आज थोड़ा गीत-संगीत

੧. किशोर दा की सिंगिंग में मुझे रफी साहेब के मुकाबले ज़्यादा रेंज लगती है. आवाज़ में ज़्यादा खुलापन. २. लता बहुत ज्यादा परफेक्ट गाती थीं, ऐसे लगता था जैसे उनकी आवाज़ किसी परफेक्ट मशीन में से आ रही हो. मुझे आशा उनसे बेहतर लगीं. आवाज़ में थोड़ा नमकीन-पन. लता बहुत ज्यादा मीठीं. डायबिटीज हो जाये. ३. जगजीत सिंह कभी खास नहीं लगे. उनके जैसा गाना मुझे लगा थोड़े प्रयास से कोई भी गा दे. ४. नुसरत फ़तेह अली साहेब. वाह. लेकिन उनके गानों में दोहराव महसूस होता था. और उनके आखिरी दिनों में उनकी आवाज़ ज़्यादा गाने की वजह से या शायद किसी और वजह से फटने लगी थी. ५. उषा उत्थूप ने साबित किया है कि मीठी और सुरीली आवाज़ ही ज़रूरी है गाने के लिए, यह सरासर गलत है. उनकी आवाज़ मरदाना किस्म की है. लेकिन पसंद किया जाता है उनको. ७. और आज के गानों के न बोल अच्छे हैं न संगीत. और उसकी वजह यह है कि लोग सब तुचिए हो गए हैं. न उनमें गाने की समझ है, न संगीत की. मतलब समझना तो उनके बस की बात ही नहीं. बस कूदना है. उसके लिए बिना बोल के संगीत प्रयोग किया करो बे, ये भद्दे-भद्दे बोल वाले गाने क्यों? ७. बाकी मैंने एक लेख लिखा था, अंग्रेज़ी में. लिंक दे रहा हूँ. पढ़ लेना अगर अंग्रेज़ी से परहेज़ न बता रखा हो डॉक्टर ने तो. ८. नमन....तुषार कॉस्मिक.

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