(1) हिंदुत्व, यह आरएसएस का आविष्कार है. इस्लाम के विरुद्ध भारतीय मान्यताओं का इस्लामीकरण. हिन्दू कोई धर्म है ही नहीं. और हिंदुत्व फिक्स जीवन शैली भी नहीं.
जिनको हम हिन्दू कहते हैं, वो तो कुछ भी मान लेते हैं. कुछ समय पहले तक माता के रात्रि जागरणों का चलन था. जिसमें परिवार के लोग सोते-जागते हुए पूरे मोहल्ले की नींद कानफोडू लाउड स्पीकर लगवा, फटी आवाज वालों की गायकी से नींद हराम करते थी. आज कल कुछ रहमों-करम किया गया है. कुछ अक्ल आई इन लोगों को कि यार, मामला आधी रात तक ही निपटा दिया जाए. कुछ वजह यह भी है कि लाउड स्पीकर पर मध्य रात्रि के बाद कानूनी पाबंदी है. सो आज कल माता को परेशान नहीं किया जाता. आज कल साईं बाबा को पुकारा जाता है. उनकी चौकी लगाई जाती है. मंदिरों में साईं बाबा की मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं हैं. बिना यह परवा करे कि साईं कि साईं मुस्लिम थे कि हिन्दू कि कौन.
मजारों पर मत्था रगड़ते आपको तथा-कथित हिन्दू ही मिलेंगे. इस्लाम में तो सिवा अल्लाह की बन्दगी के बाकी सब मना है. हिन्दू ही कब्रों पर सर नवाता है.
राम और कृष्ण को तो हिन्दू अपना प्रमुख देव मानते हैं. लेकिन राम तो खुद को कभी हिन्दू कहते ही नहीं. जब भी अपना परिचय देते हैं तो अपने पूर्वजों के नाम से देते हैं. इक्ष्वाकुवंशी बताते हैं खुद को.
कृष्ण भी कहते हैं, “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर भवति भारत, अभुथानाम धर्मस्य, सम्भवामि युगे युगे.” वो तो नहीं कहते कि ‘हिन्दू धर्म’ के लिए जन्म लेता हूँ. इसकी रक्षा के लिए आता हूँ. वो कहते हैं कि धर्म के लिए आता हूँ.
दुर्गा माता तो यूँ लगता है कि राजाओं ने अपने किलों यानि दुर्गो की सुरक्षा के लिए गढ़ी हो. दुर्ग से दुर्गा. इसका हिन्दू से क्या मतलब?
आज बहुत शोर शराबा है कि गौ को माता माना जाए. विवेकानंद खुद बताते हैं कि प्राचीन भारत में गौ का मांस खाया जाता था.
जो शिव को मानें, लिंग को पूजे उनको लिंगायत या शैव कहते थे और जो विष्णु को माने वो वैष्णव. लेकिन शैव और वैष्णवों के बीच खूब मार काट रही है.
आज आरएसएस सिक्खी को भी हिन्दू कहता है. नानक साहेब ने तो जनेऊ को इनकार कर दिया था बचपने में ही. हरिद्वार में सूर्य की उल्टी दिशा में पानी चढ़ा दिया था. जगन्नाथ में होती आरती का भी विरोध किया था.
आज आरएसएस बौद्ध मत को भी हिन्दू कहता है बिना यह समझे कि बुद्ध ने तो आत्मा परमात्मा सब को इनकार कर दिया था. और जबकि कृष्ण तो गीता में कहते हैं आत्मा अजर अमर है, मात्र वस्त्र बदलती है.
प्रचलित हिंदुत्व में खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बनी सम्भोग की मूर्तियों का क्या मतलब? न निगलते बनता है न उगलते. जिस समाज में सेक्स को पर्दों में दबा रखा है वहां इस तरह की मूर्तियाँ और वो भी मंदिरों में,क्यूँ, यह JNU में कंडोम के प्रयोग होने वाले संघी तो न समझा पायेंगे और न ही भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था.
एक समझ यह भी है कि असुर वो लोग थे जो सुरा यानि दारू नहीं पीते थे और राक्षस वो लोग थे जो रक्षा करते थे. अब यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि देवता लोग सोमरस पीते कहे जाते हैं. तो निश्चित ही दारू न पीने वाले असुर हुए. जबकि आप और हमें तो यह समझाया गया कि राक्षस कोई बहुत विलन और व्यसनी किस्म के लोग थे.
