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Thursday 21 September 2017

सत्य

जितना बड़ा मुद्दा 'भगवान' इस दुनिया के लिए रहा है और है, उतना ही बड़ा मुद्दा ‘सत्य’ भी रहा है और है. चलिए मेरे संग, थोड़ा सत्य भाई साहेब के विभिन्न पह्लुयों पर थोड़ा गौर करें:----- 1. “सदा सत्य बोलो” क्यों बोलो भाई? अगर भगत सिंह पकड़े जायें अंग्रेज़ों द्वारा और अँगरेज़ पूछे उनके साथियों के बारे में तो बता ही देना चाहिए, नहीं? सदा सत्य बोलो. इडियट वाली बात. जीवन जैसा है, सदा सत्य बोलना ही नहीं चाहिए. सत्य और असत्य का प्रयोग स्थिति के अनुसार होना चाहिए. बहुत बार असत्य सत्य से भी कीमती है. एक चौराहे पर बुड्डा फ़कीर बैठता था. बड़ा नाम था उसका. फक्कड़. बाबा. लोग यकीन करते थे लोग उसके कथन पर. एक रात बैठा था अपनी धुन में धूनी रमाये. अकेला. एक जवान लड़की बदहवास सी भागती निकली उसके सामने से. और दक्षिण को जाती सड़क पर कहीं खो गई. कुछ ही पल बाद इलाके के जाने-माने चार बदमाश पहुंचे वहां. चौक पर ठिठक गए. तय नहीं कर पाए किधर को जाएँ. फिर बाबा नज़र आया. बाबा का सब सम्मान करते थे. बदमाश भी. उन्हें पता था बाबा झूठ नहीं बोलता. बाबा से पूछा, “लड़की किधर गयी?” बाबा ने उनको उल्टी दिशा भेज दिया. लड़की बच गई. अब क्या कहेंगे आप? बाबा का झूठ सच्चा था या नही? सत्य-असत्य का फैसला मात्र बोले गए शब्दों से नहीं होता. किस स्थिति में, क्या बोला गया, उस सबको ध्यान में रख कर होता है. युधिष्ठिर ने जो कहा, “अश्व्थाथ्मा मारा गया, नर नहीं हाथी”. इसे अर्द्ध-सत्य माना जाता है लेकिन यह अर्द्धसत्य नहीं पूर्ण असत्य है. किस मंशा से, क्या बोला जा रहा है, किस स्थिति में बोला जा रह है, किसे सुनाने के लिए-क्या पाने के लिए बोला जा रहा है, सब माने रखता है. असल में झूठ बोलना एक कला है. कहते हैं सबसे बढ़िया झूठ वही बोलता है जो सच बोलता है. मतलब जो अपने झूठ को सच में कहीं इस तरह से मिक्स कर देता है कि वो जल्दी से पकड़ में ही नहीं आता. तो सदा सत्य नहीं बोलिए. सत्य बोलिए. सच्चे झूठ बोलिए. विचार से बोलिए. विश्वास से बोलिए. 2. "सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम" सत्य बोलो और प्रिय बोलो. अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए. लो कल्लो बात. यह एक और बकवास है. अगर आप को अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना है तो हो गया आपके सत्य का राम-नाम-सत्य. सत्य ने कोई ठेका नही ले रखा प्रिय लगने का. और बहुत बार हथौड़े की तरह सत्य की चोट पड़नी ही चाहिए, लगता रहे अप्रिय. मानव स्वभाव है कि उसे सीधा-सीधा अपने प्रतिकूल मालूम पड़ने वाला सत्य अक्सर हज़म नहीं होता लेकिन बहुत बार बाद में वही अमृत-तुल्य भी मालूम होता है. आवारा लड़का अपने दोस्तों के साथ मिल किसी लड़की का दुप्पट्टा खींच रहा था. लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने ही वाला था कि उधर से उस लड़के का बाप गुज़रा. बाप ने लड़के को भरे बाज़ार में उसके दोस्तों के बीच खींच कर एक लाफा मारा और कहा, “अबे, वो लड़की रिश्ते में तेरी बहन लगती है.” लड़के को बाप पर बहुत गुस्सा आया, उसके तन-मन में बाप के खिलाफ आग लग गई. लेकिन फिर भी बाप की शर्म रखनी पड़ी. उसे वहां से हटना पड़ा. बाद में लड़के को पता लगा कि वो लड़की दूर-दूर तक उसकी बहन नहीं लगती थी. बाप ने झूठ बोला था. यहाँ बाप ने न तो सत्य बोला और न ही प्रिय बोला लेकिन यह “अप्रिय असत्य” लाख “प्रिय सत्यों” से बेहतर है. आई समझ में बात? 3. “सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं” यह भी सरासर बकवास है. जीवन में जीत हार सत्य-असत्य आधार पर नहीं होती. यहाँ सत्य-असत्य कोई भी जीत जाता है. और कोई भी परेशान हो सकता है. कितने ही लोग कोर्ट के चक्कर काटते मर जाते हैं सारी उम्र और उनको न्याय नहीं मिलता. 4. "सत्यमेव जयते" सत्यमेव जयते भारत का 'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य' है, जिसका अर्थ है- "सत्य की सदैव ही विजय होती है". यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है लेकिन यह नितांत असत्य कथन है. मेरा जानना तो यह है कि जो जीत जाता है, वो तो सत्य हो ही जाता है. "जयमेव सत्ये " विजेताओं को सच्चा और सही मान लिया जाता है क्योंकि इतिहास उनकी अवधि में लिखा जाता है, उनकी देखरेख में लिखा जाता है. एक उदाहरण. कांग्रेस ने 1 9 47 के बाद भारत में अधिकांश समय पर शासन किया है तो आपको इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, महात्मा गाँधी के नाम पर सड़क, पार्क, स्थान, योजनाएं मिलेंगी. जैसे कि जगदीश बसु, सी.वी. रमन, सूर्यसेन, भगत सिंह ने भारत को लगभग कुछ नहीं दिया था। एक और उदाहरण, दिल्ली में दो रिंग रोड़ हैं. कांग्रेस ने आंतरिक रिंग रोड को नाम दिया महात्मा गांधी रोड़. और बीजेपी ने बाहरी रिंग रोड को नाम दिया हेडगेवार मार्ग. हेडगेवार भाजपा की मां आरएसएस के जन्मदाता थे. डॉक्टर केशव राव बली राम हेडगेवार. और गांधी आरएसएस जैसी मानसिकता रखने वाले द्वारा मारे गए थे और कांग्रेस ने हमेशा आरएसएस का विरोध किया है. अब कौन सही, सच्चा है? समझ लीजिये, सच्चा कोई भी हो सकता है जीतने वाला भी या हारने वाला भी. किसी की जीत हार से उसके सच्चे-झूठे होने का प्रमाण नहीं मिलता. जांचें, फिर से जांचें.

