Saturday, 20 June 2015

आईये खबर लें खबरदार खबरिया टीवी चैनलों की

अब कौन बतावे इन खबरिया चैनल वालों कि भई, कुत्ते नहीं पीछे पड़े हैं. याद है क्या आपको दूरदर्शन के ज़माने की खबरें.....कहते हैं कि समय के साथ चीज़ें आगे बढ़ती हैं ...लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा हर मामले में नहीं होता ऐसा. जैसे मुझे आँखों के लेवल से ऊपर लगे, तेज़ रोशनी वाले फ्लैट टीवी समझ नहीं आते वैसे ही मुझे आज के खबरिया चैनल और उनकी खबरें नहीं जमती. आज के टीवी एंकर बहुत मेहनतकश इंसान हैं ....खबर की जब तक चटनी न बना दें, उसे घिस न दें, उसे पिस न दें , इनको मज़ा नहीं आता. खबर को जब तक तड़का न जाए, पब्लिक को थोड़ा सा भड़का न जाए, सुनी सुनी को सनसनी में न बदला जाये, तब तक कोई खबर खबर नहीं होती...खबरदार खबर नहीं होती. "आपको कैसा लग रहा है", अगले ने बता दिया, फिर से एंकर महाशय बतायेंगे कि देखिये इन साहेब को, मोहतरमा को ऐसा-ऐसा-ऐसा लग रहा है. "ये देखिये....ये देखिये",......इतना दिखाते हैं कि बन्दा बिदक ही जाए, देखने से भाग जाए, तौबा ही कर ले. शायद इन खबरदार, होशियार चैनलों को पता नहीं कि एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो मात्र इनके खबर देने के अंदाज़ से चिड़ के इनसे कब का कन्नी काट चुका है ....जो खबर सेकंडों में इन्टरनेट पर देखी जा सकती हैं उसके लिए "ये देखिये, ये देखिये" क्यों देखना? सबसे तेज़ चैनल बनने के चक्कर में.... "यह खबर सबसे पहले हमारे चैनल पर दिखाई गई"..... इस चक्कर में, लोगों का घनचक्कर बना देते हैं. आपको याद है खबर उन लड़कियों की भी है जिन्होंने हरियाणा में कुछ लडके पीटे थे...अब कहते हैं कि लडके बेक़सूर थे.....पता नहीं सच क्या है. खैर, खबरदार चैनलों को क्या? उन्हें कोई होमवर्क, फील्ड वर्क या ऑफिस वर्क थोड़ा ही करना होता है, मतलब थोड़ा तो करना ही होता है लेकिन थोड़ा ही करना होता है.... कोई सबूत वबूत में ज़्यादा नहीं पड़ते, सबूत गया ताबूत में. "हम हैं सबसे तेज़, तेज़ चैनल". एक आरोप यह भी है कि समाचार, आचारविहीन होते हैं, जी नहीं, अचार नहीं, खट्टा मीठा तो इनमें बहुत होता है.....आचारविहीन .....समाचारों में सम-आचार नहीं होता.......यानि आचार में समता नहीं होती......आचार का पलड़ा इक तरफ़ा झुका होता है......मेरे पास कोई ठोस सबूत तो है नहीं .......'सबूत गया ताबूत में'......बाक़ी 'समझदार को इशारा काफी होता है और नासमझ को लात-मुक्का भी कम होता है'. क्या?! ये सब कहावतें नहीं सुनी! चलो, अब तो सुन लीं न. बज़ा फरमाएं...मज़ा फरमाएं. हम बहुत छोटे थे. जी, जी हाँ, हम छोटे भी थे, अब तो ऐसा लगता है कि शायद हम बड़े ही पैदा हुए थे....