जब हिन्दू यह कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया तो झूठ बोलते हैं........खूब लड़ते-मरते थे......कलिंगा के युद्ध में घोर रक्त-पात कोई मुसलमानों ने नहीं किया था.....पृथ्वीराज चौहान भरे दरबार में से संयोगिता को उठा लाया था और खूब युद्ध हुआ था जयचंद और उसका...........महाभारत में न सिर्फ भारत बल्कि आस-पास के राजा भी लड़े मरे थे....तभी तो नाम महाभारत हुआ....भारत से भी बड़ा युद्ध .......बात सिर्फ इतनी है कि यदि तैमूर-लंग तबाही मचाये तो वो विदेशी आक्रान्ता है, निंदनीय है और यदि अशोक राज्य फैलाए तो वो सम्माननीय है, सड़कों को उसका नाम दिया जा सकता है, अशोक चक्र को तिरंगे में लगाया जा सकता है.
आरएसएस अक्सर विष्णु पुराण के एक श्लोक का ज़िक्र करता है. “उत्तरम यत समुद्रस्य, हिमाद्रे चेव दक्षिणं” भारतं ततं नाम, भारती यत्र संत्तती.” जिस भू-भाग के उत्तर में समुद्र है और दक्षिण में हिमालय है वर्षों से उस जगह का नाम भारत है और वहां की संतानों को भारती कहा जाता है.
लेकिन आरएसएस का जोर भारत या भारती शब्द पर बहुत कम है, सारा जोर हिन्दू शब्द पर है और इस बात पर है कि सब हिन्दू हैं चाहे वो सिक्ख, बौध या जैन कोई भी हों.
अब मैं विकीपेडिया से हुबहू एक हिस्सा उठा कर पेश कर रहा हूँ.
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भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश "हिन्दुस्तान" है। "बृहस्पति आगम" के अनुसार:
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात् हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
"हिन्दू" शब्द "सिन्धु" से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं - पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा - कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर "न्दु", इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना "हिन्दु" और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दू शब्द उस समय धर्म के बजाय राष्ट्रीयता के रुप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए "हिन्दू" शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।
आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों ने विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फ़ारसीशब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है - वो भूमि जहाँ आर्यसबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की "स्" ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन "स्") ईरानी भाषाओं की "ह्" ध्वनि में बदल जाती है। इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मे जाकर हफ्त हिन्दु मे परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फ़र्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
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‘हिन्दू’ नाम दो तरह से आया माना जा सकता है एक प्राचीन भारत से और दूसरा भारत से बाहरी लोगों से जो सिन्धु को हिन्दू बोलते थे. दोनों ही धारणाओं से कहीं भी यह प्रकट नहीं होता कि हिन्दू कोई धर्म है या किसी ख़ास जीवन शैली का नाम है. आज आप अमेरिका में रहने वालों को अमेरीकी बोलते हैं तो इसका मतलब यह तो नहीं कि अमेरीकी कोई धर्म हो गया या किसी ख़ास जीवन शैली का ही नाम है. वहां अनेक तरह की मान्यताओं के लोग हो सकते हैं. हम उनको अमेरीकी मात्र एक भू-भाग की वजह से बुलाते हैं जिसका नाम अमेरिका है. वही भारत के साथ हुआ है. यहाँ अनेक तरह की धारणायों और मान्यताओं के लोग थे. बाहरी लोगों ने उनको हिन्दू कहा या पहले से ही वो हिन्दू कहलाये जाते थे तो सिर्फ एक भू-भाग के नाम की वजह से न कि किसी एक निश्चित या फिक्स जीवन शैली की वजह से.
यहाँ अनेक मान्यताएं रही हैं, और आज भी हैं. एक दूसरे की विरोधी मान्यताएं भी. आज अगर राम के मदिर हैं तो रावण पूजने वाले भी हैं. कृष्ण को पूजने वाले हैं तो दुर्योधन को पूजने वाले भी हैं. यहाँ की मान्यताओं को प्रभाषित करना, परिसीमित करना बुनियादी रूप से गलत है.
फिर आरएसएस ने ऐसा क्यूँ किया? मात्र. इस्लाम की वजह से. इस्लाम एक परिसीमित, परिभाषित जीवन शैली है. उसका मुकाबला करने के लिए यह सब ज़रूरी समझा गया आरएसएस के चिंतकों द्वारा. उसी चिंतन का नतीजा है हिंदुत्व.
