Sunday, 25 June 2017

हमारी लखनऊ यात्रा

एक ऑफर था विवादित सम्पत्ति का, सो जाना हो गया. जाना अकेले ही था. टिकेट भी अकेले की बुक कर चुका था, लेकिन फिर लगा कि छुट्टियाँ हैं ही बच्चों की, तो साथ ले चलता हूँ. श्रीमति जी विरोध कर रही थीं कि गर्मी है, मात्र दो दिन का स्टे है वहां, इतने के लिए बच्चों को क्या ले जाना. मैंने जिद्द की. कहा कि चलो एक से भले दो. जिस डील के लिए जाना है, वहां उनकी भी राय शामिल हो जाती, फिर सपरिवार गए बंदे को निश्चित ही ज़्यादा क्रेडिबिलिटी मिलती है. खैर, अब उनकी टिकेट भी बुक कर दीं. जाने से मात्र तीन दिन पहले सब तय हुआ तो कोई ढंग की बुकिंग नहीं मिली. सब तरफ लम्बी वेटिंग लिस्ट थी. बुकिंग मिली गोमती एक्सप्रेस की. कैब लेकर नई दिल्ली स्टेशन तक पहुंचे. श्रीमति जी को कहा था कि कम से कम एक घंटा पहले पहुँच जाएं, इस हिसाब से घर से निकला जाए. वहां वेट कर लेंगे, लेकिन ट्रेन मिस नहीं होनी चाहिए. बावज़ूद इसके, मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे और हम पहाड़-गंज तक ही पहुँच पाए थे. मैं लड़ने लगा. श्रीमति घबरा गईं, लेकिन जैसे-तैसे हम नई दिल्ली स्टेशन तक पहुँच ही गए टाइम से पहले. फटाफट उतरे कैब से. सामान खुद उठाया सबने और भागे. प्लेटफार्म नम्बर कुली से पता किया और भागते-भागते ट्रेन तक पहुँच ही गए. हमारी सीट पर पहले ही एक अंकल-आंटी विराजमान थे. उठने को राज़ी न हों और मैं कैसे छोड़ दूं सीट? लम्बा सफर, साथ में बच्चे. गरज पड़ा. सीट छोड़नी पड़ी उनको. खैर, किन्ही और दरिया-दिल लोगों ने उनको एडजस्ट किया. ऐसे दरिया-दिल खुद ज्यादातर बिना रिजर्वेशन वाले होते हैं.शायद बिना टिकट वाले भी. ट्रेन राईट टाइम थी. बैठते ही चल पड़ी. अब यह जो सफर था, बहुत ही सफरिंग साबित हुआ. बदबू थी, गर्मी थी. रिजर्वेशन को धत्ता बताती भीड़ थी. भारतीय रेल की बेहतरीन मिसाल थी. ट्रेन सिर्फ ट्रेन नहीं होती, एक बाज़ार भी होती है, जहाँ हर थोड़ी देर बाद चने, मूंगफली, नकली बोतलबंद पानी, पानी जैसी चाय, दुआ-प्रार्थना बेचने वाले गुजरते हैं. रेला-मेला लगा रहता है. एक आता है, दूसरा जाता है.वाह! जीवन का सत्य. एक आता है, दूसरा जाता है. आना-जाना लगा रहता है इन्सान का. "आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है, आते जाते रस्ते में, यादें छोड़ जाता है." गूगल कीजिये, यह गाना आपको मिल जाएगा. प्रभु, सुरेश प्रभु जी की कृपा से हम पहुँच ही गए लखनऊ. फॅमिली को छोड़ा स्टेशन पर और खुद निकला होटल ढूँढने. मुझे पहले से ही काफी तजुर्बा है इस सबका. कभी फॅमिली को साथ लिए-लिए नहीं डोलना चाहिए होटल लेना हो तो. यह कुछ मेहनत का काम साबित हो सकता है. बाहर निकलते ही एक रिक्शा वाले से रस्ता