Thursday, 8 June 2017

किसान की समस्याएं और हल

भारत कृषि प्रधान मुल्क है. ज़रा शहर से बाहर निकलो, खेत ही खेत.फिर किसान बेहाल क्यूँ हैं और समाधान क्या है? मैं कोई कृषि विशेषज्ञ नहीं हूँ, फिर भी कुछ सुझाव हैं, शायद काम के हों:-- 1. ज़मींदार तो राजा था. लेकिन मजदूर बेहाल था. तो ज़मीदारी प्रथा खत्म करने के लिए ज़मींदारी अबोलिश्मेंट एक्ट लाया गया. इससे खेतीहर को लगभग मालिकाना हक़ मिल गए ज़मीन के. अच्छा कदम था. लेकिन फिर किसान ने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि वो ज़मीन किसी का पेट भरने को नाकामयाब हो गयी. तो एक तो हल यह है कि अब आगे किसान बच्चे कम पैदा करे. लेकिन क्या सिर्फ किसान ही ऐसा करे? तो जवाब है नहीं.सबको ही जनसंख्या घटानी चाहिए. चूँकि गरीब जनता को फिर से कम कीमत पर अनाज देना सरकार की मज़बूरी बन जाती है और जिसमें किसान पिसता है. 2. किसानों को आधुनिकतम ट्रेनिंग दी जाये. और फसल वो उगायें जिसको निर्यात भी किया जा सके. मिसाल के लिए आयुर्वेदिक दवा उगा सकते हैं. 3. घरेलू खपत में किसान को उसकी फसल का ज़्यादा से ज़्यादा फायदा मिल सके इसके लिए हो सके तो आढ़ती सिस्टम खत्म किया जाए. बिचौलिए ही सब खा जायेंगे तो किसान को क्या मिलेगा? हो सके तो किसान खुद मंडी में डायरेक्ट बेचें. कैसे बेचें इसका सिस्टम खड़ा किया जा सकता है, इसकी भी ट्रेनिंग किसान को दी जा सकती है. 4. यातायात के सिस्टम सही किये जाएँ ताकि फसल खराब होने से पहले ही भूखे पेटों में पहुँच सके, गोदामों में न सड़ जाये, रस्तों में ही न अड़ जाए. 5. बाकी किसान को मुआवजा आदि दिया जा सकता है अगर बहुत त्रासदी हो तो, लेकिन यह कोई स्थायी समाधान है नहीं. दो और लेख हैं मेरे इस विषय से सम्बन्धित, पेश हैं:------- 1. " किसान को मौसम की मार, कारण और सम्भावित निवारण " मुआवजा दे तो सकते हैं, कर्जा माफ़ कर तो सकते हैं ...लेकिन यह भी तो समाज पर बोझ ही होगा, सामाजिक असंतुलन पैदा करेगा. यह ज़रूरी तो है लेकिन क्या यह कोई हल है? किसान की ऐसी हालात इस बारिश की वजह से नहीं हुआ है, उसकी वजह यह है कि जनसंख्या के बढ़ने से ज़मीन टुकड़ों में बंटती चली गयी, और बंटते बंटते वो इतनी कम रह गयी कि अब वो किसी एक परिवार के पेट पालने लायक भी नहीं रही, आज अगर एक किसान परिवार के पास पहले जैसा बड़ा टुकड़ा हो ज़मीन का, तो उसकी कमाई से ही वो अपना वर्तमान और भविष्य सब संवार लेगा खेती तो है ही कुदरत पर निर्भर, वो कभी भी खराब हो सकती है सो यदि किसान होगा पूरा-सूरा तो निश्चित ही कुदरत की मार उसकी कमर तोड़ देगी, लेकिन यदि वो मज़बूत होगा तो निश्चित ही इस तरह की बारिशें तो उस पर कभी कहर बन कर न टूट सकेंगी........ सो मेरे ख्याल से मुआवजा फ़ौरी हल तो हो सकता है लेकिन इससे कोई मुद्दा हल नहीं होगा .....आज आप बचा लो किसान, कल वो और बच्चे पैदा करेगा, फिर उनकी दिक्कतें बढ़ती जायेंगी.......आप कब तक मुआवजें देते रहेंगे और मुआवज़े कोई आसमान से तो गिरते नहीं.....वो भी समाज का पैसा है.......समाज का एक हिस्सा दूसरे हिस्से को कब तक पाले, क्यों पाले? सो हल तो निश्चित ही कुछ और हैं कहीं पढ़ा था कि विज्ञान की मदद से बारिश पर नियंत्रण किया जाए. बेमौसम बारिश का इलाज होना चाहिए लेकिन ऐसी बारिश हुई क्यों? चूँकि हमने कुदरत की ऐसी तैसी कर रखी है मुझे लगता है विज्ञान की मदद से हम जो जनसंख्या बढ़ा लेते हैं, प्रकृति अपने प्रकोप से घटा देती हैं ये बाढ़, बेमौसम बरसात, भूकम्प सब उसी का नतीजा है ... हर जगह हमने अपनी जनसंख्या का दबाव बना रखा है कुदरत बैलेंस नहीं करेगी? विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल प्रकृति चक्र को और खराब कर सकता है यह देखना बहुत ज़रूरी है सो पहले विज्ञान का उपयोग यह जानने को करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या वजह हमारा प्रकृति का अनाप शनाप दोहन तो नहीं? मेरे ख्याल से है. विज्ञान के उत्थान के साथ साथ मानव प्रकृति को बड़ी तेज़ी से चूस रहा है बजाए विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल के, मानव की संख्या और गुणवत्ता पर कण्ट्रोल ज़रूरी है, अन्यथा यह सब तो चलता ही रहेगा, एक जगह से रोकेंगे, दूसरी जगह से प्रकृति फूटेगी......