(2) असल में हिन्दू कोई धर्म था ही नहीं और न है. हिन्दू कोई एक संस्कृति भी नहीं है, जैसा संघ समझाता आ रहा है. यहाँ विभिन्न तरह के विचारों का जन्म हुआ.....एक दूसरे के विरोधी तक.....यहाँ चार्वाक हुए, बुद्ध हुए, महावीर जो परमात्मा को इनकार किये....यहाँ राम को मानने वाले हुए तो रावण को मानने वाले भी.....यहाँ वेद को मानने वाले हुए तो आप को वेद विरोधी भी मिल जायेंगे.....
जब राम पिता के कहने से अयोध्या छोड़ निकलते ही हैं तो उन्हें जाबाल मिलता है....वो रोकता है राम को इस तरह छोड़ कर जाने से...... जो वो कहता है राम से, वो बहुत ही मूल्यवान है. चार्वाक जैसे तर्क देता है. लेकिन राम तर्क से उसे जवाब देने की बजाए, अपने बाहुबल से धमका कर भेज देते हैं.
मैं तो जाबाल के पक्ष में हूँ.
मैं तो बुद्ध के पक्ष में हूँ जो कहते हैं कि कोई परमात्मा है नहीं, बिलकुल नहीं है वैसे, जैसे आपके मंदिरों, गुरुद्वारों में समझाया जाता है कि कोई दाता बैठा है आपकी खाली झोलियाँ भरने को, बिलकुल नहीं है
मैं तो रोज़ भिगो भिगो के जूतियाँ मारता हूँ तथा कथित हिन्दू समाज की बकवासबाज़ी को.....अब आप मुझे हिन्दू कहोगे? कहोगे? जबकि मैं खुद अपने आपको हिन्दू नहीं मानता.
क्या बौध मानते हैं कि वो हिन्दू हैं, क्या सिक्ख मानते हैं कि वो हिन्दू हैं? नहीं.
मैं हैरान हुआ कहीं पढ़ा कि एक कोई पश्चिम की लेखिका है वेंडी डोनिजर, ये लिखती हैं हिन्दू धर्म पर और उन लोगों को भी शामिल कर लेती हैं हिन्दुओं में जो खुल कर कहते रहे कि वो हिन्दू नहीं हैं
यही हुआ, यदि आप मोटे हैं बहुत तो आपको एक कम मोटा कमज़ोर लगेगा. मेरी बिटिया जो कि हर लिहाज़ से तंदुरुस्त है, वो सबको कमज़ोर लगती है, डॉक्टर ने तो पर्चे पर लिख तक दिया कि उसकी ग्रोथ सही नहीं है.
यही हुआ भारत के साथ. जिन लोगों की आँखों पर चश्मा चढ़ा था एक लगे बंधे धर्म का, वो यहाँ की मान्यताओं को भी उसी तरह से परिभाषित करने लगे. और अब संघ के तमाम प्रयास हैं ऐसे लोगों की परिभाषा को सही साबित करना.
दुर्भाग्य है भारत का.
दुर्भाग्य है भारत का, विभिन्न विचारधाराओं को हिन्दू शब्द के झंडे तले एकत्र करने का प्रयास
दुर्भाग्य है हिंदुत्व शब्द का प्रयोग
वीर सावरकर को डर यह था की यह जो विदेशों से आये धर्म मुस्लिम, इसाई आदि हैं, ये यहाँ की संस्कृति को खा न जाएँ. उसके लिए उसने संघ की विचारधारा को प्रतिपादित किया. हिंदुत्व को परिभाषित किया. यहाँ की विभिन्न मान्यताओं को घेरे में बाँधने का प्रयास किया.
बस यहीं चूक हो गई. किसी भी विचारधारा से आप असहमत है तो उसका विरोध करें, विचार से न कि किसी भी अन्य तरह की सही-गलत विचारधारा खड़ी करके.
धर्म के नाम पर या किसी भी तरह की जोर जबरदस्ती का विरोध करना है तो ज़रूरी नहीं कि लोगों को लामबंद करने के लिए एक और धर्म खड़ा किया जाए या धार्मिक लाम बंदी की जाए.
नहीं, आप बिना धार्मिक गुटबन्दी करे भी लामबंदी कर सकते हैं, मात्र वैचारिक सांझ पर. थोड़ा मुश्किल काम है लेकिन ऐसा हो सकता है.
धर्म के नाम पर इक्कट्ठ कदापि आसान है लेकिन बिना धर्म का प्रयोग किये भी यह काम हो सकता है. एक मिसाल अन्ना आन्दोलन है. कितना सही गलत, वो मुद्दा यहाँ नहीं. लेकिन हर धर्म के लोग खड़े हो गए, भ्रष्टाचार के खिलाफ.