पूछा होटलों का. उसने कहा कि वो छोड़ देगा. मैंने कहा कि मैं सिर्फ रास्ता पूछ रहा हूँ. उसने कहा कि मात्र दस रुपये लेगा और छोड़ देगा. मैंने कहा कि ठीक है, लेकिन मैं कहीं भी उसे साथ नहीं लेकर जाऊंगा होटल में, होटल के बाहर भी नहीं रुकने दूंगा, पचास कदम दूर छोडूंगा और फिर देखने जाऊंगा खुद. उसने मुंह बना लिया. अब लगा रस्ता बताने सड़ कर. मैंने कहा कि मैं तो पहले ही रास्ता ही पूछ रहा था. कुछ कदम चला, एक और रिक्शा वाले से रास्ता पूछा तो उसने भी पहुँचाने की सेवा हाज़िर की, मात्र दस रुपये में. मैं बैठ गया. पहले होटल पहुंचा तो मैंने कहा रिक्शा वाले को कि दूर रहना. अंदर गया. मामला नहीं जमा. वापिस आ कर देखा तो रिक्शा वाला गेट पर खड़ा था. मैंने उसे कहा कि मना किया था कि साथ नहीं आना. खैर अगले होटल को ले गया वो. अब मैंने सख्ती से कहा कि मेरे साथ नहीं आना, हाँ, दस रुपये से ज़्यादा दूंगा अगर मैंने लिया कोई कमरा तो. वो मुंह सा बनाता रहा. मैं गया और लौट आया. लेकिन अब रिक्शा वाला समझ चुका था कि दाल नहीं गलने वाली, कमीशन नहीं मिलने वाली. गुस्से में बोला कि मेरे पैसे दे दो. मैंने दस रुपये दे दिए. वो उड़ता बना और मैं चलता बना. मेरे बला से. भाड़ में जा. चार-पांच होटल देखने के बाद ‘होटल मिडास’ फाइनल हो गया. सब्ज मंडी, चार बाग़. AC कमरा. तीन दिन के लिए. वैसे ही कमरे के पीछे दोगुने पैसे मांग रहे थे. फॅमिली ले आया. थके थे. करीब रात बारह बज चुके थे. फिर भी हाथ-मुंह धो घूमने निकले. नीचे बाज़ार लगभग बंद थी. इक्का-दुक्का दूकान खुली. थोड़ा खा-पी के वापिस. जिनके साथ प्रॉपर्टी डील की मीटिंग थी उनको अगली सुबह नौ बजे का समय दे दिया था. वो साढ़े नौ बजे तक आये. हम सब तैयार हो पहले ही रिसेप्शन पर मौजूद थे. तकरीबन आधा घंटा लगे रहे कि ओला-उबेर की कोई कैब आ जाए. बुक तो हो गई, लेकिन पहुँची कोई भी नहीं. आखिर मेरे अकेले का ही उनके साथ जाना तय हुआ उनके साथ. उनके पास एक कार तो थी ही, जिसमें एक सीट उन्होंने मेरे लिए पहले ही रख़ छोड़ी थी. वो लोग पहले मुझे प्रॉपर्टी दिखाने ले गए. दोतरफा चलते मेन रोड़ की ज़मीन, कोई तीन हज़ार गज से ज़्यादा. लोकेशन और साइज़ के मुताबिक मुझे मामला जम गया. वहीं पास में कोर्ट था. कोर्ट-रूम पुरानी किताबों में से निकला लग रहा था. AC छोड़ो, कूलर तक नहीं था वहां. कोई तीस फीट ऊँची छत से ये लम्बे पाइप के सहारे लटके बाबा आदम के जमाने के पंखे अपनी कानूनी ड्यूटी निभा रहे थे जैसे-तैसे. कोर्ट ‘रूम’ क्या था, किसी खेल का मैदान था. खूब बड़ा. एक तरफ लकड़ी का बड़ा सा कटघरा बना था, जिसमें कई कैदी ज़मीन पर बैठे थे. छत से ईंटे झांक रहीं थी. जज साहेब के लिए बने चबूतरे का पलस्तर जाने कब का झड़ चुका