गुरु गोबिंद सिंह

आज मेरे दफ्तर में बात कर रहा था मैं. राज कुमार मित्तल थे और भी मित्र थे. गुरु गोबिंद सिंह. कोई दिन त्यौहार नहीं है उनसे जुड़ा. लेकिन मुझे बहुत याद आते हैं. बावजूद इसके कि मैं धर्म/दीन/ मज़हब/सम्प्रदाय को गलत मानता हूँ और उन्होंने खालसा का निर्माण किया था. "सब सिक्खन को 'हुक्म' है, गुरु मान्यों ग्रन्थ" कहा था. मैं सख्त खिलाफ हूँ उनके इस काम से. लेकिन. लेकिन फिर भी मन में उनके लिए अपार सम्मान है. 

आम इन्सान कैसे जीता है? शादी करेगा. बच्चे करेगा. फिर उनकी शादी करेगा. फिर वो बच्चे करेंगे. खायेगा. पीएगा. सेक्स करेगा. और मर जाएगा. अमीर थोड़ा अच्छे लेवल पे करेगा और गरीब थोड़ा हल्के लेवल पे. लेकिन अमीर हो गरीब हो, हर इन्सान यही करेगा. 

गोबिंद सिंह. गुरु गोबिंद सिंह. गुरु शब्द का अर्थ है जिसमें गुरुता हो, गुरुत्व हो, भारीपन हो. गुरु वो इसलिए हैं कि मेरी नज़र में वो वाकई भारी व्यक्तित्व हैं. 

तो गुरु गोबिंद सिंह. उन्होंने अपने पिता को कुर्बान कर दिया. चारों बेटों को कुर्बान कर दिया. और खुद को कुर्बान कर दिया. किस लिए? हिन्दू के लिए? न. न. उनको क्या हिन्दू से मतलब? 

भाई कन्हैया (उनका शिष्य) जंग में चमड़े की मश्क से घायलों को पानी पिलाता था. लेकिन वो दुश्मन घायलों को भी पानी पिलाता था. शिष्यों ने गुरु साहेब को शिकायत की. गुरु साहेब ने उन को कहा कि कन्हैया सही करता है जो दुश्मनों को भी पानी पिलाता है और तुम भी सही करते हो जो दुश्मनों का गला काटते हो. जो वो करता है, उसे करने दो और जो तुम करते हो, वो भी करते रहो.

यह दृश्य मुझे सारी उम्र याद आता रहा है. महान दृश्य है. कौन कह सकता है इतनी बड़ी बात? निश्चित ही गुरु साहेब सबमें एक ही ब्रह्म देख रहे थे. दुश्मन में भी. मारना इसलिए ज़रूरी है चूँकि कोई और चारा नहीं लेकिन है तो वो भी वही जो हम सब है. वाह! वाह!! क्या बात है!!! 

उन्होंने सब कुर्बान इसलिए कर दिया चूँकि उनकी समझ में जबरन मुस्लिम बनाया जाना गलत था. उनके शिष्यों ने भी आगे यही किया. "खालसा धर्म नहीं हारेया. सीस कटवा दिए." 

बस एक ही जिद्द थी. जो उनकी नज़र में गलत है, वो गलत है. उसके लिए चाहे कुछ भी कुर्बान करना पड़े. 

और पुरजा, पुरजा कटवा लिया. उन्होंने. उनके शिष्यों ने. लेकिन पीछे नहीं हटे. पीछे नहीं हटने का मतलब यह नहीं कि गुरिल्ला युद्ध नहीं किया. गुरिल्ला युद्ध ही किया. लेकिन अपनी सोच से पीछे नहीं हटे. यही होना चाहिए जीवन का ढंग. मरना हम सब ने है. क्या मर-मर के जीना? सोच से गद्दारी करके क्या जीना? 

"सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तब गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ."
गिनती में कम थे सिक्ख, लेकिन टक्कर ऐसी दी कि इतिहास फख्र करता है. 

उपर-लिखित असहमति के बावजूद मेरा उनको शत-शत नमन. 

तुषार कॉस्मिक

नोट:--- ध्यान रहे कि मैं किसी धर्म को नहीं मानता और सब धर्मों के खिलाफ हूँ. सो धर्म-विशेष का प्रचार मान कर न पढें. 

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