१. उम्र और अनुभव माने रखता है, लेकिन हमेशा नहीं.
एक कम उम्र शख्श भी सही हो सकता है. और एक कम अनुभवी व्यक्ति भी गहन सोच सकता है, कह सकता है.
एक बेवकूफ को बेवकूफात्मक अनुभव ही तो होंगे, वो चाहे कितने ही ज़्यादा हों.
२. व्यक्ति को न तो बहुत संतोष होना चाहिए और न ही बहुत असंतोष. बहुत संतोषी व्यक्ति कभी आगे नहीं बढ़ पाता जीवन में और बहुत असंतोषी व्यक्ति खुद को पागल कर लेता है, बीमार कर लेता है. एक संतुलन चाहिए संतोष और असंतोष में. यही जीवन का ढंग है. सन्तोषी माता फिल्म मात्र बेवकूफ बनाये रखने के लिए बनाई गई थी.
३. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना.
आलोचना निंदा नहीं है.
और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है.
और जब नज़र बंध गई तो फिर वो नज़रिया आज़ाद कैसे हुआ?
खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमती दिखानी हो वहां सहमति दिखाई जाए.
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