था. रोशनी के लिए जज साहेब के सर एक तरफ नई पीढ़ी का LED बल्ब लटका था, तो दूसरी तरफ पुरातन पीढ़ी का पीला लट्टू. नए-पुराने का समन्वय बना रखा था. पूरा माहौल मायूस था. मुझे लगा कि जैसे दिल्ली में दस बजे कोर्ट शुरू होते हैं, वैसा ही वहां भी होगा, लेकिन बारह बजे तक भी जज साहेब सीट पर नहीं थे. शायद एक दौर चल चुका हो. पता नहीं लेकिन. फिर कुछ ही समय में वकील लोग उनके टेबल के सामने जमा होने लगे. “साहेब आ रहे हैं”, कर्मचारी चिल्लाया. सब खड़े हुए. फिर साहेब के बैठते ही बैठ गए. “जज की न सही, कानून की इज्ज़त कर लो भाई” डायलॉग याद आ गया ‘जॉली एल-एल-बी’ फिल्म का. अगर उठक-बैठक लगाने से इज्ज़त होती है, तो यहाँ इज्ज़त थी. मेरे वाली पार्टी का नम्बर आया, लेकिन फिर लंच बाद पर चला गया. वो लोग मुझे कोर्ट रूम से बाहर ले आये. किसी पूड़ी-छोले वाले की दुकान पे. अभी बैठे भी नहीं थे कि धम्म से चार पूड़ी, छोले, अचार और प्याज़ पटक दिया गया. गर्मी में गर्म-गर्म खाना. खाना तो नहीं था, लेकिन सोचने का मौका भी नहीं मिला, खाना पड़ा. क्वालिटी में कोई कमी नहीं थी. मैं हैरान रह गया कि वो मात्र बीस रुपये में ये सब कैसे दे रहे थे! लेकिन खूब बिक रहा था तो सूट करता होगा इस भाव बेचना. वापिस कोर्ट रूम पहुंचे. साहेब फिर से आये. फिर से उठक-बैठक हुई. यह उठक-बैठक की रवायात गुरूद्वारे में भी होती है. मंगल ग्रह पर पानी खोजने की साथ ही इज्ज़त दिखाने का कोई और आसान तरीका भी खोजना चाहिए. खैर, मेरी पार्टी को पन्द्रह दिन बाद की डेट दी गई. वो लोग मुझे वापिस होटल छोड़ गए. आगे “आपसी अग्रीमेंट” की जुबानी सहमति मैंने दे दी. कोई तीन बजने को थे. बीवी-बच्चे चाहते थे कि अभी घूमने निकला जाए. मैं चाहता था कि जिस काम के लिए ख़ास कर के आये थे, उसकी जो भी इनफार्मेशन दिमाग में थी, अभी उस पर ही विचार किया जाए. अभी उस मेमरी में कुछ और मेमोरी मिक्स न की जाए. थोड़ा आराम किया जाए. सोने का असफल प्रयास किया. कोई दो घंटे बाद निकलना चाहा लेकिन अब छोटी बेटी जिद्द पकड़ गई कि दूध पीना है. बीवी कहें कि दूध पीते ही ये सो जायेगी. कहाँ उठा-उठा घूमेंगे? लेकिन वो न मानी. दूध मंगाया, इस शर्त पर कि सोयेगी नहीं. हम निकल पड़े. 'टुंडा कबाबी' चौक. 'प्रकाश कुल्फी'. “कुल्फी कुल्फी होती है, आइस-क्रीम नहीं”, लिखा था. सही बात है. सबको पता है. लेकिन उनके इस कथन के पीछे मन्तव्य यह बताना नहीं था कि कुल्फी कुल्फी होती है, आइस-क्रीम नहीं होती. मन्तव्य था कि कुल्फी का वजूद आइस-क्रीम से अलग तो है ही, उससे कम भी नहीं है. मैं सहमत हूँ उनके कथन से. और उनकी कुल्फी मजेदार भी थीं. मात्र पचास रुपये में ठीक-ठाक क्वांटिटी. एक प्लेट में थोड़ा नमकीन फ्लेवर आ गया, शिकायत