कुहू (मेरी छोटी बेटी) 5.5 साल की है. सारा दिन घर में मोहल्ले की हम-उम्र लड़कियों का जमघट रहता है.
परसों कुहू ममी के साथ कहीं गई थी. माही (कुहू की फ्रेंड) मुझे कहने आई, "अंकल, कुहू को कहना कि माही छः बजे खेलने आयेगी." मतलब एडवांस बुकिंग.
कितनी निराली है इन बच्चों की दुनिया! बार्बियाँ. ढेरों खिलौने. इनकी माँएँ कभी झल्लाती हैं, "इनका खेल ही नहीं खत्म होता." "पेट नहीं भरता इनका खेल-खेल."
अभी-अभी गिन्नी (कुहू की एक और फ्रेंड) की ममी आईं, "गिन्नी...तुझे अगर ममी न बुलाये तो तू तो कभी घर ही नहीं आयेगी. "
कोई माँ बन जाएगी, कोई बच्चा, कोई टीचर, कोई स्टूडेंट. सारा दिन कुछ-न-कुछ करती रहती हैं.
मैंने कुहू को बोल रखा है, "बेटा, थोड़ी-थोड़ी देर में ममी, पापा और सूफी (कुहू की बड़ी बहन) को हग्गी और किस्सी ज़रूर करना है, उससे हमारी एनर्जी बनी रहती है." वो करती भी है.
मेरे पास अगर कमाने का झंझट न हो तो मैं कुहू की दुनिया का हिस्सा बना रहूँ. इन सब बच्चों को खेलते हुए देख-देख निहाल होता रहूँ.
थोड़ा तो सौभग्यशाली हूँ. जो समझता हूँ कुछ चीज़ें. वरना तो लोग बस बच्चे पैदा करते हैं. उनको पता ही नहीं लगता कि बच्चा बड़ा कब हो गया. बच्चे के जीवन का वो कभी भी हिस्सा नहीं बनते. बचपने को बचकाना समझने की भूल करते हैं.
मुझे लगता है कि बच्चे का जीवन भरपूर है जीवन से. वरना हम तो बस जीते हैं मरी-मराई ज़िन्दगी.
थोड़ा सा किस्मत वाला हूँ. कुहू के खेलों का हिस्सा हूँ. .
नमन....तुषार कॉस्मिक
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