Thursday, 18 June 2015

भारतीय प्रजातंत्र/ छद्म राज्यतंत्र

एक मुल्क था.....नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा.......वहां का निज़ाम डेमोक्रेसी कहलाता था......मतलब कोई भी जन साधारण में से ...जो भी काबिल हो संतरी, मंत्री बन जाए......लेकिन काबिल आदमी तो आगे आ ही नहीं पाता था...क्योंकि क़ाबलियत आम लोगों के वोट से तय होती थी...... और वोट बहुत हद तक चुनाव प्रचार और चुनाव धांधलियों से तय होते थे ...खरीदे बेचे जाते थे......

अब इस सब के लिए तो अनाप शनाप पैसा चाहिए होता था, सो निजाम आम आदमी कीक़ाबलियत पर नहीं, पूंजीपतियों की दौलत से तय होने लगा......
पूंजीपति समझ चुके थे कि प्रचार से हर कूड़ा कबाड़ा बेचा जा सकता है.... बेस्वाद बर्गर बेचे जा सकते थे, सेहत को नुक्सान पहुंचाएं वाले पिज्ज़े और कोला बेचे जा सकते थे.... प्रचार और दुष्प्रचार से सरकारे बनाई और गिराई जा सकती थी
सब चतुर सुजान इस फार्मूला को समझ चुके थे

संतरी, मंत्री, प्रधान मंत्री इसी तरह से बनाये जाते थे
लेकिन फिर भी इसे लोकतंत्र कहा जाता था
लोकतंत्र, ऐसा तंत्र जहाँ आम लोगों की कभी पहुँच ही नहीं थी

फिर एक आदमी उठा..............नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा............ उसने कहा कि भाई, ये तो गलत है..भला एक अरबों-खरबोंपति द्वारा प्रचारित बंदा (वैसे उसका भी नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा) आम आदमी का नुमाइंदा कैसे हो सकता है ..एक गरीब, एक पूरे सूरे आम आदमी की नुमाइंदागी इस तरह का बन्दा थोड़ा कर सकता है जो पॉवर में आएगा ही, बड़े पूंजीपतियों की मदद से

अब दिक्कत यह थी कि उस आम आदमी की बात भी पब्लिक तक पहुंचाने वाला कोई नहीं था.....सारा मीडिया था ही पूंजीपतियों का....अखबार, टीवी सब पूंजीपतियों का था

अब ऐसे बंदे की आवाज़ कौन सुने, कैसे सुने?

वो कहता रहा कि भाई अगर हमें सेहत-मंत्री चाहिए तो कोई ऐसे बंदे जिन्होंने इस क्षेत्र में कोई काम किए हो, जिनके पास इस क्षेत्र को सुधारने का कोई जज्बा हो, कोई योजना हो, उनको सामने आने दो.........सबको बराबर टाइम दे दो... सरकारी रेडियो, टीवी पर.......पब्लिक को सुनाएँ , समझायें अपनी योजना, अपनी काबिलयत ......चेहरा भी मत आने दो, आवाज़ भी मत सामने आने दो.........मात्र क़ाबलियत, योजना सामने लाने दो....लोग वोट योजना को दें...काबिलियत को दें बस

वो कहता रहा ऐसी ही बहुत सी बातें
अभी तक तो उस बंदे की सुनी नहीं गयी
अभी तक तो पुराने ढर्रे का लोकतंत्र ही चल रहा है जिसमें आम लोगों वोट देते नहीं हैं, वोट उनसे लिए जाते हैं
अभी तक तो कुछ बदलने वाला दिख नहीं रहा उस मुल्क में, वो मुल्क, जिसका नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा..

किताबों में लिखा है, बच्चों को स्कूलों में पढ़ाते हैं, प्रजा का तन्त्र, प्रजा द्वारा, प्रजा के लिए...

लेकिन झूठ है, सफेद झूठ..लेकिन इस झूठ में इतना कालापन है कि मैं इसे "काला झूठ" कहना ज़्यादा पसंद करूंगा....."काला धुत्त झूठ" या फिर "काला धूर्त झूठ"

कौन सी प्रजा का राज्य......आधी प्रजा तो तुम्हारी भूखी, नंगी है, सर पर ठीक से छप्पर नहीं...इस प्रजा का तन्त्र?