देते ही बदल दी गई. यही बढ़िया दूकान-दारी की निशानी है. ऐसी दूकान-दारी पाने की अपेक्षा हर कोई करता है, लेकिन देने की कोई-कोई सोचता है. थ्री इडियट्स का डायलॉग है, " स्तन सबके पास होता है, देता कोई नहीं?" बस वैसा ही कुछ. कुहू ने वायदा निभाया, जहाँ तक उससे हो सका. अब बाहर निकलते ही वो सो गई. उसे गोदी उठाये टुंडा कबाबी तक गए. बिलकुल जामा मस्ज़िद, दिल्ली के करीम होटल का माहौल. हम मांस नहीं खाते, बस देखने गए थे. बाहर निकल शाकाहारी खाने की जगह पूछी किसी से, तो उसने दुर्गमा होटल बताया, वहां पहुंचे लेकिन जमा नहीं देखने से ही, वापिस अपने होटल आ गए. खाना मंगाया. सिरे का बकवास. दाल-मक्खनी का नास किया हुआ था. छोलों में नमक कम. दिन में बच्चों ने चाइनीज़ वहीं से खाया था, उनको ठीक लगा तो उम्मीद थी कि अभी भी खाना ठीक ही होगा. बेशक उम्मीद पर ज़माना कायम है लेकिन हर उम्मीद खरी कहाँ उतरती है? अगली सुबह तैयार हो कर कोई दस बजे रिसेप्शन पर पहुंचे. लखनऊ दर्शन के लिए अपने होटल के ज़रिये गाड़ी मंगाई. ११०० रुपये तय हुए. बकवास गाड़ी. AC चल तो रहा था, लेकिन न चलने जैसा. इमामबाड़ा ले गया वो, लेकिन वहां नमाज़ चल रही थी तो बताया गया कि शाम को अंदर जाने देंगे. कैसा ड्राईवर था, जिसे यह नहीं पता था कि कब कहाँ नहीं जाना चाहिए! खैर, जनेश्वर मिश्र पार्क पहुंचे. कुछ भी खास नहीं. जैसे आपके घर के पास वाले किसी साफ़-सुथरे पार्क को बहुत बड़ा कर दिया गया हो. बीवी अपना हैण्ड-बैग एक बेंच पर भूल गईं. लेकिन भीड़ तो थी ही नहीं. सो वापिस मिल गया. अंदर कुछ था ही नहीं देखने जैसा, जैसे घुसे थे, वैसे ही लौट आये. अब पहुंचे समता पार्क. यहाँ सिर्फ ग्रेनाइट थोपा गया था. यहाँ भी देखने जैसा कुछ नहीं था. ऊपर से सूरज देव अपनी फुल कृपा बरसा रहे थे. वापिस निकले. टैक्सी ड्राईवर कह रहा था कि पहला पार्क अखिलेश यादव ने बनवाया था, दूसरा मायावती ने बनवा दिया. इतने पैसों में कोई फैक्ट्री लगवा देते तो लोगों को रोज़गार ही मिल जाता. मैंने कहा कि अब तीसरा पार्क योगी जी बनवा देंगे. उसने कहा कि अब जगह ही नहीं बची. मैंने कहा कि जगह का क्या है, वो तो दाएं-बाएं पैदा कर ली जायेगी. उसने कहा कि हो सकता है, कुछ भी हो सकता है. बड़े लोग हैं. अब वो Residency ले गया. यह जगह सन 1857 की आज़ादी की लड़ाई से सम्बन्धित है. बस खंडहर हैं. दीवारें और उन पर गोलियों के निशाँ. अंदर एक म्यूजियम था, लेकिन शुक्रवार था तो बंद था. लौटे तो ‘शहीद स्मारक स्थल’ पहुंचे. गोमती नदी के किनारे बना है. गोमती को अब नदी कहना गलत है, यह एक नाला है, जैसे यमुना. रेंगती हुई, नाला-नुमा नदियाँ. इन्सान के चरणों में जीवन की भीख मांगती हुई नदियाँ. बेचारी नदियाँ. वो नदियाँ जिनके किनारे इन्सान ने घर बसाए, जिन्होंने इन्सान को जीवन दिया. अब उन्हीं नदियों का जीवन इन्सान ने छीन लिया है. शहीद स्मारक स्थल मुझे शहीदों का सम्मान कम और अपमान ज़्यादा लगता है, जनेश्वर मिश्र पार्क और मायावती के समता पार्क के मुकाबले में देखता हूँ तो. इसके ठीक दस-पन्द्रह फीट पीछे गोमती नदी से निकले कूड़े का ढेर था. वापिस आये तो श्रीमति ने ड्राईवर को कहा कि गोमती किनारे कोई हनुमान मंदिर है, वहां ले चलो. वो ले तो गया, लेकिन फिर कहने लगा कि अभी मंदिर बंद होगा. सो बस मंदिर की शक्ल दिखा दी चलती गाड़ी में से. कैसा ड्राईवर था और कैसे ट्रिप मेनेजर थे! कौन सी जगह कब खुलेगी, उसके मुताबिक ट्रिप तक नहीं घड़ सके! अब उसने कहा कि साठ किलोमीटर ही चलना था, और वो अब पूरे होने वाले थे, सो वापिस छोड़ सकता था बस. मैंने कहा कि कैसे पता कि साठ किलोमीटर हो गए. उसने मीटर दिखा दिया. मैंने कहा कि जब चले थे, तब तो नहीं दिखाया मीटर, ऐसे क्या पता लगता है. कोई जवाब नहीं था. वापिस चलने लगा वो. रास्ते में एक चिकन वर्क की कपड़े की दूकान पर खुद ही रोक दिया. लगा कोशिश करने कि हम घुस भर जाएँ दूकान में. मैंने कहा कि हमने नहीं लेना कुछ और नहीं देखना कुछ. हार के उसे माननी पड़ी मेरी बात. अपनी कमीशन के चक्कर में था बस. इडियट. ग्यारह सौ रुपये के मुताबिक सर्विस नदारद थी. मैंने कहा कि हज़रत गंज छोड़ दो. वहां उतरे हम तो पैसे मांगने लगा जबकि होटल वाले ने पहले ही कहा था कि पैसे होटल वापिस पहुँच देने हैं. जिद्द करता रहा, लेकिन फिर मान गया. हज़रत-गंज कुछ-कुछ दिल्ली के कनाट-प्लेस जैसा है. घूमते-घामते हम ‘मोती महल रेस्तरां’ पहुँच गए. खाना बढ़िया, हमारी उम्मीद से बेहतर. दाम भी सही. बाहर निकले तो दो रिक्शा तय हुए इमामबाड़ों के लिए साठ रुपयों में, लेकिन फिर वो भी जिद्द करने लगे चिकन वर्क की दुकानों पर ले जाने की. मैंने मना किया लेकिन माने ही नहीं वो. हमने दोनों रिक्शा छोड़ दिए. मैं मन ही मन उनको कोसने लगा. पता नहीं क्या समझते हैं? जैसे हमारे सर पर सींग हैं. बड़ी मुश्किल एक ऑटो मिला. दो सौ रूपये में तय हुआ कि इमामबाड़ा और साथ लगते Monument दिखा देगा. मैंने कहा कि अढाई सौ दूंगा, ठीक से दिखा दे बस. मान गया. बड़े इमामबाड़ा में एंट्री हुई. आर्किटेक्चर, बिल्डिंग बढ़िया दिख रही थी. लेकिन जूते तक रखवाने के पैसे लिए जा रहे थे. मैं गुरूद्वारे याद करने लगा. वहां गरीब-अमीर सब जूतों की सेवा देते हैं, जूते साफ़ करते हैं, निशुल्क. ‘गाइड’ मुझे गाइड के साथ ‘मिस-गाइड’ भी लगा. कहानियाँ कहे जा रहा था लेकिन अपनी धारणाएं भी बता रहा था, जिन पर मैं असहमति दिखा सकता था, लेकिन उस वक्त गाइड वो था, सो बहस नहीं की. भूल-भूलैया मुझे पहली