सबसे ज्यादा छित्तर इन्सान खुद को मारता रहता है.
ज़रा गलती हो जाये, खुद को कचोटता रहता है.
अच्छे काम पर खुद को शाबाशी भी देनी चाहिए.
हाँ, लेकिन न्यूट्रल नज़र बहुत ज़रूरी है, खुद के प्रति भी और यहीं सब नाप-तोल गड़बड़ा जाता है.
तकड़ी का काँटा कहीं भी एक्सट्रीम पकड़ लेता है.
या तो खुद को हम आसमान पर चढ़ा लेते हैं या फिर खड्ड में गिरा लेते हैं.
बैलेंस बना ही नहीं पाते चूँकि हमारी नजरों पर हज़ार-हज़ार पर्दे हैं बेवकूफियों के.
खैर, अल्लाह-ताला नाम का ताला खुल जाए सबसे ज़रूरी तो यही है.
हो नहीं पाता अक्सर. अधिकांश इन्सान इत्ते खुश-किस्मत नहीं होते. अंधेरों में पैदा होना, अंधेरों में जीना और अंधेरों में ही मरना, यही नियति है अधिकांश जन की.
No comments:
Post a Comment