इस प्रजा को तो आप अपने इस तथा कथित तन्त्र में पास भी फटकने नहीं देते, इसका तन्त्र?

बकवास!

बाकी आधी प्रजा अधिकांश मध्यमवर्गीय है, जो न इधर की न उधर की, वो तो अपने ही दाल दलिए से ऊपर नहीं उठ पाती, वो क्या सोचे मुल्क के बारे में और यदि कोई उनमें से सोच भी ले तो कैसे आगे आए, कैसे मगरमच्छों से करे मुकाबला?

मैंने कुछ ही दिन पहले लिखा था तुम्हारा प्रजातंत्र धनाढ्य वर्ग का विलास मात्र है.......इस प्रजातंत्र का प्रजातंत्र की परिभाषा से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है

तुम्हारे प्रजातंत्र में सरकार में सचिन तेंदुलकर जैसे क्रिकेट के खिलाड़ी पहुँचते हैं, गाने वाली लता मंगेशकर पहुँच जाती हैं, धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन जैसे एक्टर पहुँच जाते हैं सरकार में......ये सब लोग अपने अपने क्षेत्रों में बढ़िया हैं, रहे हैं....लेकिन इनका क्या सरोकार निज़ाम चलाने से?

अमिताभ एम पी बन भी गए तो बाद में तौबा कर ली राजनीति से....अरे भाई आपने जनता को क्या सोच के कहा था कि वोट दें.....पहले सीखना था, खुद को तौलना था, समझना था कि आप जनता के कुछ काम आ भी सकते हैं या नहीं, बस राजनीति को भी कहानी समझ लिया जिसे अपने हिसाब से मोड़-तोड़ लिया, जब दिल चाहा कूद गए अन्दर, जब दिल चाहा कूद के हो गए बाहर......और ऐसा ही हाल लगभग बाकी सब कलाकारों और खिलाड़ियों का है.....राजनीति मात्र एक व्यसन.

अभी पीछे एक विडियो दिख रहा था कि हेमा मालिनी चुनाव प्रचार में छोटी गाड़ी में चलने से खुश नहीं थी. अब ऐसे लोगों की नुमाइंदगी को आप लोकतंत्र कहते हैं, तो ज़रूर कहें, मैं न कहूँगा

तुम्हारे इस जंजाल में. प्रजातंत्रजाल में मनी/money बाई (जी हाँ, आपने ठीक पढ़ा , मैंने मुन्नी बाई नहीं, मनी बाई लिखा है ) मुजरा करती है और सेठ लोग, व्यापरी लोग और धन्धेबाज़ राजनेता लोग ताली पीटते हैं, मज़ा लेते हैं...........

सही प्रजातंत्र में तो पैसे का खेल होना ही नहीं चाहिए और जब तक पैसे का खेल है, कोई प्रजा तन्त्र कैसे खुद को प्रजातंत्र कहलाये जाने का हकदार है?

मैं हज़ार लानत भेजता हूँ उन पर जो यह कहते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है

नहीं, भारत में प्रजातंत्र के नाम पर दुनिया का सबसे बड़ा पाखंड है, जिसका हर पांच साल बाद नवीनीकरण होता है, जो पांच साल तक पहुँचते पहुँचते ज़र्ज़र हो चुका होता है, लेकिन फिर से जवान हो जाता है......काया कल्प ....

हर पांच साल बाद भारत प्रजातंत्र की हत्या करता है, प्रजातंत्र का जनाज़ा निकालता है...

आपको कहना है इसे प्रजातंत्र शौक से कहिये...लेकिन प्रजा से पूछ लीजिये ज़रा तो बेहतर होगा. कितने गरीब लोग संसद पहुँचते हैं, कितने मध्यम वर्गीय, आम लोग?

और कितने लोग पहुँचते हैं मात्र इस दम पर कि उनके पास कोई योजना है, कोई नक्शा, कोई रोड मैप है मुल्क की बेहतरी का?

