ओशो के बाद बहुत से नकली बाबा-बाबियां आये. सब नकली.
उनकी तरह महंगे चोगे, महंगी गाड़ियाँ, अमीरी जीवन अपना लिया. उनका mannerism चुराया, उनके कहे किस्से, चुटकले तक प्रयोग कर लिए. उनके दिए आईडिया पर आगे किस्से-कहानियाँ बना लिए और लगे प्रवचन पेलने.
सब अपना लिया लेकिन उनके जैसी इमान-दारी न ला पाए, धार न ला पाए, अक्ल न ला पाए, उनके जैसी हिम्मत न जुटा पाए.
भूतनी वालों ने ओशो के सब तर्क अपने हिसाब से मोड़-तरोड़ लिए. सुनने वाले भी सब चुटिया.
ऊपर से नए-नए चैनल की बरसात. नकली चेलों को नकली गुरु चाहिए थे, मिल गए. जो लीपा-पोती वाली बातें सुनना चाहते थे लोग, वो ही शास्त्रीय शब्दों की चाशनी में घोल कर इन बाबाओं ने पिला दी लोगों को.
ये साले गुरु थे! गुरु तुम्हारी परवाह ही नहीं करता कि तुम्हें क्या अच्छा लगेगा, क्या नहीं? वो दे लट्ठ मारेगा. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ. दे दनादन. जाओ भाड़ में. मैंने सुना है कि कुछ फ़कीर तो अपने चेलों को थोक में गालियाँ देते थे और कई तो लट्ठ भी जबर-दस्त पेलते थे. तुम हो ही इसी लायक. जब तक खोपड़ी पे लट्ठ न पड़े, कोई ढंग की बात घुसती ही नहीं इसमें.
ऐसा नही कि ओशो सब जगह सही थे या उनसे कभी कुछ गलती ही नहीं हुई. मैंने तो उनकी गलतियों पर कितना ही लिखा है. लेकिन वो नकली व्यक्ति नहीं थे. खालिस आदमी.
और ये साले नकली. कार्बन की भी कार्बन कापियां.
बस यहीं फर्क है.
तुषार कॉस्मिक
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