Tuesday, 21 February 2017

ओशो--न भूतो, न भविष्यति

ओशो महान हैं. बेशक. 

लेकिन 'न भूतो, न भविष्यति'? ऐसा मैंने कईयों को कहते सुना है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है.

ओशो के साथ बहुत कुछ अच्छा घटित होते-होते रह गया.
और ज़िम्मेदार खुद ओशो हैं.

गोविंदा का एक गाना है, "मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं मेरी मर्ज़ी." ऐसे ही हैं ओशो के कथन. पढ़ते जाएं ओशो को, सब घाल-मेल कर गए हैं.

पहले कहा कि कुरआन महान है, बाद में बोले कचरा है और साथ में यह भी बोले कि जान-बूझ कर कुरआन पर नहीं बोले चूँकि मरना नहीं चाहते थे. यह है उनका ढंग.

आरक्षण पर बहुत पॉजिटिव थे. शूद्र जिनको कहा गया उनके साथ ना-इंसाफी हुई, ठीक है, लेकिन उसका हल आरक्षण है? आज भारत का युवा जो अनुसूचित जाति का नहीं है, वो विदेशों में बस रहा है, एक वजह आरक्षण है. आरक्षण न पहले हल था, न आज हल है. यह भारत को  तोड़ देगा. आरक्षण सिर्फ हरामखोरी है. अभी हरियाणा के जाट रेप तक कर गए हैं आरक्षण लेने के लिए. अब कह रहे हैं कि दिल्ली को दूध नहीं देंगे. सब बकवास. और ओशो आरक्षण के पक्ष में खड़े हैं.

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ओशो कम्यून में कौन सा एड्स टेस्ट होता था जबकि एड्स का इंस्टेंट टेस्ट तो कोई था ही नहीं. 

वहां अमेरिका में कम्यून की दुर्गति के लिए भी ओशो ज़िम्मेदार थे, सारा भांडा फोड़ दिया मां आनंद शीला पर. वो अगर क्राइम कर रही थी, जिसे ओशो ने खुद बार-बार स्वीकारा, तो ओशो वहां शीत-निद्रा में क्यूँ सोये हुए थे, अपने पांच हजार लोगों का जीवन खतरे में डाले?

और जो ओशो कभी समझौता नहीं करने की बात करते थे, लाखों डॉलर की पेनल्टी देकर, समझौता करके वहां से बाहर आए थे.

और ओशो कहते रहे कि ध्यान करने वाले लोगों का कोई बुद्ध-चक्र (Budha Cycle) दुनिया को घेर लेगा तो दुनिया में असीम बदलाव आ जायेंगे, दुनिया बदल जायेगी. कुछ न हुआ ऐसा, और न होगा. दुनिया बदतर हो चुकी है. और गर दुनिया बदलेगी तो वो इस तरह से तो बदलने से रही. ध्यान एक आयाम है, दूसरा आयाम है तर्क. जब तक दुनिया तर्क की तपस्या में से नहीं गुजरेगी, नहीं बदलेगी.

बहुत पहले मैने 'लैंडमार्क फोरम' अटेंड किया था. सिक्ख थे, कोई चालीस एक साल के जो वर्कशॉप दे रहे थे. एक जगह उन्होंने लीडर की परिभाषा देने को कहा. अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग परिभाषा दी. उन्होंने जो परिभाषा फाइनल की वो थी, "लीडर वो है जो बहुत से लीडर पैदा करे."

तब मैं सोच रहा था कि लीडर चाहे और लीडर पैदा करेगा लेकिन फिर भी कोई लोग तो फोलोवर ही रहेंगे. क्या बढ़िया हो कि कोई लीडर और कोई फोलोवर ही न रहे! या यूँ कहें कि हर कोई अपना ही लीडर हो, क्यूँ किसी और को कोई फॉलो करे?

आज मेरा मानना है कि यह सोचना तो सही है लेकिन जिस तरह की दुनिया है, उस स्थिति तक दुनिया को ले जाने में जहाँ हर कोई खुद को लीड कर सके, ढेर सारे लीडरों की ज़रूरत होगी.

तो मेरा नतीजा यह है कि लीडर वो है, जो बहुत से लीडर पैदा करे. ऐसे लीडर जो इस तरह की दुनिया बनाने में मददगार हों जहाँ सब अपनी अक्ल से खुद को लीड कर सकें.

पोलटिकल लीडरों से कोई मतलब नहीं चूँकि ये लोग मेरी लीडर की परिभाषा में नहीं आते.

लेकिन लीडर की इस परिभाषा पर  ओशो को खरा नहीं उतरता देखा मैं.

