Sunday, 27 August 2017

कृष्ण की बकवास गीता-एक और नमूना

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन. अर्थ है कि कर्म का अधिकार है लेकिन फल का नहीं.......यानि फल पर आपका अधिकार नही, हक नहीं.........मतलब कर्म करे जा भाई....फल पर अधिकार तेरा नहीं है....हक़ नही है. तो फिर किसका हक़ है? (पंडों का. राजनेताओं का.) कौन करेगा ऐसे कर्म? सिर्फ अक्ल के अंधे...जिन्हें धर्म की जहर पिला दी गई हो. एक अर्थ यह भी किया जाता है कि कर्म तुम्हारे हाथ में है करना लेकिन फल तुम्हारे हाथ में नही है, वश में नही है. सो फल की चिंता मत कर. अब कर्म के फल पर "वश" की बात कर लेते हैं. कैसे नहीं है फल पर वश? आज कहीं भी McDonald खुलता है, सम्भावना यह है कि चलता ही है. क्यों? फल तो "वश" में नहीं है. जब आप पहले से ही मान बैठेंगे कि फल आपके वश में नहीं है तो इस तरह से कर्म करने की प्रेरणा भी नहीं आएगी. फल आपके कमों के अनुरूप ही आता है. कर्मों से अर्थ मात्र शारीरिक लेबर नहीं है. कर्मों से अर्थ है डेटा कलेक्शन, प्लानिंग, ब्रेन स्टोर्मिंग और फिर सही से Execution. ऐसे आता है इच्छित फल. मात्र गीता में लिखे होने से, कृष्ण के कहे होने से कोई बात सही नहीं हो जाती. पॉइंट सिर्फ इतना है कि कर्म से फल के चिंतन को, फल की इच्छा को, फल के अधिकार को, फल के वश में होने को अगर हटाने की कोई फिलोसोफी कह रही है तो वो कहाँ तक ठीक-गलत है. फल की इच्छा के बिना कोई कर्म क्यों करेगा? कार्य-कारण का सीधा सिद्धांत है. Cause and Effect. किसी को कहो कि Effect की सोच ही मत, तू बस Cause पैदा कर, वो कहेगा, "पागल हो क्या?" "फल की मत सोच, आये न आये, तू बस कर्म करे जा, मेहनत करे जा, श्रम करे जा." ऐसा किसी भी साधारण समझ के व्यक्ति से कहोगे तो वो तुम्हे पागल मानेगा लेकिन किसी धार्मिक व्यक्ति से, अध्यात्मिक व्यक्ति से कहोगे, कृष्ण भक्त से कहोगे तो वो धन्य-धन्य हो जायेगा. ये तर्कातीत लोग हैं भई, इनकी क्या कहें? खैर, मेरी समझ है कि कर्म से पहले विचार पर जोर देना चाहिए और फल की इच्छा किये बिना कोई भी कर्म करना ही नहीं चाहिए. असल में फल की इच्छा के बिना तो कोई व्यक्ति वैसे भी कर्म कर ही नहीं सकता. कुछ देर कर भी ले लेकिन बहुत ज़्यादा देर नहीं कर पायेगा. सो इस बकवास में पड़ने का कोई मतलब नहीं है. एक तर्क यह भी है कि विचार भी किया जाता है, कर्म भी किया जाता है फिर भी इच्छित फल नहीं मिलता. क्यों? समझ लीजिये यह भी. अगर कोई दस मंजिल से कूदेगा तो कितना चांस है कि उसे चोट नहीं लगेगी? क्या सम्भावना है? यह कि वो मर जाये. कर्म का फल तय है कि नहीं. डेढ़ बोतल दारु पीया व्यक्ति सड़क पर गाड़ी चलाए जाता है. होश है नहीं फिर भी ....कितनी सम्भावना है कि दो सौ किलोमीटर दूर घर सुरक्षित पहुँच जाए भीड़ वाले हाईवे के ज़रिये? लगभग जीरो. कर्म का फल तय हुआ कि नहीं. किसान बीज बोता है......बारिश होती है......धूप पड़ती है.....फसल होती है......पिछले साल भी हुई थी...उससे पीछे भी.....लेकिन दस साल पहले हुआ था कि सही बारिश नहीं हुई, धूप नहीं मिली तो फसल पूरी तबाह हो गई...उससे पीछे भी उसके पिता के समय लगभग 15 साल पहले भी ऐसा हुआ था.....इस साल भी हो सकता है लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता.....किसान सम्भावना के सिद्धांत को जानता है....उसे पता है कि फसल खराब हो सकती है लेकिन वो सब अपवाद है. वो अपवाद को अपवाद मानता है नियाम नहीं. आशा है आप भी अपवाद को नियम नहीं मानेंगे और अपवाद से नियम सही साबित होता है न कि गलत, यह भी समझ जायेंगे. नमन...तुषार कॉस्मिक

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