पश्चिम विहार से आज फिर तीस हज़ारी कोर्ट जाना हुआ. बर्फखाना से ठीक पहले के ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी रोकी. वो कोई साठ के पेटे में हैं. खाकी कपड़े पहने. काले जूते, फीते वाले. पुराने लेकिन पोलिश किये हुए. उनका चेहरा और जूते दोनों पर सलवटें हैं. दूर से देखने पर वो पुलिस वाले लगते हैं लेकिन हैं नहीं. जी-जान से ट्रैफिक संभालते हुए.
पिछली बार मेरी कार का दरवाज़ा एक औरत ठक-ठकाती रही लेकिन मैंने उसे कुछ नहीं दिया. हाँ, इन खाकी वर्दी वालों को इशारे से बुलाया और पचास का नोट थमा दिया. वो औरत मेरा चेहरा ताकती रही और खाकी वर्दी वाले भी.
वो इस बार फिर से वहीं थे. आज कोई औरत नहीं आई और मैं उनको चालीस रुपये ही दे पाया. पैसे लेते ही वो फिर से ट्रैफिक सम्भालने लौट गए. मैं सोचने लगा, "क्या उस दिन उस औरत को कुछ भी न देकर मैंने गलत किया? वो भी तब जब मैंने उसके सामने इन खाकी वर्दी वालों को पचास की पत्ती दी?"
फिर ख्याल आया, "अब मांगने वालों में भी कहाँ कोई गरिमा बची? अब कहाँ हैं ऐसे लोग, जो कहते हों, "जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला"? ये जो लोग मेरे शहर में मांगते हैं, ये तो गाड़ी का शीशा ऐसे बजाते हैं जैसे भिक्षा नहीं, कर्ज़ा वसूल रहे हों, जैसे न दिया तो शीशा तोड़ के गाड़ी में घुस आयेंगे, जैसे साफ़ कह रहे हों, "दो नहीं तो चैन से बैठने नहीं देंगे."
अपने ही तर्कों से थोड़ा सा शांत हो चला मैं. तीस हज़ारी कोर्ट भी आने को ही था. गाड़ी पार्किंग में और मैं कोर्ट में. सब हवा हो गया. वापिस आया तो लगा आप सबको लिखना चाहिए. सो हाज़िर है वाकया.
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