कहानी सुनी-पढ़ी होगी आपने कि एक राजा और मंत्री शिकार खेलते हुए चोट-ग्रस्त हो जाते हैं. राजा बड़ा परेशान हो जाता है. लेकिन मंत्री कहता है, जो होता है ईश्वर भले के लिए करता है. फिर उन्हें आदिवासी पकड़ लेते हैं और बलि देने लगते हैं. तो राजा बड़ा परेशान होता है. मंत्री फिर भी शांत रहता है. धीमी आवाज़ में राजा को कहता है, जो करता है ईश्वर अच्छा ही करता है. राजा परेशान. आग तेज़ की जा रही है, बस भूने ही जाने वाले हैं वो दोनों और मंत्री को सब सही लग रहा है? भूने जाने से पहले दोनों के कपड़े उतारे जाते हैं तो दोनों चोटिल दीखते हैं. दोनों को छोड़ दिया जाता है, चूँकि घायल व्यक्ति को बली न देने की परम्परा थी उन आदिवासियों की. घर को लौटते हुए मंत्री कहता है राजा से, " राजा साहेब, मैं न कहता था, ईश्वर जो करता है सही ही करता है." राजा सहमति में सर हिलाता है.
लेकिन मेरा सर असहमति में हिल रहा है. मेरा मानना है कि इन्सान तक आते-आते वो अल्लाह, वाहेगुर, राम अपना दखल छोड़ देता है.
इन्सान को उसने अक्ल दी है, अपने क्रिया-कलापों की फ्रीडम दी है.
और फिर इन्सान ने अक्ल लगाते हुए उस फ्रीडम को बढ़ाया है. आज बहुत से काम जो सिर्फ रब, अल्लाह, भगवान के हाथ में माने जाते थे, उनको इन्सान ने अपने हाथ में ले लिया है.
उस फ्रीडम को समझना चाहिए. पशु शब्द पाश से आता है, उसके पास वो फ्रीडम नहीं है. वो पाश में है. बंधन में है. पशु है. इन्सान के पास वो फ्रीडम है.
उस फ्रीडम को पहचानें. पशु मत बनें.
यह सोच, "होय वही जो राम रची राखा. जो तुध भावे साईं भलीकार. तेरा भाना मीठा लागे. जो होता है अल्लाह की रजा में होता है" पशुत्व की और ले जाती है.
जैसे उस अल्लाह ने पंछी उड़ाए, इन्सान तो नहीं उड़ाया लेकिन इन्सान को अक्ल की आज़ादी दी और इन्सान उड़ने लगा.
और वो अल्लाह, भगवान, रब अब कहीं कोई दखल ही नहीं देता कि इन्सान करता क्या है. जैसे कोई चेस का खेल बना दे, नियम बना दे और फिर पीछे हट जाये. खेलने वाले खेलते हैं, खेल बनाने वाला कोई हर मूव में पंगे थोड़ा न ले रहा है. जो कोई हारेगा-जीतेगा अपनी अक्ल से, अपने प्रयास से.
सो "भाना" उसका खेल बनाने तक था, "रज़ा" उसकी खेल बनाने तक थी, "रचना" उसकी खेल रचने तक थी, उसके आगे नहीं कोई दखल नहीं. उसके आगे जो होता है, वो उसके दखल के बिना होता है.
हमें उसका दखल इसलिए लगता है कि हमें पता नहीं होता कि उसके खेल के गहन नियम क्या हैं. जैसे परबत खिसकते हैं, बहुत से लोग मारे जाते हैं, लग सकता है कि कुदरती आपदा है, अल्लाह की मार है, लेकिन वो इंसानी कुकर्मों का नतीजा भी हो सकती है. इन्सान नहीं समझता तो कोई क्या करे? वो उस अल्लाह के नियम नहीं समझना चाहता, वो नहीं समझना चाहता कि अल्लाह ने पहाड़ दुर्गम क्यों बनाए? अगर वो चाहता कि इन्सान वहां रहे, बस्तियां बसाए, लगातार बसें चलाए, तो वो उन्हें सुगम न बनाता?
मिसाल के लिए, किसी का जवान बेटा एयर एक्सीडेंट में मारा जाए और गलती बेस स्टाफ की हो, तो हो सकता है उसे यह रब की रज़ा लगे, भाना लगे, राम की रचना लगे लेकिन यह एक इंसानी गलती थी, जिसे भविष्य में बहुत हद तक कण्ट्रोल किया जा सकता है.
अब कल कोई उल्का पिंड आ कर टकरा जाए और पृथ्वी का कोई बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाए, तो आप इसे क्या कहेंगे? रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना. कह सकते हैं, तब तक जब तक हमारे वैज्ञानिक ऐसी उल्काओं को रस्ते में नष्ट करने में सक्षम न हो जाएँ.
सो कुल मतलब यह कि यह, "रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना, राम की रचना" का कांसेप्ट मात्र इन्सान को शांत किये रखने का टूल है, इससे ज़्यादा इसका कोई अर्थ नहीं है.
नमन....तुषार कॉस्मिक
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