5. एक कंसेप्ट है जिसे 'परसेप्शन' कहते हैं. अब यह क्या है? परसेप्शन का अर्थ है अनुभूति लेकिन यह पूर्व स्थापित नज़रिये से प्रभावित रहती है और परसेप्शन सही हो भी सकता है, उसमें सत्य हो भी सकता है और नहीं भी. लेकिन दिक्कत यह है कि सबको अपना परसेप्शन सत्य ही लगता है. सबको अपना कुत्ता टॉमी और दूसरे का कुत्ता कुत्ता दीखता है. सब डिफेन्स मिनिस्ट्री बनाते हैं, अटैक मिनिस्ट्री कोई नहीं बनाता, फिर भी अटैक होते हैं और कोई दूसरे ग्रह से नहीं होते. सबको अपना धरम, धरम और दूसरे का भरम लगता है. तो जितने लोग, उतने नज़रिए, उतने सत्य और ऐसा इसलिए कि नज़रिए में वैज्ञानिकता नहीं होती, बस विश्वास हैं, मान्यताएं हैं. तो सावधान हो जायें, हो सकता है कि आपका परसेप्शन असत्य हो. 6. राम नाम सत्य है"/ "सतनाम वाहेगुरु" किसी भी नाम में कुछ भी सत्य नहीं है......हर नाम काम चलाऊ है, चाहे आप राम कहें, चाहे वाहेगुरु.......व्यक्ति या वस्तु के नाम से सत्य का क्या लेना देना? हर नाम, मात्र नाम है..........नाम का अपने आप में सत्य, असत्य से कोई मतलब नहीं ....कोई भी नाम अपने आप में सत्य या असत्य कैसे हो सकता है? एक कोल्ड ड्रिंक का नाम आप COKE रखें या PEPSI, इसका सत्य असत्य से क्या मतलब, यह सिर्फ नाम है...नाम मात्र. आखिर में थोड़ा अंग्रेज़ी तड़का. Names are just for the name sake. There is nothing truth or untruth in the name itself. Be it any name. नमन...तुषार कॉस्मिक