बार में ही कुछ तो याद हो गया. ख़ास नहीं लगा. हां, अंदर हाल में इको सिस्टम खूब बढ़िया बनाया गया था. लाउड स्पीकर से पहले की ईजाद. छोटा इमामबाड़ा. आर्किटेक्चर. बिल्डिंग. और पैसा ऐंठते लोग. जूते रखने के पैसे, अंदर दिखाने, समझाने के पैसे. रूमी दरवाज़ा. यह मुझे खूबसूरत लगा. ये बड़ा. दिल्ली में भी गेट बने हैं , लेकिन ऐसा एक भी नहीं. घंटा-घर. यह भी सुन्दर है लेकिन क्रिकेट खेला जा रहा था उसकी दीवार के सहारे. हेरिटेज बिल्डिंग तक की औकात नहीं मिली थी उसे. शाम के छह बजे थे और घडियाल साढ़े दस दिखा रहा था. अब ऑटो वाले भैया जी, हमें चिकन वर्क की दूकान ले गए. शाम हो चुकी थी. कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन चले गए. हमारी बला से. बड़ी दूकान. कई वर्कर. सब पलक-पावड़े बिछाए. उलटे-सीधे रेट. बकवास. फिर भी मेरे लिए एक कुरता ले लिया. बार्गेन करके. वापिस पहुँच गए अपने ठिकाने. अगली सुबह वापिसी थी. पैकिंग करते-कराते एक बज गया. सुबह चार बजे उठ गए. सामान उठाया, बिल दिया और स्टेशन पहुंचे. पूछ-ताछ वाले सब मौजूद थे केबिन में लेकिन कोई सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था. Literally मुंह उलटी दिशा में कर के बैठे थे. स्टेशन पर गन्दगी थी. कूड़े से भरी रेहड़ी ऐसे ही छोड़ रखी थी. रेल लाइन पर टट्टियाँ बिखरी पडीं थी. ट्रेन छह बजे के करीब चल पड़ी. सीट रिज़र्व थीं. लेकिन थोड़ा चलते ही भीड़ से बुरा हाल हो गया. ज़्यादातर बिना रिजर्वेशन वाले. लोग सामान रखने की जाली तक पे सोये हुए. टॉयलेट सीट घेर बैठे हुए. रास्ते सब भर गए. टॉयलेट तो जा ही नहीं सकते इतनी भीड़. हमारे पास बस यही सुविधा थी कि हमारी सीट रिज़र्व थीं, जिन्हें घेर हम बैठे थे. लेकिन बावजूद इसके लड़ना पड़ रहा था. लोग ऊपर गिरे जा रहे थे. पहुँच गए दिल्ली. शुक्रिया भारतीय रेल. ऑटो वाले को पूछा तो एक ने मना कर दिया. एक ने दोगुना पैसे मांगे. मुझे इनसे यही उम्मीद थी. फिर कहते हैं कि कैब ने इनका काम खा लिया. खा ही लेना चाहिए, बचा-खुचा भी, ये हैं ही इसी लायक. कैब मंगाई और घर वापिस. कुछ नतीजे निकाले मैंने अपनी यात्रा के. हाज़िर हैं. 1. मात्र सीट रिज़र्व कराना काफी नहीं है. अगर डिब्बा AC नहीं है तो बुकिंग वाला डिब्बा भी थर्ड क्लास की तरह ही प्रयोग होता है. और ऐसा जान-बूझ कर किया गया है. सरकार को पता सब है कि लेकिन इसकी मंशा है कि भारत की बेतहाशा जनता को जैसे-तैसे सफर करने दिया जाए. अँगरेज़ लिखते थे कि भारतीय और कुते उनके डिब्बों में न चढ़ें. गुस्सा आता है भारतीय को कि उसे कुत्तों के समकक्ष रख दिया. अब क्या किया जा रहा है? खुल के कुत्ता नहीं लिखा लकिन भेड़-बकरियों की तरह तो ठूंसा जा रहा है. बिना रिजर्वेशन