अभी बाहर गली में घूम रहा था.
दिसंबर अपने यौवन पर है.
आधी रात .
मुंह पर ठंडी हवा के थपेड़े पड़ रहे थे.
बर्फीली हवा मुझे अच्छी लग रही थी.
अंदर जाती साँस गीली-गीली थी.
मुझे अपना होना सुखद लग रहा था.
क्यों?
शायद मैं खुद से मिल रहा था.
मैं हवा का ही तो बना हूँ,
और मिटटी का,
और पानी का,
और ज़मीन का,
और आसमान का.
और
हवा में ही मिल जाऊँगा,
और मिटटी में घुल जाऊंगा,
और पानी में,
और ज़मीन में,
और आसमान में.
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