सबको गले लगाना, अहिंसा, प्रेम यह सब बढ़िया बातें हैं, बढ़िया जीवन मूल्य, लेकिन जीवन ऐसा है नहीं ......तो बुद्ध और गुरु गोबिंद में से यदि चुनना हो तो गोबिंद साहिब को चुनता हूँ, सर काट दो बुरे का यदि कोई और चारा न हो, यह जानते हुए कि वो भी सोया बुद्ध है, पगलाया बुद्ध है, जानते हुए भी
कृष्ण अर्जुन को लड़ना सिखाते हैं, अर्जुन तो बुद्ध हुआ जा रहा था, गांधी बाबा, लेकिन वो सिखाते हैं लड़ना .....फिर बुद्ध के चेलों को भी सीखना पडा मार्शल आर्ट, फिर गोबिंद सिंह साहेब का संत और सिपाही दोनों होने का फार्मूला, फिर गांधी बाबा की अहिंसा .......एक संघर्ष है हिंसा और अहिंसा के बीच.........लेकिन चुनना हो तो बुद्ध और गांधी को नहीं चुन सकता....कृष्ण को भी नहीं ....चूँकि चाहे कृष्ण हिंसा सिखा रहे हैं लेकिन कौरवों और पांडवों में से ज़्यादा सही कौरवों को मानता हूँ सो कृष्ण की हिंसा को गलत मानता हूँ .....मात्र गुरु गोबिंद को चुनुँगा
हिंसा क्यों है, कैसे है , यह देखना ज़रूरी है......बिन हिंसा तो जीवन ही सम्भव नहीं....जीवन अपने आप में महा-हिंसा है.........सांस लो तो हिंसा, खाओ तो हिंसा........चलो तो हिंसा.......आप जैन हो जाओ.....कपडा बाँध लो मुंह पर, छान कर लो पी....लेकिन खाना खाओगे तो ...वो खाना भी तो हिंसा से ही पैदा होता है......ढूंढते रहो वृक्ष से पक कर अपने आप गिरा फल.....हो गया जीवन....नहीं, हिंसा बिन जीवन ही नहीं
हिंसा के बदले में हिंसा हो तो क्या बुरा, गलत हिंसा के बदले में सही हिंसा ही जवाब है.......हाँ, मौका देख सकते हो यदि लगे की शांति का सन्देश बिन हिंसा के दिया जा सकता है तो उससे बेहतर कुछ नहीं लेकिन यह स्थित -काल-देश पर निर्भर है कि शांति का संदेश शांति से दिया जाना चाहिए या हिंसा से
तो न तो मैं हिंसा के पक्ष में हूँ न विपक्ष में......चाहता तो मैं भी यही हूँ कि प्रेम हो, शांति हो लेकिन जैसा मैंने कहा मुझे हिंसा और अहिंसा/ प्रेम में से यदि कुछ चुनना होगा तो मैं व्यक्ति विशेष, स्थिति विशेष के मुताबिक चुनुँगा ...
यदि व्यक्ति/स्थिति मजबूर करे तो हिंसा का बदला हिंसा भी सही हो सकता है ..यह सदैव शांति/प्रेम की शिक्षा घातक है...खतरनाक है ...नाक को ही नहीं पूरे शरीर को......शरीर को ही नहीं पूरे समाज को खतरा है ......सावधान
कृष्ण अर्जुन को लड़ना सिखाते हैं, अर्जुन तो बुद्ध हुआ जा रहा था, गांधी बाबा, लेकिन वो सिखाते हैं लड़ना .....फिर बुद्ध के चेलों को भी सीखना पडा मार्शल आर्ट, फिर गोबिंद सिंह साहेब का संत और सिपाही दोनों होने का फार्मूला, फिर गांधी बाबा की अहिंसा .......एक संघर्ष है हिंसा और अहिंसा के बीच.........लेकिन चुनना हो तो बुद्ध और गांधी को नहीं चुन सकता....कृष्ण को भी नहीं ....चूँकि चाहे कृष्ण हिंसा सिखा रहे हैं लेकिन कौरवों और पांडवों में से ज़्यादा सही कौरवों को मानता हूँ सो कृष्ण की हिंसा को गलत मानता हूँ .....मात्र गुरु गोबिंद को चुनुँगा
हिंसा क्यों है, कैसे है , यह देखना ज़रूरी है......बिन हिंसा तो जीवन ही सम्भव नहीं....जीवन अपने आप में महा-हिंसा है.........सांस लो तो हिंसा, खाओ तो हिंसा........चलो तो हिंसा.......आप जैन हो जाओ.....कपडा बाँध लो मुंह पर, छान कर लो पी....लेकिन खाना खाओगे तो ...वो खाना भी तो हिंसा से ही पैदा होता है......ढूंढते रहो वृक्ष से पक कर अपने आप गिरा फल.....हो गया जीवन....नहीं, हिंसा बिन जीवन ही नहीं
हिंसा के बदले में हिंसा हो तो क्या बुरा, गलत हिंसा के बदले में सही हिंसा ही जवाब है.......हाँ, मौका देख सकते हो यदि लगे की शांति का सन्देश बिन हिंसा के दिया जा सकता है तो उससे बेहतर कुछ नहीं लेकिन यह स्थित -काल-देश पर निर्भर है कि शांति का संदेश शांति से दिया जाना चाहिए या हिंसा से
तो न तो मैं हिंसा के पक्ष में हूँ न विपक्ष में......चाहता तो मैं भी यही हूँ कि प्रेम हो, शांति हो लेकिन जैसा मैंने कहा मुझे हिंसा और अहिंसा/ प्रेम में से यदि कुछ चुनना होगा तो मैं व्यक्ति विशेष, स्थिति विशेष के मुताबिक चुनुँगा ...
यदि व्यक्ति/स्थिति मजबूर करे तो हिंसा का बदला हिंसा भी सही हो सकता है ..यह सदैव शांति/प्रेम की शिक्षा घातक है...खतरनाक है ...नाक को ही नहीं पूरे शरीर को......शरीर को ही नहीं पूरे समाज को खतरा है ......सावधान
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