Sunday, 26 August 2018

रक्षा-बंधन

"रक्षा बंधन" एक बीमार समाज को परिलक्षित करता है यह दिवस. और हम इत्ते इडियट हैं कि अपनी बीमारियों के भी उत्सव मनाते हैं. एक ऐसा समाज हैं हम, जहाँ औरत को रक्षा की ज़रूरत है. किस से ज़रूरत है रक्षा की? लगभग हर उस आदमी से जो उसका बाप-भाई नहीं है. यह है हमारे समाज की हकीकत. और इसीलिए रक्षा-बंधन की ज़रूरत है. इस तथ्य को समझेंगे तो यह भी समझ जायेंगे कि यह कोई उत्सव मनाने का विषय तो कतई नहीं है. इस विषय पर तो चिंतन होना चाहिए, चिंता होनी चाहिए. और हम एक ऐसा समाज है, जिसमें बहन अगर प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग ले तो भाई राखी बंधवाना बंद कर देता है. "जा, मैं नहीं करता तेरी रक्षा." वैरी गुड. शाबाश. तुषार खुस हुआ. वैसे एक तथ्य यह भी है कि जितने भी बलात्कार होते हैं, करने वाले मामा, ज़्यादातर चाचा, चचेरे-ममेरे भाई, भाई के दोस्त आदि ही होते हैं. सब रिश्तेदार ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कहता, रिश्तों पर जान लुटाने वाले लोग भी होते हैं. अरे यार, बहना से मिलना है, भाई से मिलना है, मिलो. उत्सव मनाना है मना लो. मुझे कोई एतराज़ ही नहीं. लेकिन ये सब ढकोसले जो हम ढोते आ रहे हैं न, इन पर थोड़ा विचार भी कर लो. समाज ऐसा बनाओ कि औरत को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े. उसे आर्थिक-समाजिक-शारीरिक रूप से सक्षम बनाओ ताकि वो खुद लड़ सके. लेकिन इतनी भी सक्षम मत बना देना कि वो मर्दों पर छेड़-छाड़ के झूठे कोर्ट केस ठोक कर जेल करवा दें या फिर दहेज़ या घरेलू हिंसा के झूठे केसों में न सिर्फ पति बल्कि उसकी शादी-शुदा कहीं और बसी बहन का भी जन्म हराम कर दें. एक मित्र हैं विनय कुमार गुप्ता मेरी लिस्ट में. उनका कमेंट था, "राखी मात्र बहन भाई का पर्व नहीं है।अपने धर्म संस्कृति की रक्षा का संकल्प दिलाते थे समाज के अग्रजन आज के दिन." मुझे इनकी बात कुछ खुटकी. बात तो सही लगी. मैंने देखा है कई बार, ब्रहामणों को लाल रंग का धागा कलाई पर बांधते हुए धार्मिक किस्म के आयोजनों में. पंडित साथ-साथ कुछ बुदबुदाते भी हैं. जिसे मन्त्र कहा जाता है, हालांकि उन शब्दों का अर्थ किसी को भी नहीं पता होता, शायद पंडित जी को भी नहीं. खैर, मुझे बस दो शब्द "माचल: माचल:" याद आ गए, चूँकि ये शब्द बार-बार बोले जाते हैं. मैंने कुछ खोज-बीन की, कुछ गूगल किया, फेसबुक खंगाला तो विनय जी बात सही साबित हुई. जो मैंने पढ़ा वो हाज़िर है:-- 1. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम बांधी थी राजा बलि को राखी, तब से शुरू हुई है यह परंपरा. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम राजा बलि को बांधी थी। ये बात है तब की जब दानवेन्द्र राजा बलि अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे। तब नारायण ने राजा बलि को छलने के लिए वामन अवतार लिया और तीन पग में सब कुछ ले लिया। फिर उसे भगवान ने पाताल लोक का राज्य रहने के लिए दे दिया। इसके बाद उसने प्रभु से कहा कि कोई बात नहीं, मैं रहने के लिए तैयार हूं, पर मेरी भी एक शर्त होगी। भगवान अपने भक्तों की बात कभी टाल नहीं सकते थे। तब राजा बलि ने कहा कि ऐसे नहीं प्रभु, आप छलिया हो, पहले मुझे वचन दें कि मैं जो मांगूंगा, वो आप दोगे। नारायण ने कहा, दूंगा-दूंगा-दूंगा। जब त्रिबाचा करा लिया तब बोले बलि कि मैं जब सोने जाऊं और जब मैं उठूं तो जिधर भी नजर जाए, उधर आपको ही देखूं। नारायण ने अपना माथा ठोंका और बोले कि इसने तो मुझे पहरेदार बना दिया है। ये सबकुछ हारकर भी जीत गया है, पर कर भी क्या सकते थे? वचन जो दे चुके थे। वे पहरेदार बन गए। ऐसा होते-होते काफी समय बीत गया। उधर बैकुंठ में लक्ष्मीजी को चिंता होने लगी। नारायण के बिना उधर नारदजी का आना हुआ। लक्ष्मीजी ने कहा कि नारदजी, आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं। क्या नारायणजी को कहीं देखा आपने? तब नारदजी बोले कि वे पाताल लोक में राजा बलि के पहरेदार बने हुए हैं। यह सुनकर लक्ष्मीजी ने कहा कि मुझे आप ही राह दिखाएं कि वे कैसे मिलेंगे? तब नारद ने कहा कि आप राजा बलि को भाई बना लो और रक्षा का वचन लो और पहले त्रिबाचा करा लेना कि दक्षिणा में मैं जो मांगूंगी, आप वो देंगे और दक्षिणा में अपने नारायण को मांग लेना। तब लक्ष्मीजी सुन्दर स्त्री के वेश में रोते हुए राजा बलि के पास पहुंचीं। बलि ने कहा कि क्यों रो रही हैं आप? तब लक्ष्मीजी बोलीं कि मेरा कोई भाई नहीं है इसलिए मैं दुखी हूं। यह सुनकर बलि बोले कि तुम मेरी धरम बहन बन जाओ। तब लक्ष्मी ने त्रिबाचा कराया और बोलीं कि मुझे आपका ये पहरेदार चाहिए। जब ये मांगा तो बलि अपना माथा पीटने लगे और सोचा कि धन्य हो माता, पति आए सब कुछ ले गए और ये महारानी ऐसी आईं कि उन्हें भी ले गईं। (https://m dot dailyhunt.in/news/india/hindi) फिर दूसरी जगह यह पढ़ा:--- २. "येन बद्धो बलिराजा,दानवेन्द्रो महाबलः तेनत्वाम प्रति बद्धनामि रक्षे,माचल-माचलः" अर्थात दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो,चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे,उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं,यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना,स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है। (http://pandyamasters dot blogspot dot com/2016/08/) अब बात तो विनय जी की सही साबित हुई लेकिन नतीजा मेरा वो नहीं है, जो विनय जी ने दिया. नतीजा मेरा यह है कि यह उत्सव यदि सच में ही उपरोक्त कथा से जुड़ा है तो फिर साफ़ है कि ब्रहामणों ने मात्र अपनी रक्षा के उद्देश्य से यह परम्परा घड़ी. अब मेरे पास इस उत्सव को नकारने का यह दूसरा कारण है. किसलिए करनी ब्राह्मणों की रक्षा? आज के जमाने में उनका कैसा भी योगदान नहीं जिसके लिए समाज उनकी रक्षा के लिए अलग से प्रतिबद्ध हो. न. परम्परा का अर्थ यह नहीं कि बस ढोए जाओ आंख बंद करके. भविष्य में जब कलाई पर पंडित बांधे लाल धागा (मौली) तो यह सब याद रखियेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक

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