लेकिन हम छोटे भी थे इसका सबूत है कि हमें याद है टीवी पर एक पिरोग्राम आता था, "कक्का जी कहिन", छुटभैये नेताओं पर छींटा-छांटी थी, ॐ पूरी थे मुख्य भूमिका में.....अब देखिये लिखना ओम पुरी था और लिखावे में ॐ पूरी आ गया, ये गूगल भी कभी कभी खबरिया चैनल हो जाता है. हाँ, तो जी जब हम छोटे थे तब कल्लू पहलवान कहिन,"जैसे अच्छे आदमी पर कोई फिल्म नहीं बन सकती, मतलब बनती है लेकिन बहुते कम बनती है ........अच्छे आदमी पर नावेल नहीं लिखा जाता, मतलब लिखा जाता है, कम्मे ही लिखा जाता है ...ठीक वैसे ही अच्छी खबर कोई खबर नहीं बनती........मतलब बनती है, लेकिन कम ही बनती है." दुल्हन वही जो पिया मन भावे और खबर वही जो बुरी खबर होवे. समाचार का मतलब 'सुसमाचार' भी होता है, लेकिन खबरों की दुनिया में बहुत कम होता है. किसी ने अपने पूरी ज़िंदगी बहुत से पेड़ लगा दिए, अब लगा दिए तो लगा दिए.....क्या खबर बनाएं? हाँ, लेकिन कोई अगर चार दरख्त काटता दिख गया ...तो इसकी निश्चित ही खबर बनाई जा सकती है. किसी ने बिना किसी सरकारी मदद से कोई अन्वेषण कर दिया तो उसकी थोड़ा कोई खबर होती है? खबर का सारा जोर तो एक ही विज्ञान पर है, राजनीति-विज्ञान. कैसे इसके छात्र, जो कि छात्र हैं भी नहीं, कैसे लोगों को इंसान से उल्लू बना रहे हैं? क्या विज्ञान है! इन्सान को उल्लू बना देना! जादूगर सम्राट 'श्री फ़लाने कुमार' आज तक यह करिश्मा नहीं कर पाए, लेकिन राजनीति-वैज्ञानिक, जो कि असल में वैज्ञानिक हैं भी नहीं, वो यह करिश्मा हर रोज़ करते हैं. सारा जोर तो इस विज्ञान को दिखाने पर है. अब कल्लू पहलवान तो यह तक फुसफुसा रहे थे कि जैसे राजनेता कहते हैं, जनता को कि तुम्हारी हर समस्या हल करेंगे और समस्या नहीं होगी तो पैदा करेंगे, वैसे ही कई बार खबरिया चैनल भी खबर नहीं होती तो खबर पैदा कर लेते हैं. और अब एक डिबेट, डिबेटिया पिरोग्रामों पर. मई जून की भरी दुपहरी में भी टाई-कोट पहने दूरदर्शन पर दर्शन देने वाले हमारे एंकर महोदयों को ज़्यादा दूर जाने की ज़रुरत नहीं है. पाकिस्तान के ही कुछ टीवी डिबेट देख लें. पाकिस्तान हज़ार मामलों में हम से पीछे होगा, लेकिन इस मामले में हम पीछे हैं. हमारी टीवी डिबेट कुछ ही समय में सब्ज़ी मंडी बन जाती हैं, हर दुकानदार चिल्ला रहा होता है कि उसका माल बढ़िया, उसका माल सस्ता, लेकिन ग्राहक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता. और एंकर महोदय, वाह, वल्लाह, सुभानल्लाह ! ये महाशय ज़रुरत से ज़्यादा आक्रामक अंदाज़ में सवाल पूछते हैं. जैसे सवाल न पूछ रहे हों, जॉर्डन के हवाई जहाज़ ISISI के ठिकानों पर बम बारी कर रहे हों. ये इस लायक ही नहीं कि इनके किसी डिबेट शो में शिरकत की जाए.....सब के सब बदतमीज़......