Friday 8 December 2023

नुपुर शर्मा

यह मुद्दा इन दिनों फिर से महत्वपूर्ण इसलिए है चूँकि "गर्ट विल्डर" ने नेदरलॅंड्स का चुनाव जीत लिया है. तो क्या? उस से क्या सम्बन्ध? संबंध है. यह एकमात्र ऐसा राजनेता था जिसने नूपुर शर्मा का साथ दिया था, उस वक्त साथ दिया था जब कि नूपुर शर्मा की अपनी पार्टी ने उसे निकासित कर दिया था.
खैर.

जो भी नुपुर ने कहा था, वो रहमानी के जवाब में कहा था.
और
जो कहा था वो कुछ भी मन-घडंत नहीं था. पैगम्बर साहेब की निंदा तो तब होती जब नुपुर ने कुछ ऐसा बोला होता जो इस्लाम मानता न होता. इस्लामिक ग्रन्थों में लिखा है कि पैगम्बर साहेब ने हज़रत आईशा से जब शादी की तो वो 6 साल की थीं. जब जिस्मानी रिश्ता बनाया तब वो 9 साल की थी. इसी बात को श्रीमान जाकिर नायक ने भी तसदीक किया है.

लेकिन नुपुर शर्मा ने बोल दिया तो उसे मार दिया जाना चाहिए!
क्यों?
नुपुर शर्मा ने नेगेटिव सेंस में बोला शायद इसलिए. ठीक है, तो आप इसी मुद्दे को पॉजिटिव कर के बता दें. बता दीजिये कि नुपुर कहाँ ग़लत है. और पैगम्बर साहेब ने जो किया वो कैसे सही है, किन विशिष्ट हालात में ऐसा किया और वो कैसे अनुकरणीय है.
बस, नुपुर को टांग दो.
टांग भी दिया उस के पुतले को.
नुपुर को मार दो.
मार भी दिया नुपुर नाम की एक बेगुनाह औरत को बांगला देश में. पहले बलात्कार किया, फिर मार के, लाश खेत में फेंक दी. मात्र इसलिए चूँकि उस का नाम नुपुर था.

होना क्या चाहिए था?
होना यह चाहिए था कि यदि नुपुर की बात गलत लगी तो सब से पहले यह देखना था कि वो ग़लत है भी कि नहीं. तथ्यात्मक तौर पर.

लेकिन जैसा कि अब पता पड़ रहा है कि बात तथ्यात्मक रूप में गलत नहीं थी.
तो फिर नुपुर ने जैसे कहा, वो देखना था कि किन हालात में कहा, वो गलत था या सही. तो वो भी गलत प्रतीत होता नहीं. चूँकि बहस में शिवलिंग को भी कोई सम्मान नहीं दिया जा रहा था, तो तैश में आकर जवाब में नुपुर की तरफ से यह कथन आया.

फिर यह देखना चाहिए था कि उस कथन को चाहे नुपुर ने नेगेटिव ढंग से कहा लेकिन पैगम्बर साहेब की वो शादी पॉजिटिव काम है क्या, अनुकरणीय है क्या? जैसा मैंने ऊपर लिखा है, इस का जवाब भी मुस्लिम' को ही देना था. लेकिन मुस्लिम ने ऐसा नहीं किया. मुस्लिम ने टिपण्णी कर ने वाली के खिलाफ़ झंडा-डंडा बुलंद कर दिया.

इस से क्या प्रतीत होता है?
ऐसा लगता है कि मुस्लिम हज़म ही नहीं कर पाए कि यह बात Out हो गयी. मुस्लिम इस बात को झुठलाते हुए प्रतीत होते हैं.

मुस्लिम इस शादी का औचित्य साबित करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं.
और फिर दुनिया के किसी भी विषय पर, व्यक्ति पर तार्किक रूप से क्यों सोचा नहीं जाना चाहिए? पैगम्बर साहेब थे तो इंसान ही न. क्यों उन के जीवन की घटनाओं का बौद्धिक रूप से विश्लेष्ण नहीं होना चाहिए? क्यों मुस्लिम इस बुरी तरह से उखड़ जाते हैं? क्या इस लिए कि मुस्लिम जवाब देने में असमर्थ समझते हैं खुद को?

