तो यह है, मैं जो समझता हूँ प्रेम से.

प्रेम. यह शब्द ध्यान में आते ही, ज़्यादातर लोगों के ज़ेहन में बॉलीवुडिया लड़का-लड़की का प्रेम आएगा.

यह असल प्रेम है ही नहीं. यह बाज़ारी-करण है सेक्स का.

"ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडत होए."
क्या यह इस प्रेम की बात है.
न. न.

आप प्रेममय होते हैं तो पूरी कायनात के लिए होते हैं, वो है असल प्रेम. और वो होते हैं आप जीवन की, जगत की अपनी समझ से. अगर समझ उथली है तो आपका प्रेम उथला ही होगा. समझ गहरी है तो किसी की गर्दन भी काटोगे, तो भी आप को दर्द होगा.

गुरु गोबिंद के शिष्य दुश्मन को काट भी रहे थे और उन्ही के शिष्य भाई कन्हैया उन को पानी भी पिला रहे थे. यह है प्रेम जो जीवन और जगत की समझ से उपजा है. "एक नूर ते सब जग उपजा, कौन भले कौन मन्दे."   गर्दन काटना मज़बूरी हो तो काटेंगे ही, फिर भी प्रेम अपनी जगह है.

प्रेम किसी व्यक्ति विशेष के लिए होने का अर्थ यह नहीं कि बाकी कायनात से कोई दुश्मनी है या दुराव है. नहीं ऐसा कुछ नहीं. "एक नूर ते सब जग उपजा, कौन भले कौन मन्दे." लेकिन हाँ, सब तो करीब आने से रहे. तो जो करीब हैं, वो करीब हैं ही. 

तो यह है, मैं जो समझता हूँ प्रेम से. 

~तुषार कॉस्मिक

Comments

Popular posts from this blog

Osho on Islam

RAMAYAN ~A CRITICAL EYEVIEW