Friday, 16 June 2017

वकील मित्रों के चैम्बर में था....खाकी लिफाफे लीगल नोटिस भेजने को तैयार किये जा रहे थे......डाक टिकेट लगाये जा रहे थे... उचक कर देखा मैंने. टिकेट पर एक चेहरा था, नाम लिखा था 'श्रीलाल शुक्ल'.
मैं उत्साहित हो कर बोला, "मैडम, आपको पता है ये कौन हैं?"
"नहीं."
"मैडम, ये हिंदी के बड़े लेखक हैं श्रीलाल शुक्ल...इनकी कृति है 'राग दरबारी'. महान कृति मानी जाती है."
उनका ध्यान अपने काम में चला गया और मैं खुश होता रहा मन ही मन. कितना अच्छा है कि लेखक और वो भी हिंदी के लेखक को सम्मान दिया गया. क्या हम मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, नानक सिंह आदि को बच्चों तक पहुंचा पायेंगे? क्या हम अपने पेंटर, मूर्तिकार, नाटक-कार को कभी सम्मान देंगे? मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
ध्यान आया कि गायकों को हम जो आज सर आँखों पर बिठाते हैं, हमेशा ऐसा नहीं था. गाना-बजाना बहुत हल्का पेशा समझा जाता था. मिरासियों का काम. पंजाब के ज़्यादातर गायक जो पचीस तीस साल पीछे के हैं, वो हल्के समझे जाने वाले समाज से आते थे. फिर समाज पलटा, गाने को वो स्थान मिला कि आज जो नहीं है गायक, वो भी गायक बने जा रहा है. मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
काश लेखकों, गायकों, कहानीकारों, गीतकारों, मूर्तिकारों, चित्रकारों, वैज्ञानिकों के नाम डाक टिकटों पर नहीं, लोगों के ज़ेहनों में अंकित हों! काश!!
मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.

No comments:

Post a Comment