मैंने सुना जाकिर नायक को, ये श्रीमान बता रहे थे कि लड़की का जब मासिक धर्म शुरू हो जाता है तो उस से शादी की जा सकती है. और मासिक धर्म 9-10 साल की उम्र में शुरू हो जाता है और इसी उम्र में हज़रत आएशा से पैगम्बर साहेब ने शादी की थी. और मैंने यह भी सुना है कई बार कि मुस्लिम को पैगम्बर मोहम्मद के जीवन की यथा-सम्भव नकल करनी होती है जीवन में. इसे शायद सुन्नत कहते हैं. क्या यह सवाल नहीं उठता कि मासिक धर्म का शुरू हो जाना ही काफी है क्या यह तय करने को कि लड़की शादी के काबिल हो गयी? एक 10 साल की बच्ची जब pregnant हो जाएगी तो क्या उस का शरीर इस pregnancy को सम्भाल पायेगा? प्रसव को झेल पायेगा? क्या एक दस साल की बच्ची ने इतना जीवन देख लिया होता है कि वो अपने बच्चे को सम्भाल पाए? क्या नौ साल की बच्ची की शादी कर के उस का बचपन तो नही छीना जा रहा? ऐसी शादी में बच्ची की मर्ज़ी को उस की मर्ज़ी माना जा सकता है क्या? फिर यदि उस का पति बड़ी उम्र का हुआ और जवानी में ही यदि वो विधवा हो गयी तो क्या यह शादी एक सही फैसला माना जा सकता है? क्या पैगम्बर साहेब की यह शादी अनुकरणीय है? ऐसे ढेर से सवाल खड़े होते हैं.

शायद मुस्लिम समाज इस मुद्दे के अंतर-निहित सवालों को समझता है. और इन सवालों से बचने के लिए ही बवाल किया गया है.

यदि इस्लाम वैज्ञानिक मज़हब है तो इस्लाम को तो हाथ पसार सवाल उठाने वालों का स्वागत करना चाहिए कि आओ, जो भी शंका हो, जवाब हम देंगे.
लेकिन ज़मीनी हकीक़त तो बिलकुल उलट है. तर्क तो दूर की बात, टिपण्णी ही क्यों की?

मेरे ख्याल है कि इस दुनिया के हर इंसान को किसी भी विषय-व्यक्ति पर सोचने का, टीका टिपण्णी करने का हक़ है. हमें खुद की सोच को ही दुरुस्त नहीं करना होता बल्कि दूसरों की सोच दुरुस्त हो इस का भी ख्याल रखना होता है. एक सड़क जिस पर सब ग़लत- शलत कारें चला रहे हों, आप ड्राइव करना पसंद करेंगे? पता नहीं कब कौन ठोक दे. सड़क पर चलना तभी सुरक्षित है यदि सिर्फ आप ही नहीं, दूसरे लोग भी गाड़ी सही-सही चलायें. यह सिर्फ़ मिसाल है. समझाने के लिए. किसी धर्म पर कोई टिपण्णी नहीं है.

यह तर्क भी सही नहीं है कि तुम्हें क्या हक़ है हमारे नबी, हमारे अवतार, हमारे भगवान, हमारे गुरु के बारे में कुछ भी कहने का. हक़ हमें बुनियादी है. कुदरती है. संवैधानिक है. फ्री थिंकिंग और फ्री एक्सप्रेशन एक फ्री समाज की बुनियादी ज़रूरत है.

एक व्यंग्य अक्सर पढ़ता हूँ. एक कुत्ते को गली से उठा कर राज महल में ले जाया गया. वो कुछ समय राज महल में रहा लेकिन फ़िर वापिस गली में आ गया. अब उस के साथी कुत्तों ने पूछा कि क्या हुआ? वापिस क्यों आ गया? तो उस कुत्ते ने जवाब दिया, " वहां राज महल में सब सुविधा थी. खाना पीना, सब बढ़िया. चिंता फिकिर नाहीं. बस दिक्कत एक ही थी. वहां भौंकने की आज़ादी नहीं थी.
यह व्यंग्य साधा गया है उन पर जो फ्री एक्सप्रेशन की डिमांड करते हैं, इस का समर्थन करते हैं.

