Friday, 30 March 2018

कानून और हम

वकील नहीं हूँ. प्रॉपर्टी बिज़नस का छोटा सा कारिन्दा हूँ. वक्त-हालात ने कोर्टों के चक्कर लगवाने थे-लगवा दिए. शुरू में बड़ी मुसीबत लगती थी, अब खेल जैसा लगता है. बहुत कुछ सिखा गया ज़िन्दगी का यह टुकड़ा. ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज़ (Blessing in Disguise)...यानि छुपा हुआ वरदान. कानून व्यवस्था कैसे बेहतर हो-फायदेमंद हो - व्यक्ति और समाज दोनों के लिए? यही विषय है यहाँ .....तो चलिए मेरे साथ ....... 1) अगर आपके पास प्रॉपर्टी है तो 'रजिस्टर्ड वसीयत' ज़रूर करें अन्यथा बाद आपके लोग उस प्रॉपर्टी के लिए दशकों कोर्टों में लड़ते रहेंगे. और हो सके तो प्रॉपर्टी का विभाजन भी कर दें, मतलब किसको कौन सा फ्लोर मिलेगा, कौन सी दूकान मिलेगी, ज़मीन का कौन सा टुकड़ा मिलेगा. यकीन जानें, लाखों झगड़े सिर्फ इस वजह से हैं कोर्टों में चूँकि प्रॉपर्टी छोड़ने वाले ने यह सब तय नहीं किया. Partition Suit कहते हैं इनको. दशकों लटकते हैं ये भी. 2) कोर्ट में जो भी डॉक्यूमेंट दाखिल किये जाते हैं, वो एफिडेविट यानि हल्फिया-बयान यानि शपथ-पत्र के अतंर्गत दिए जाते हैं. इसे ओथ कमिश्नर से attest करवाने के बाद दाखिल किया जाता है. ध्यान रहे, कोई भी झूठा स्टेटमेंट कोर्ट को देना या नकली कागज़ात दाखिल करना पर्जरी/फोर्जरी (perjury/forgery) कहलाता है, जिस पर जेल भी हो सकती है. आपका प्रतिद्वंदी झूठा/ गलत केस थोपने के आरोप में आप पर वापिसी केस ठोक सकता है. कोर्ट केस को हल्के में न लें. यह आग से खेलने जैसा है. "ये केस नहीं आसां, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है." 3) ड्राफ्टिंग बहुत ही ध्यान मांगती है. बात-चीत के दौरान हम अपनी बात को कैसे भी एक्सप्लेन कर लेते हैं लेकिन जब उसी बात को लिखित में लाना हो तो बहुत ध्यान से करना होता है. एक गलत comma किसी इंसान की जान ले सकता है, किसी कम्पनी को करोड़ों का नुक्सान कर सकता है, आपके केस की किस्मत उलट-पुलट सकता है. गूगल करें, कई किस्से मिल जायेंगे. 4) आम-तौर पर वकील को दस से बीस हज़ार रुपये शुरू में दिए जाते हैं, फिर पांच सौ से दो हज़ार तक तारीख पे. मेरे ख्याल से, किसी भी केस को यदि जीतने जितनी मेहनत लगानी हो तो यह पैसे बहुत ही कम हैं. आम-जन चाहते हैं कि वकील पैसे भी कम ले और केस भी जितवा दे, जो कि लगभग असम्भव है. यकीन मानें, अपने विरोधी के सात पन्ने के दावे का जवाब तैयार किया है मैने. ड्राफ्टिंग के पचास पन्ने बने हैं और फिर कोई सवा सौ पन्नो की 18 जजमेंट हैं. कुल मिला कर 177 पन्ने. समय लगा अढाई महीने. अढाई महीने की तपस्या. कौन वकील दस-बीस हज़ार लेकर ऐसा कर सकता है? काम-चलाऊ पैसों में काम-चलाऊ काम ही तो मिलेगा. बाद में निकालते रहो, वकील को गालियाँ. अरे, भैया, खुद लड़ लेते न अपना केस. कानून हरेक को अपना केस खुद लड़ने की छूट देता है. मैं अपने केस खुद लड़ता हूँ. खुद लड़ो या फिर ढंग के पैसे खर्च करो. लेकिन ढंग के पैसे खर्च करने के बाद भी आपको अपना केस खुद पढ़ना चाहिए, आधा तो खुद ही लड़ना चाहिए, यह मैं कई बार लिख चुका हूँ. सौ प्रतिशत लड़ाई वकीलों पर छोड़ना, सौ प्रतिशत मूर्खता है. 