फौजें बनाई जाती हैं, वहां हर धर्म के लोग भर्ती भी किये जाते हैं. इसी तरह अगर किन्ही मान्यताओं से पूरी इंसानियत को खतरा हो तो उसके लिए भी एकजुट हुआ जा सकता है बिना एक नया धर्म चलाए या बिना धार्मिक गुटबन्दी किये.
मुश्किल है, लेकिन किया सकता है, किये जाने के काबिल है.
और करना वो ही चाहिए जो किये जाने की काबिल हो, अन्यथा आसान रास्ता और मुश्किल रास्ते पर डाल सकता है.
संघ का प्रयास ऐसा ही है. भारतीय समाज को खुली सोच देने की बजाए एक डिब्बाबंद सोच पकड़ाए दे रहा है, इसलिए कि संघ अन्य डिब्बाबंद सोचों से डरता है.
सब तरह की डिब्बाबंदी का विरोध किया जाना चाहिए, डट के किया जाना चाहिए. खुल कर किया जाना चाहिए, बिना कोई और नई डिब्बाबंदी चलाए.
सो संघ का चुना आसान रास्ता भारत को और मुश्किल रास्तों पर डाल देगा, डाल रहा है.
आज ज़रुरत है सभी डिब्बाबंदी को बंद करने की.
मुश्किल है, लेकिन वही किये जाने के काबिल है
(3) मैं अक्सर देखता हूँ कई लोग कहते हैं कि मुस्लिम बाहर से आये हम पर हमलवार थे...क्या किसी ने यह पूछा कि अशोक ने कलिंग के युद्ध में खून बहाया तो क्या वो कलिंग के लिए बाहर से आया हमलावर नहीं था?
वाल्मीकि रामायण में साफ़ लिखा है कि राम अपने ऐसे पड़ोसी राजाओं पर हमला करता है जिनका कभी कोई झगड़ा ही नहीं था उससे ....वो क्या था.....वो हमलावर नहीं था क्या?
सच बात तो यह है कि यहाँ का हर राजा का अपना देश था......और हर पड़ोसी राज्य उसके लिए विदेश था...बाहरी था
यहाँ आज तक दिल्ली में बिहारी मज़दूर कहता है कि वो अपने मुलुक वापिस जा रहा हूँ और आप कहते हैं कि देश एक था....मुहावरे आपको इतिहास बताते हैं
और एक बात कही जाती है कि चाहे आपस में संघर्ष था लेकिन सांस्कृतिक तौर पर हम एक थे......राम रावण एक ही देवता के पुजारी थे.......महाभारत तो खैर हुआ ही एक ही परिवार में था...सो एक ही तरह की आस्थाएं थी.....सो भारत चाहे राजनीतिक तौर पर एक देश न रहा हो लेकिन सांस्कृतिक तौर पर तो रहा है
आरएसएस का राष्ट्र्वाद तो टिका ही इस बात पर है कि भारत एक ऐसे भू भाग का नाम है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि शामिल हैं.......संघ में तो ऐसा एक नक्शा भी दिखाया जाता है....अब मज़े की बात यह है कि भारत में कभी अंग्रेज़ों के समय के अलावा यह सब इलाके एक झंडे तले रहे नहीं.....अशोक के समय एक बड़ा राज्य रहा लेकिन अशोक बौद्ध हो गया...और बौद्ध कभी हिन्दू की जो मुख्य धारा थी उसमें शामिल नहीं थे.....उनका विरोध रहा है....रामायण में बुद्ध को चोर कहा गया है.....आरएसएस का राष्ट्रवाद इस बात पर भी टिका है कि यहाँ कि संस्कृति को हिंदुत्व कहा जाए.....अजीब ज़बरदस्ती है.......जो लोग खुद को हिन्दू नहीं मानते......वो भी खुद को हिन्दू ही कहें.....और तो और जो देश आज भारत के नक़्शे में नहीं हैं हम उनको भी भारत का हिस्सा मानें.....राजनीतिक न सही सांस्कृतिक तौर पर तो मानें....अगले चाहे न मानें लेकिन हम तो मानें.......वहाँ यहाँ चाहे कितनी ही विरोधी मान्यताओं के लोग रहे हों, रह रहे हों लेकिन सबको एक संस्कृति से जुड़ा मानें....और वो संस्कृति हिंदुत्व है......और वो संस्कृति दुनिया की महानतम संस्कृति है...अब यह अजीब जबरदस्ती है ...जिसे शब्द जाल से उलझाया गया है ...थोड़ा सुलझाने का प्रयास करता हूँ
किसी एक भू खंड में लोगों की सोच समझ में असमानता होते हुए यदि एक संस्कृति माननी है तो फिर पूरी पृथ्वी को एक संस्कृति मानना चाहिए.....होता रहे आपस में संघर्ष...संघर्ष तो कलिंग के युद्ध में भी हुआ, और महाभारत में भी और राम रावण युद्ध में भी.....यदि ये सब एक ही संस्कृति के लोग है तो फिर पूरी दुनिया क्यों एक संस्कृति नहीं है? सोच के देखिये
और फिर यहाँ भारत में भी लोग रहे हैं जो एक दूसरे के विरोधी विचारधारा वाले थे और हैं...तो फिर मात्र इसलिए कि कोई इस पृथ्वी के किसी और भू भाग से है और किसी और तरह की मान्यताओं से जुड़ा है अलग कैसे हुआ? .....वो भी हमारी ही संस्कृति का हिस्सा कैसे न हुआ?