सवाल के जवाब के बीच ही कूद कूद कर सवाल पूछेंगे. इनके पास समय की कमी है...एयरटाइम कीमती है. ऐसी की तैसी. मैं यदि ऐसे किसी शो में प्रकट हुआ कभी तो यकीन जानिये. नियम मेरे होंगे. टीवी एंकर के नहीं. बुलाना हो बुलाओ नहीं तो भाड़ में जाओ. ज़रुरत नहीं तुम्हारी. you-tube तुमसे सौ गुणा बढ़िया है अपनी बात कहने को. सौम्य ढंग से सवाल करते मैंने शायद ही किसी एंकर को देखा हो, इक्का-दुक्का. असल में तो कुल डिबेट ही सौम्य नहीं रहती. न सवाल, न जवाब. एक ज़माना था सलमा सुलतान, शम्मी नारंग का. क्या शालीनता थी! तब खबर सिर्फ खबर हुआ करती थी. आज तो टीवी खबरनवीस... खबरनवीस नहीं, कबरनवीस हैं. खबर को कबर तक पहुंचा कर दम लेते हैं और वक्त-बेवक्त ख़बर को कबर में से फिर-फिर उखाड़ लाते हैं कल्लू पहलवान यह भी बता रहे थे कि ये जो कुछ लोग डिबेट में भाग लेते हैं कुछ लोग डिबेट से भाग लेते हैं कुछ लोग डिबेट में से भाग लेते है, उसकी वजह आक्रामक एंकर जी भी होते हैं. बड़े आसान हल हैं. भाग लेने वालों को बराबर समय आबंटित किया जा सकता है. और इसकी जानकारी उनको पहले से दी जा सकती है. उनका समय खत्म होते ही उनका स्पीकर सिस्टम ऑफ किया जा सकता है. "आपका समय शुरू होता है अब..........और खत्म होता है अब." सिंपल. लेकिन कई बार सिंपल चीज़ें समझना सबसे मुश्किल होता है या फिर शेर्लोक होल्म्स के शब्दों में, "हर चीज़ सिम्पल होती है, यदि सिम्प्लीफाई कर दी जाए." वैसे टीवी की डिबेट से अच्छी तो फेसबुक पर डिबेट होती हैं, गाली देने वाले भी होते हैं, आढ़-टेड़ लिखने वाले 'समझदार' भी होते हैं और विचारगत से व्यक्तिगत आक्रमण करने वाले भी होते हैं. लेकिन कोई झंझट नहीं. बड़े सभ्य और सौम्य ढंग से इनको अमित्र किया जा सकता है, ब्लॉक किया जा सकता है और डिबेट जारी रखी जा सकती है. आज बहुत लोग, टीवी डिबेट से फेसबुक डिबेट में जुड़ने में ज़्यादा यकीन रखते हैं, एक वजह सीधी भागीदारी भी है. मात्र दर्शक नहीं, यहाँ लोग बाकायदा भागीदार होते हैं. टीवी डिबेट करवाने वाले एंकर जी को सीखना चाहिए कुछ फेसबुक पर होने वाली डिबेट से. और और और .......एंकर जी को यह समझाया जा सकता है कि आप एंकर हैं, अपनी राय तो रख सकते हैं लेकिन कोर्ट के जज नहीं हैं. सो कोई फैसला नहीं सुना सकते, फैसला सुनने, देखने वालों पर छोड़ा जाना चाहिए. टीवी के एंकर पढ़े-लिखे समझदार इंसानों को ही बनाया जाता है, ज़ाहिर है, गर्मी में भी टाई-कोट पहन दूरदर्शन पर निकट से दर्शन देने वाले, "गर्मी में सर्दी का अहसास" वाले विज्ञापन के कलाकार समझदार इंसानों को ही एंकर बनाया जाता होगा. ज़ाहिर है. सुना है "मास कम्युनिकेशन" नाम की कोई चीज़ सीख कर आते हैं ये लोग, सो बोल-चाल-ढाल सब बदल जाती है. कभी देखा है टीवी एंकर को आम इंसान की भाषा बोलते? नहीं, भाषा तो वही है, लेकिन अंदाज़, स्पीड सब अलग. बदले-बदले हैं अंदाज़ जनाब के. 