5) बार-बार कहा जा रहा है, चीफ-जस्टिस तक ने कहा कि जजों की संख्या बहुत कम है, बढ़ाई जानी चाहिए. अभी तारीख दो-तीन महीने की दी जाती है, सिविल मैटर में. इसे यदि दस-पन्द्रह दिन तक लाया जाये तो केस बड़ी तेज़ी से निपटने लगेंगे. लेकिन उसके लिए जजों की संख्या चार गुना करनी होगी. क्या नहीं की जा सकती? की जा सकती है. लेकिन आपका आला नेता ऐसा चाहता ही नहीं. क्यों? ताकि खुद के काले कारनामों की सज़ा जीते जी न मिल सके. बस. कभी सुना आपने कि किसी नेता ने कहा तक हो कि वो न्याय-व्यवस्था में सुधार लाएगा? वादा तक नहीं किया किसी ने. चुनावी जुमला तक नहीं उछाला. 6) मेरा मानना है कि एक भ्रष्ट समाज का तकरीबन हर बाशिंदा-कारिन्दा सम्भवतः भ्रष्ट ही होगा. जजों के बारे में तो मैं ठीक से कुछ नहीं कह सकता, लेकिन कोर्ट-स्टाफ छोटी-मोटी रिश्वत खुल्ले-आम लेता है. फिर यह भी पढ़ा है कि कुछ बड़े केसों की फाइल गुम हो गईं, जल गईं. इंसानी गलती है... कभी भी, किसी से भी हो सकती है......नहीं? ऐसा न हो, तो कोर्ट परिसर के चप्पे-चप्पे में CCTV रिकॉर्डिंग होनी चाहिए. आपको अमेरिका के कोर्टों की प्रक्रिया youtube पर दिख जायेगी, यहाँ अभी तक कोर्ट-रूम में विडीयो कैमरा नहीं हैं. 7) अगला यह किया जा सकता ही कि आर्बिट्रेशन को बढ़ावा दिया जाये. अब यह क्या होती है? समझ लीजिये आर्बिट्रेशन मतलब 'प्राइवेट कोर्ट'. जज कौन होगा, यह अग्रीमेंट करने वाले लोग पहले से ही तय करते हैं. वो कोई भी हो सकता है. बस फैसला कानूनी विधा के अनुरूप ही दिया जाना होता है. तो कोई भी वकील या रिटायर्ड जज अक्सर आर्बिट्रेटर नियुक्त किये जाते हैं. सबसे बढ़िया है INDIAN COUNCIL OF ARBITRATION, : Room 112, Federation House, Tansen Marg, New Delhi, 110001,011 2371 9102 को आर्बिट्रेटर नियुक्त किया जाए. सरकारी संस्थान है. "बांगड़ सीमेंट सस्ता नहीं सबसे अच्छा." आर्बिट्रेशन की विडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए, अन्यथा बाद में हारने वाला पक्ष नंगे-पन की हद तक मुकर जाता है और आर्बिट्रेटर तक को कोर्ट में घसीट लेता है. मुल्क में आर्बिट्रेटरों की फ़ौज खड़ी की जा सकती है. यकीन जानें, प्रॉपर्टी-चेक बाउन्सिंग जैसे मैटर जो दशकों चलते हैं कोर्टों में, महीनों में निपट जायेंगे, वो भी बिना कोर्ट जाए. 8) बहुत केस मात्र इसी बात पर घिसटते रहते हैं कि कोई एक पार्टी कोर्ट में यही कहती रहती है कि उसे अलां-फलां नोटिस नहीं मिला या समय पर नहीं मिला. इसे बड़ी आसानी से हल किया जा सकता है. आज प्रक्रिया यह है कि रजिस्टर्ड AD लैटर भेजा जाता है, जिसे पोस्टमैन रिसीव करवाता है. आलम यह है कि पोस्टमैन बेचारा बड़ा ही हकीर-फकीर सा कारिन्दा होता है इस निज़ाम का, सीढ़ी का सबसे निचला स्टेप, जो बड़े थोड़े से पैसों में बिक जाता है. आखिर दुनिया की चमक–दमक-धमक उसे भी लुभाती है. इस बे-ईमान दुनिया में जो ईमान-दार रहे, वो तूचिया साबित होता है अन्त-पन्त, यह उसे भी समझ आता है. फिर लैटर बंद होता है, बड़ी आसानी से कोर्ट में बका जा सकता है कि लिफाफा खाली