मैं तो आज ही कह रहा था वी.....तीस हजारी कोर्ट अपने वकील मित्रों के चैम्बर में बैठा था तो, "मेरा बस चला कभी तो बठिंडा वापिस जा बसूँगा..... बच्चे जाएँ, जहाँ जाना हो, जापान, कनाडा....मैं तो दिल्ली से ही आजिज़ आ चुका, आगे कहाँ जाऊँगा? वापिस जाऊँगा बठिंडा...और हो सका तो वहां भी शहर नहीं, किसी साथ लगती बस्ती में."
मुझे पता है दुनिया आगे बढ़ती है....पीछे लौट ही नहीं सकती...और मैं भी नहीं लौट पाऊँगा. जानता हूँ कि कभी हो नहीं पायेगा...... लेकिन क्या करूं? मुझे तो नहीं भाता महानगर.
कुछ यही बात मेरी भाषा पर भी लागू होती....मेरी अधिवक्ता कहती हैं कि मेरी हिंदी भाषा बहुत अच्छी है, अंग्रेज़ी भी ठीक ही है....लेकिन मुझ पर तो पंजाबी हावी है आज तक...वो भी मालवा वाली.....पेंडू टाइप.....गंवारू ....मुझे Iqbal Singh Shahi ने फोन किया था कुछ दिन पहले और दोनों ठेठ पंजाबी बोल रहे थे.........वारिस शाह न आदता जान्दियाँ ने, भावें कटटीए पोरियाँ पोरियाँ जी.....वादडीयां सज्जादडीयां निभन सिरा दे नाल.
अपुन ठहरे बैकवर्ड लोग. थोड़ा झेल लीजिये बस.
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