इस लोकतंत्र में आज भी राजे महाराजे भरे पड़े हैं, और अमीर कलाकार और प्रोफेशनल राजनेता



ऐसे में कैसे बिन पैसे कोई प्रजा को समझाए कि वो इन चोट्टों, इन मोटों की अपेक्षा कहीं एक बेहतर तन्त्र दे सकता है, बेहतर समाज दे सकता है......मात्र बात पहुंचाने के लिए करोड़ों या शायद अरबों रुपये चाहिए.....न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी.

कॉर्पोरेट विज्ञापन से वोटर का बुद्धिहरण, इसे लोकतंत्र नहीं, लोकतंत्र की चोरी कहते हैं , भाई जी.....और आपको इस लिए यह सब करने का अधिकार नहीं मिल गया था कि अमुक पार्टी आज तक ऐसा करते आ रही थी.....बेहतर होता कि आप इस व्यवस्था का विरोध भी करते नज़र आते......काश कि आप यह कहते कि कांटे को निकलने के लिए काँटा प्रयोग किया जा रह है......बस उसके बाद काँटा फेंक दिया जाएगा...काश, असल लोकतंत्र की तरफ आपके कुछ कदम बढ़ते नज़र आते

अभी कोसों दूर हैं हम और तुम असल प्रजातंत्र के
इसे छद्म राजतन्त्र कह सकते हैं, आधुनिक राजतन्त्र.

आज का राजा कॉर्पोरेट है, और जैसे वो किसी भी बिज़नस में फाइनेंस करता है वैसे ही वो राजनीति में निवेश करता है, उसे मार्केटिंग के सब हथकंडे पता हैं, उसे पता है कि कैसे इश्तिहार-बाज़ी से कूड़ा प्रोडक्ट भी बेचा जा सकता है, उसे पता है पब्लिक चमक दमक से प्रभावित होती है, सो वो और धन्धेबाज़ राजनेता मिल कर यह छदम प्रजातंत्र का खेल खेलते हैं

राजा का बेटा राजा बनता था, अब राजनेता का बेटा राजनेता बनता है
न आम आदमी की पहले कोई औकात थी, न अब है
दुनिया चंद लोगों की मुट्ठी में थी, दुनिया आज भी चंद लोगों की मुट्ठी में है

सिर्फ नाम बदल दिया गया है, सिर्फ ऊपरी चौखटा बदल दिया गया है, पहले एक ही राज-परिवार हावी रहता था, फिर कोई हमला करता था, खून खराबा होता था और कई बार तख्ता पलट जाता था

आज भी लड़ाई होती है, चुनाव की लड़ाई, आज भी खून खराबा होता है और कई बार तख्ता पलट जाता है

इस सारे खेल में आम इंसान की औकात शतरंज के सबसे छोटे मोहरे, प्यादे से बढ़ कर नहीं होती

अब आप इस खेल का नाम यदि प्यादे के नाम पर रख दें तो प्यादे को बड़ी आसानी से भुलावा दिया जा सकता है, उसे गुमराह किया जा सकता है, उसे लगेगा कि उसकी अहमियत है, उसी की अहमियत है, खेल उसी के लिए खेला जा रहा है, मात्र नाम देने से भुलावा पैदा किया जा सकता है, जैसे आँख के अंधे का नाम नयनसुख रख दो और वो अंधे होने को ही नयन सुख समझने लगे, फिर आप लाख समझाओ कि नहीं अँधा होना नयनसुख नहीं है, लेकिन उसे जल्द समझ न आएगा

भुलावे पैदा किये जा सकते हैं, गरीब के, दलित के असंतोष को दबाने के लिए संतोषी माता खड़ी की जा सकती है

ठीक वैसे ही प्रजा के, गरीब के, दलित के, वंचित के, मध्यम वर्गीय के जोश को, गुस्से को, असंतोष को काबू में रखने को, भ्रमित करने को इस छदम राजतन्त्र को प्रजातंत्र का नाम दिया गया है, यह तथा कथित प्रजातंत्र असल प्रजातंत्र के ठीक विपरीत है, ठीक वैसे ही जैसे नयनसुख नाम असल नयन सुख के ठीक विपरीत है

यह षड्यंत्र है, प्रजा के शोषण का यंत्र है, यह भयंकर है, तंत्र मन्त्र छू उड़नतर है. यह जो कुछ भी है लेकिन हरगिज़ प्रजातंत्र नहीं है

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