लेकिन मैं इस कथ्य को दूसरे ढंग से लेता हूँ. मेरा मानना है कि यदि फ्री एक्सप्रेशन की आज़ादी नहीं तो सब सहूलतें बेकार हैं. मैं उस कुत्ते की कद्र करता हूँ जिस ने फ्री एक्सप्रेशन न मिलने पर राज महल को लात मार दी. जिस समाज में फ्री एक्सप्रेशन की आज़ादी नहीं, वहाँ फ्री थिंकिंग भी रुक जाएगी, वैज्ञानिकता थम जाएगी. फ्री एक्सप्रेशन से फ्री थिंकिंग stimulate होती है.

लेकिन यहाँ तो हर कोई दूसरे को कोर्ट कचहरी में खींच रहा है. ऐसे ही गेलीलिओ को खींचा गया था, ऐसे ही ब्रूनो को.....समय-चक्र ने इन को सही साबित किया. समय-चक्र ने इन को इंसानियत के हीरो साबित किया.

"मेरी भावना आहत हो गयी."
तो क्या करें भाई? आप अपनी भावनाओं को मजबूत बनाओ न.
आप Newton के काम के खिलाफ़, शेक्सपियर के नाटकों के खिलाफ़, मुंशी प्रेम चंद के लेखन के खिलाफ़, शिव कुमार बटालवी की कविताओं के खिलाफ़ जितना मर्जी बोलो, जितना मर्जी लिखो कोई तलवारें नहीं खींचेगी. लेकिन आप किसी भी तथा-कथित धार्मिक किताब, व्यक्ति के खिलाफ़ कुछ बोल दो, लिख दो तो मार-काट मच जायेगी. क्यों? सोचिये.

यह जो ईश निंदा, ब्लासफेमी कानून हैं, यह वैज्ञानिक सोच की राह में रोड़ा हैं. ईश की निंदा हो गयी. कैसे साबित करोगे? पहले साबित तो करो कि ईश है भी कि नहीं. ठीक वैसे ही जैसे तुम आलू, गोभी कोर्ट में दिखा सकते हो, छुआ सकते हो, वैसे ही.

ईश सिर्फ एक मान्यता है. मान्यता तो फिर ईश पर सवाल उठाने वालों की भी है. इन को क्यों मार देना? इसलिए चूँकि यह गिनती में कम हैं. भीड़ का गणित. सही हो न हो, सही ही माना जाता है चूँकि भीड़ मानती है.

नुपुर वाला मुद्दा, इस का एक दूसरा पहलू भी है. ऐसा भी लगता है कि जान-बूझ कर भी उछाला जा रहा है. भाजपा को वोट से मुस्लिम समर्थक दल हरा नहीं पा रहे. तो अब मुस्लिम और मुस्लिम समर्थक दल, भाजपा विरोधी दल गाहे-बगाहे सड़क पर उतर रहे हैं. यह सिलसिला शाहीन बाग़ से शुरू हुआ तो चलता ही जा रहा है. दिल्ली ने हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे. अब कानपुर ने. और कितने ही और शहरों ने भी. मुस्लिम हर हाल में भाजपा सरकार पर अपना दबाव बनाये रखना चाह रहे हैं. नुपुर वाला मुद्दा भी उसी सिलसिले की एक कड़ी प्रतीत हो रहा है. सही गलत से कोई मतलब नहीं. बस मुद्दा बनाये रखो.

लेकिन मैं अपने मुस्लिम भाईओं और बहनों से यह कहना चाहता हूँ कि आप को गैर मुस्लिम देख रहा है, नोटिस कर रहा है, उस का मुस्लिम के प्रति डर बढ़ता जा रहा है जो उसे मजबूर करता है मोदी की हजार गलतियाँ माफ़ कर के उसे ही सत्ता सौपने को.

तो मेरा संदेश है मुस्लिम मित्रो को और गैर-मुस्लिम मित्रों को भी, आज ज़माना इन्टरनेट का है. सब पलों में चेक हो जाता है. दीन- धर्मों को सब से बड़ा चैलेंज किसी व्यक्ति-विशेष से नहीं है बल्कि इन्टरनेट से है, सोशल मीडिया से है. अब चीज़ें छुपाई न जा सकेंगीं.

सो यह मरने-मारने की भाषा छोड़ दें. अपनी सोच में वैज्ञानिकता लायें. तार्किकता लाएं. ध्यान लाएं. समाधान लाएं.

और जो भी लिखा, यदि कहीं कुछ गलत लिखा हो तो ज़रूर बताएँ.

नमन
तुषार कॉस्मिक

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