'मास कम्युनिकेशन' की ट्रेनिंग का असर है सर. ऊपर से एयरटाइम कीमती है. हाय-हाय ये मज़बूरी. लेकिन काश एयरटाइम की यही मज़बूरी थोड़ा उधर ट्रान्सफर हो जाए, जब आप एक खबर की लस्सी घोलते हैं, घोले चले जाते हैं. खैर, एंकर जी को यह समझाया जा सकता है कि जितना तेज़ दौडेंगे, उतना ही जनता से दूर निकल जायेंगे. वैसे कल्लू पहलवान जी एक और बात भी कह रहे थे,"जैसे एक डायटीशियन का काम मात्र यह बताना है कि क्या नहीं खाना, मसलन पिज़्ज़ा नहीं खाना , बर्गर नहीं खाना, आइस क्रीम आदि नहीं खाना वैसे ही मास कम्युनिकेशन के कोर्से में सिर्फ यही सिखाया जाना चाहिए कि कैसे टीवी एंकर की तरह नहीं बोलना" नेता जी चिल्ला रहे थे स्टेज पर, "हम तुम्हारी 'ये' समस्या हल करेंगे, 'वो' समस्या हल करेंगे." भीड़ में से कोई चिल्लाया. "सबसे बड़ी समस्या तो आप ही हो महाराज, आप ही हल हो जाएँ, बस इससे बड़ी समस्या, इससे बड़ा प्रमेय और कोई नहीं है." एंकर जनाब चिल्लाते हैं, "राजनैतिक सिस्टम, अलां सिस्टम-फलां सिस्टम ठीक होना चाहिए." सब ठीक होना चाहिए...बिलकुल होना चाहिए सर, लेकिन वो एक कहावत है न कि दीपक अक्सर अपने नीचे का अन्धकार नहीं देख पाता. क्या कहा? "नहीं है इस तरह से कोई कहावत." खैर, नहीं है तो जोड़ लीजिये जनाब आज से. सुनते हैं कि जो मीडिया पर कण्ट्रोल करता है, वो दुनिया पर कण्ट्रोल कर लेता है, और यह भी सुनते हैं कि यदि समाज के दिमाग को एक हार्डवेयर मान लिया जाए तो टीवी के प्रोग्राम उस हार्डवेयर का सॉफ्टवेर हैं, टीवी के प्रोग्राम समाज के दिमाग को प्रोग्राम करते हैं, समाज को प्रोग्राम करते हैं. मीडिया का बड़ा हिस्सा टीवी प्रोग्राम हैं, टीवी प्रोग्राम का एक बड़ा हिस्सा आप श्री खबरिया चैनल हैं, तो कृपा करें महाराज, कृपा दृष्टि बनाये रखें, आप साक्षात् प्रभु हैं, समाज की नैया आपके हाथ है. खैर, अपुन ठहरे जनता जनार्दन (और कल्लू पहलवान भी ), जो ठीक लगा दाग दिया दनादन .....ज़्यादा अक्ल है नहीं आजकल (और कल्लू पहलवान तो वैसे ही पहलवान है, मोटा शरीर, मोटी अक्ल ) .....ऊपर से कोई कोर्स भी नहीं किया. 'मास कम्युनिकेशन', 'खास कम्युनिकेशन' छोडिये, 'आम कम्युनिकेशन' तक का नहीं. (और कल्लू पहलवान ने तो मांस यानि मसल बढ़ाने तक का कोई कोर्स नहीं किया बस देसी दंड बैठक पेलता रहता है.) सो कहा सुना माफ़....खत को तार समझिएगा, हमें अपना दोस्त यार समझिएगा, इस लेख को हमारा प्यार समझिएगा. रॉंग या राईट पर है कॉपी राईट नमन..तुषार कॉस्मिक

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