था. मुझे याद है, कुछ सालों पहले तक रमेश नगर, दिल्ली डाक-खाना खुली RTI एप्लीकेशन ले लेता था. और उसकी कॉपी के हर पन्ने पर अपनी मोहर मार के देता था. यह था 'बेस्ट तरीका'. लेकिन सरकार को समझ आ गया कि जनता को बेस्ट सर्विस तो मिलनी ही नहीं चाहिए, सो यह ढंग जल्द ही बंद कर दिया गया. अब आप भेजते रहो RTI रजिस्टर्ड डाक से, घंटा नहीं परवा करता कोई. खैर, कोर्ट को शुरुआती नोटिस भेजने का जिम्मा भी खुद पर लेना चाहिए, जिसमें दस्ती का प्रावधान हो, भेजने वाला साथ खुद जा सके 'प्रोसेस सर्वर' के साथ, या फिर अपना कोई बन्दा भेज सके. उस विजिट की विडियो रिकॉर्डिंग हो. मसला हल. और RTI एप्लीकेशन लेने का ‘बेस्ट तरीका’ फिर से शुरू कर लेना चाहिए. इसके साथ ही 'तार/ टेलीग्राम' व्यवस्था भी फिर से शुरू की जा सकती है. कम से कम कानूनी नोटिस भेजने के लिए तो इसका उपयोग किया ही जा सकता है. E-post कुछ-कुछ इसका ही विकल्प है, लेकिन पोस्ट जिसे भेजी गई उसे मिली या नहीं, E-post यह सुनिश्चित नहीं करती. सो फिलहाल यह एक निकम्मी सर्विस है इस मामले में. लेकिन अगर E-post को रजिस्टर्ड भी कर दिया जाये तो कम से कम भेजे गए कंटेंट को चैलेंज करना मुश्किल होगा, बशर्ते रिसीव ठीक से हुई हो. 9) आपको पता है, पप्पू की शादी में विडियो रिकॉर्डिंग क्यों करवाई गयी थी? यादगार के लिए न. सही बात. लेकिन एक और बात है, और वो भी सही बात है. रिकॉर्डिंग इसलिए करवाई गई थी चूँकि वो एक कानूनी सबूत है. जी हां. समझ लीजिये, पूरी शादी ही कानूनी प्रक्रिया है. जो बाराती-घराती हैं, वो गवाह हैं और विडियो-रिकॉर्डिंग विडियो-एविडेंस है. कोई मुकर सकता है कि उसकी शादी ही नहीं हुई? न. आसान नहीं है. लगभग असम्भव. तो मल्लब यह कि आपको भी गवाह और विडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की अहमियत समझनी है. किसी को पैसा उधार दें-प्रॉपर्टी किराए पर दें, खरीदें-बेचें, तो हो सके तो सारी प्रक्रिया की ऑडियो-विडियो रिकॉर्डिंग कर लें. बहुत काम आयेगी. आसान नहीं है मुकरना. कोर्ट पर भी केसों का वज़न कम पड़ेगा, अगर मसले वहां तक जाएँ ही नहीं. जब कच्चे-पक्के ढंग से कोई डील की जाती है तो डिफाल्टर पार्टी को मौका मिल जाता है डील को चैलेंज करने का और मसला सालों कोर्ट में खिंचता रहता है. तो इससे बचने के लिए पुख्ता ढंग से डील करें, आर्बिट्रेशन का क्लॉज़ हर अग्रीमेंट, हर डीड में डालें, ऑडियो-विडियो रिकॉर्डिंग करें. मज़बूत गवाहों की मौजूदगी में डील करें. ऐसे आप पर और कोर्ट पर केसों का बोझ कम पड़ेगा. 10) वैसे तो एक अच्छे समाज में पुलिस, कोर्ट, फ़ौज की मौजूदगी नाममात्र होनी चाहिए. इनका प्रयोग अपवाद के तौर पर होना चाहिए. लेकिन यह तब तक नहीं होगा जब तक निजी सम्पति का उन्मूलन नहीं होगा, परिवार के कंसेप्ट की विदाई नहीं होगी, मुल्कों की अर्थी नहीं निकलेगी. दिल्ली अभी बहुत-बहुत दूर है. लेकिन दिल्ली कितनी ही दूर हो कभी तो निकट भी होगी. कभी तो वहां पहुंच भी होगी. सो यह सब सुझाव बीच के समय के लिए है. अपने सुझाव दीजिये, स्वागत है. नमन.....तुषार कॉस्मिक

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