हम अपनी सांस्कृतिक सोच को सार्वभौमिक क्यूँ नहीं रख सकते?
काहे किसी एक भू भाग तक सीमित करें?
और संस्कृति क्या मात्र इतनी ही है कि कोई लोग किस तरह की धार्मिक मान्यताओं से जुड़े हैं?
संस्कृति शब्द को देखें.......तीन शब्द है....प्रकति.....विकृति और संस्कृति.....जब आप प्रकृति से नीचे गिर जाएँ तो विकृति है ऊपर उठ जाएँ तो संस्कृति है....
अब हमारे यहाँ जिस तरह का जीवन रहा है वो कुछ मामलों में संस्कृत था तो कुछ में विकृत......यहाँ कि चातुरवर्ण व्यवस्था ......वो विकृति थी.....यहाँ की पाक कला, नृत्य कला, गायन कला संस्कृति थी
और संस्कृति कोई तालाब का खड़ा पानी थोड़ा होता है....वो तो बहाव है.....कलकल करती नदी
और संस्कृति कोई किसी भू भाग तक सीमित थोड़ा होती है....वो असीम होती है
संस्कृति मतलब समय के हिसाब से सर्वोतम रहनसहन......और वो सर्वोतम कहीं से भी आता हो सकता है पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण कहीं से भी .....कल दूसरे ग्रहों से भी .....यह है संस्कृति, जो संस्था संस्कृति को किसी भू भाग तक सीमित समझे वो खुद विकृत है.
वैसे जिस समाज के अधिकांश लोग गरीब हों, जीवन की साधारण ज़रूरतों से ऊपर न उठ पाएं वो समाज संस्कृत नहीं विकृत है..इस लिहाज़ से अभी दुनिया में कहीं कोई संस्कृति है ही नहीं
हम सिर्फ पुरानी परम्पराओं के जोड़ को....संस्कृतियाँ समझ रहे हैं.
मानव इतिहास उठा कर देखो......मार काट से भरा है....खून से भरा है...यह कोई संस्कृतियों का इतिहास है.?...या विकृतियों का इतिहास है?
दुनिया के अधिकांश लोग गरीबी में पैदा हुए है और गरीबी में मरे हैं...यह कोई संस्कृतियाँ हैं?
और आज भी दुनिया के अधिकांश लोग गरीब पैदा होते है , गरीब मरते हैं......यह कोई संस्कृति है?
चंद लोग चांदी काटें, बाकी बस दिन काटें, यदि यह संस्कृति है तो फिर विकृति क्या होती है?
प्रकृति तो कोई बच्चा गरीब पैदा नहीं करती, फिर आप की महान संस्कृति ठप्पा लगाती है कि कौन अमीर कौन गरीब. इसे संस्कृति कहते हैं? फिर विकृति क्या होती है?
लानत है!
संस्कृति अभी तक इस धरती पर ठीक से पैदा हुई ही नहीं है, हो सकती है, लेकिन हुई नहीं है
और क्या मात्र धार्मिक मान्यताओं से ही कोई संस्कृति निर्धारित होती है?
ये धार्मिक मान्यताएं सिवा अंध विश्वास के हैं क्या?
इसे संस्कृति तो कदापि नहीं कहा जा सकता, हाँ विकृति जरूर कह सकते हैं
जीवन कुछ मामलों में समृद्ध ज़रूर हुआ है, संस्कृत ज़रूर हुआ है लेकिन अधिकांश मामलों में विकृत है
उम्मीद है हम सब इस भ्रम से बाहर आ पाएं कि हमारे पूर्वजों की कोई संस्कृति थी या हम किसी संस्कृति में जी रहे हैं
नमन.....कॉपीराईट मैटर...शेयर कीजिये स्वागत है
तुषार कॉस्मिक
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