वाला कहीं भी चढ़ रहा है, कोई रोकने वाला नहीं. ट्रेन में लड़ाई हो जाए, कोई पुलिस वाला नहीं. सफाई नहीं हो रही, टॉयलेट गंधा रहे हैं, कोई देखने वाला नहीं. टिकट ली-नहीं ली, कोई चेक करने वाला नहीं. यह सब क्या है? सरकार अव्यवस्था खुद चाहती है. वोट जो लेना है गरीब जनता से, तो चलने दो गाड़ी बस. 2. जो भी होटल लें, पहले से पूछें कि बत्ती जायेगी तो क्या इंतेज़ाम है. AC चलेगा या बंद होगा. हमारे होटल में जनरेटर तो था लेकिन AC नहीं चलता था उससे. बहुत दिक्कत तो नहीं हुई, लेकिन हो सकती थी, होटल बदलना पड़ सकता था. 3. कहीं पढ़ा था कि उत्तर प्रदेश ने सबसे ज़्यादा प्रधान-मंत्री दिए भारत को, लेकिन इनमें से कोई भी अपने प्रदेश को विकास नहीं दे पाया. यह मैंने साक्षात् देखा. दिल्ली में बत्ती न के बराबर जाती है, वहां बार-बार जा रही थी. दिल्ली को गंदा मानता हूँ. दिल्ली से साफ़ मुझे बठिंडा लगता है. लेकिन लखनऊ दिल्ली से ज़्यादा गंदा लगा. 'अक्षर-धाम दिल्ली' में शाम को वाटर प्ले होता है. एक पूल के सब और लोग बिठाल दिए जाते हैं. फिर म्यूजिक के साथ अलग-अलग फव्वारे नाचते हैं. रंगीन लाइटों, साउंड और पानी का खेला. लखनऊ घंटा-घर के ठीक साथ ऐसा ही एक स्थल बनाया गया है. सुन्दर बना है, लेकिन धूल खा रहा है, जाने कब चालू करेंगे? जनता के पैसे का सत्य-नास. 4. घर से चलते हुए मैंने अपने लिए साइड बैग लिया था. सबको कहा कि साइड बैग उठा लें. बड़ी बिटिया ने ले लिया. श्रीमति को मेरी सलाह खास न लगी. वहां जब जनेश्वर पार्क में बैग खो दिया, तो मैंने याद दिलाया कि साइड बैग लेने को कहा था मैंने. इसलिए कहा था कि वो शरीर का हिस्सा बन जाता है. आपका एक हाथ बंधा नहीं रहता उसे सम्भालने को. यह टशन नहीं, ज़रुरत है. मुझे स्त्रियों का ऊंची हील पहनना, मुंह पर बहुत रंग-रोगन लगाना और हैण्ड-बैग उठाना समझ नहीं आता. मेरे मशवरे पर आप भी गौर कर सकते हैं. 5. जब जाना था तो बड़ी बेटी को उसके किसी मित्र ने बताया कि लखनऊ की तहज़ीब बहुत बढ़िया है. वापिस आये तो बिटिया का नतीजा था कि 'लीजियेगा, दीजियेगा, कीजियेगा' से ही गर तहज़ीब तय होती है तो निश्चित ही वहां की तहज़ीब बेहतर है लेकिन तहज़ीब मात्र भाषा में ही नहीं, व्यवहार में-कंडक्ट में भी होनी चाहिए. भाषा मात्र की तहज़ीब तो खतरनाक है, धोखा दे सकती है, इसका बहुत फायदा नहीं है. मैंने कहा कि इन्सान सब जगह एक सा होता है. वो अपनी ज़रूरतों और स्वार्थों के हिसाब से जीता है. लखनवी या किसी भी और तहज़ीब से ज़्यादा अपेक्षा करना ही गलत है. इतना ही काफ़ी है कि लखनवी लोग शब्दों के हरियाणवी लट्ठ नहीं मारते. क्या ख्याल है आपका? नमन....तुषार कॉस्मिक

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