. प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, कारपेंटर तक  आपका काम करने को राज़ी नहीं होगा. वकील को आप दोगुने पैसे दो, वो तब भी आपका केस लेकर खुश नहीं होगा. डॉक्टर भी चाहेगा कि आपके जैसे ग्राहक न आयें तो ही बेहतर. सबको चाहियें अक्ल के अंधे. जो "सर जी, सर जी--डॉक्टर साहेब, डॉक्टर साहेब" कहें और मुंह मांगे पैसे भी दें. जिनको कुछ समझना ही न हो. जैसा मर्ज़ी उल्टा-सीधा, आधा-अधूरा काम कर दिया जाए और पैसे वसूले जाएँ.  

काम आपका होगा, लेकिन करने वाला ऐसे करेगा जैसे वो ही उस काम का मालिक हो. वो अपने ही ढंग से काम को निपटाने की कोशिश करेगा. सेल्समेन तक बताता है कि आपको कौन सा जूता-कपड़ा बढ़िया लगेगा. पहनना आपने है, फैसला वो करे जा रहा है आपके लिए. आप करने देते हैं इसलिए. आप वकील हायर करते हैं और निश्चिन्त हो जाते हैं कि सब वो करेगा. हार-जीत आपकी होनी है, उसकी नहीं. उसने आपके हारने के, आपको हरवाने के भी पैसे ले लेने हैं. यकीन जानें, आप ध्यान न दें तो अमूमन कारीगर एक कील भी सीधा नहीं ठोकेगा, वकालत या डॉक्टरी सही मिल जाए तो यह चमत्कार से कम नहीं. 

खैर, मेरी राय साफ़ है कि बदनाम होते हों, हो जाएँ. झगड़ा करना पड़े, कर लें. वो कहीं बेहतर है, बेवकूफ बनने से. "बदनाम अच्छा, बद बुरा". आपके साथ कुछ बुरा हो जाए, बद हो जाए, उससे तो बदनाम होते हों, हो जाएं, वो कहीं अच्छा है.

सो अपनी अक्ल लगायें, शाहरुख़ खान की फिल्म उसके कहने मात्र पर मत देखें. ऐसा कुछ नहीं, न उसमें, न उसकी फिल्मों में. अधिकांश कचरा हैं और एक्टिंग के नाम पर ड्रामेबाज़ी, नक्शे-बाज़ी ही की है उसने आज तक. दफा करो.

और लेख का मुद्दा यह नहीं है कि शाहरुख़ की फिल्म इसलिए न देखी जाए कि वो मुसलमान है और यह भी नहीं कि  दंगे मुसलमान ही करते हैं या नहीं, और न UP चुनाव की वजह से आज़म खान का ज़िक्र किया है. लोग मिसालों, किस्सों, कहानियों को पकड़ लेते हैं...और जिस मुख्य पॉइंट को समझाने के लिए कथा, किस्सा, कहावत, मिसालें दी जा रही हैं, वो मिस कर जाते हैं.

मसला मसला है, मिसाल मिसाल
मिसाल मसला नहीं 
और मसला मिसाल नहीं

मिसाल पकड़ लेते हैं, मसला छूट जाता है 
जंग छिड़ जाती है, असल असला छूट जाता है

गवाह चुस्त, मुद्दई सुस्त
लफ्ज़ चुस्त, मुद्दा सुस्त

ख्यालों की भीड़ में, अलफ़ाज़ के झुण्ड में
लफ्ज़ हाथ आते हैं, मतलब छूट जाते हैं
कहानी हाथ आती है, मकसद छूट जाते हैं

और हम भूल ही जाते हैं कि
मसला मसला है, मिसाल मिसाल
मिसाल मसला नहीं
और मसला मिसाल नहीं

A pointer is meant to show you the point and if you miss the point and catch the pointer, what is the point in showing you the point?

लेख का मुद्दा शाहरुख़ खान, आज़म खान, शेरलोक होल्म्स, ऑस्कर वाइल्ड नहीं हैं. मुद्दा आप हैं, मुद्दा आपकी अक्ल है. 

नमन, कॉपी राईट, तुषार कॉस्मिक