मैंने लिखा कि ओशो के साथ दुनिया में क्रांति घटित होते-होते रह गई. आज दुनिया ओशो के समय से बदतर है. और ओशो के पैरोकारों में एक ने भी कोई तीर  नहीं मारा, कद्दू में भी नहीं. विनोद खन्ना उनके बाद राजनीति में आए और फिल्मों में भी. दोनों जगह कुछ नहीं कर पाए. उनसे तो बेहतर केजरीवाल जैसे लोग हैं, सही-गलत अपनी जगह लेकिन राजनीति में हलचल तो मचाये हैं. विनोद खन्ना के पास इन सब से बड़ी पहचान थी, पैठ थी लेकिन सब फुस्स.

एक हैं स्वामी अगेह भारती. वो बस यही लिखते रहते हैं कि वो कब-कब ओशो के साथ थे. किताबें लिख दीं उन्होंने बस यही सब बताने हेतु. जिसे बहुत रुचि हो कहानियाँ पढ़ने में, पढ़ सकता है उनको. लेकिन क्या हल है इससे?

पूना वाले शिष्य और दिल्ली के शिष्य आपस में कॉपी-राईट मुद्दे पर ही उलझते रहे हैं वर्षों तक. इसलिए कि ओशो के वृहत साहित्य का कोई इकलौता वारिस है या नहीं.

यहाँ फेसबुक पर अपने नामों के पीछे ओशो का दुमछल्ला लगाए अनेक मिल जायेंगे. अपनी छोड़ ओशो की फोटो लगाए घूम रहे हैं. जो ओशो कहते रहे कि ओरिजिनल बनो, कॉपी मत बनो, उनके शिष्य. 

लेकिन उसमें भी ओशो का ही दोष है, वही तो लोगों को सन्यास देते थे, नाम बदलते थे, चोगा देते थे, शुरू में अपनी फोटो की माला देते थे. जानते हुए कि लोग बड़ी जल्दी गुलाम बन जाते हैं. 

आज उनके शिष्य आगे सन्यास देते हैं. सब व्यर्थ. सब राख़. एक में भी आग नहीं.
वैसे ही लोग आगे कहते फिरते हैं, "ओशो न भूतो, न भविष्यति."

पीछे मैं लगातार ओशो के विचारों उनके कर्मों का विरोध कर रहा था, तो  फेसबुक पर मौजूद उनके चेले-चांटों में और किसी भी और धर्म को मानने वाले धर्मान्धों में रत्ती भर फर्क नहीं पाया. कोई हंस रहा था बेमतलब, कोई रो रहा था. कोई कह रहा था कि मुझे हक़ ही क्या था ओशो पर टिप्पणी करने का. एक से एक बकवास कमेंट. वैसे ही लोग आगे कहते फिरते हैं, "ओशो न भूतो, न भविष्यति."

"न भूतो, न भविष्यति" किसी के लिए भी कहना सही नहीं है....जैसे मुस्लिम कहते हैं कि मोहम्मद आखिरी पैगम्बर हो गए, सिक्ख कहते हैं कि गुरु दस हो गए तो बस. आगे कुरआन और आगे गुरु ग्रन्थ, बस. लेकिन यह सब सोच अनर्गल है...आगे न दुनिया रूकती है और न ही नए लोगों का आना, ऐसे लोग जो बेशकीमती होते हैं. और भूतकाल में भी हर कीमती व्यक्ति ने अपना भरपूर योगदान दिया है. नानक साहेब अपने समय पैदल चल-चल कर दुनिया भर में संदेश फैलाते रहे. आज कोई विमान से उड़-उड़ कर यही काम करता हो सकता है. कीमती लोग. गोबिंद सिंह साहेब तक आते आते हथियार उठा लिए गए. कुर्बानियां दीं गईं. कीमती लोग. 'न भूतो, न भविष्यति' वाली कोई बात नहीं. सब एक से एक कीमती. बेशकीमती.

साहिर लुधियानवी ने लिखा है.

"मै पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी है 
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है

मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गये
कुछ आहें भरकर लौट गये, कुछ नगमें गाकर चले गये
वो भी इक पल का किस्सा थे, मै भी इक पल का किस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा, जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ

कल और आयेंगे नगमों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले"

यह है जीवन की हकीकत....न कि "न भूतो, न भविष्यति".
किसी के लिए भी नहीं.

भविष्य अगर हमसे बेहतर नहीं होगा, तो उसे भविष्य कहलाने का हक नहीं होगा. उसे भविष्य कह कर भविष्य के साथ ना-इंसाफी न कीजिये.

नमन ..तुषार कॉस्मिक

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