जैसे बहुत तेज़ पानी के बहाव को एक छेद से रोको तो दूसरी जगह से फूट निकलता है हमें विज्ञान से यह जानने में मदद लेनी चाहिए कि किस इलाके में कितने मानव बिना कुदरत पर बोझ बने रह सकते हैं, किस इलाके में कितने वाहन से ज़्यादा नहीं होने चाहिए, किस जगह कितनी फैक्ट्री से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, किस पहाड़ पर कितने लोगों से ज़्यादा यात्री नहीं जाने चाहिए. जब हम इस तरह से जीने लगें तो निश्चित ही कुदरत के चक्र अपनी जगह आ जायेंगे अभी हम कहाँ सुनते हैं कुदरत की या विज्ञान की?......सो भुगत रहें हैं ये सब चलता रहेगा, किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं जैसे बचपन में खेलते ......बैठते थे गोल चक्कर बना, पीछे से दौड़ते दौड़ते लड़का मुक्का मरता था, "कोकला छपाकी जुम्मे रात आई है, जेहड़ा मुड़ के पिच्छे देखे उसदी शामत आई है" किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं आज किसान की फसल बारिश से मर रही है, कल कश्मीरी बाढ़ से मर रहा था, परसों केदारनाथ के पहाड़ खिसक गए थे......बचा लो, मुआवज़े दे दो, राहतें दे दो ..अच्छी बात है.....वाहवाही मिलेगी लेकिन समस्या के असल हल तक कोई क्यों जाए? उस तरफ तो सिवा गाली के कुछ नहीं मिलने वाला....वोट या नोट तो दूर की बात हल तो समाज के ढाँचे में आमूल चूल परिवर्तन हैं, और समाज को समझना चाहिए कि उसकी समस्याओं के निवारण के लिए कोई सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं.....ज़िम्मेदार समाज खुद है, समाज की सोच समझ है, सामाजिक व्यवस्था है....... लेकिन यह सब समाज यूँ ही तो समझेगा नहीं....समझाने के लिए भी कोई संगठन चाहिए, जो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा, आपको दिख रहा हो तो ज़रूर बताएं 2. "भूमि अधिग्रहण कानून का ग्रहण" अभी अभी आज़ादी दिवस मना के हटा है मुल्क.....आपको पता हो न हो शायद कि आजादी के साथ अंग्रेज़ों के जमाने के बनाये कानून भी दुबारा देखने की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं देखे, नहीं बदले ...इतने उल्लू के पट्ठे थे हमारे नेता.....बेवकूफ, जाहिल, काहिल, बे-ईमान.....सब के सब.....सबूत देता हूँ....सन 1894 का कानून था जमीन अधिग्रहण का......अँगरेज़ को जब जरूरत हो, जितनी ज़रुरत हो वो किसान से उसकी ज़मीन छीन लेता था...कोई मुआवज़ा नहीं, कोई ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं, कोई बदले में रोज़गार व्यवस्था नहीं...भाड़ में जाओ तुम. आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया. पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. इक्का दुक्का मिसालों को छोड़, हमारी सरकारों ने इस भूमि अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया. कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई कि तौबा तौबा. आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता. मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो. पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले प्रयोग हुई भी लेकिन अब प्रयोग नहीं हो रही या निकट भविष्य में प्रयोग नहीं होनी है तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है. दूसरी बात यह कि जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए. तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से. जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए. नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं, वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने शयनकक्ष में, शायद नींद न आये. लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए. इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए. तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और? लेकिन यह सब कौन समझाए? विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी सरकार आयेगी तो रोज़गार पैदा होगा, विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा. लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही हाल रहा तो, सिवा झुनझुने के. देखते रहिये मेरे साथ. नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर सकते हैं

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