आज ही ओशो का नानक साहेब की काबा यात्रा के बारे में एक ऑडियो सुन रहा था......दो चीज़ अखरीं.....वो कहते हैं कि नानक हिन्दू थे.....और दूसरा कि उन्होंने सिक्ख धर्म चलाया था...दोनों ही बात मुझे नहीं जमती.
नानक साहेब ने बचपने में ही जनेऊ को इंकार कर दिया था, जो हिन्दुओं का एक ख़ास कर्म-काण्ड है, फिर हरिद्वार में लोग सूरज को पानी दे रहे थे, वो उल्टी दिशा पानी देने लगे. जगन्नाथ में होने वाली आरती पर भी उन्होंने कटाक्ष किया.
कैसे कहेंगे, उनको हिन्दू?
और उन्होंने कब चलाया सिक्ख धर्म? वो तो गोबिंद सिंह जी ने जब खालसा सजाया तब कहीं एक नए धर्म का बीज पड़ा.
"सब सिक्खों को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ."
इसी ऑडियो में ओशो कह जाते हैं कि "कबीर"" गाते थे और मरदाना जो कि मुसलमान था, बजाता था.
मुझे तो यह भी उचित नहीं लगता कि नानक साहेब के साथ चलने वाला कोई हिन्दू-मुसलमान रह जाए. नाम चाहे कोई भी ही, बाप-दादा चाहे किसी भी धर्म को मानते हों, वो खुद भी पहले चाहे कुछ भी मानता हो, लेकिन उस समय वो नानक साहेब के अंग-संग था. और उनका ख़ास संगी-साथी था. हो ही नहीं सकता कि ऐसा व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम रह जाए.
यह जो ओशो नानक को 'कबीर' कह गए, उसके लिए तो ओशो ने कहा कि चूँकि वो नानक, कबीर, फरीद आदि में फर्क नहीं देखते सो नाम गड्ड-मड्ड कर जाते हैं.
लेकिन बाकी पॉइंट ध्यान में रखता हूँ तो मुझे लगता है कि ओशो काफी कुछ गलती कर गए.
मेरी इस तरह की दसियों पोस्ट हैं, लेकिन मित्र गलत न समझें, मैं लाख कमियां, गलतियाँ छांट-छांट कर पेश करता हूँ, मुझे ओशो का कोई दुश्मन समझ कर न पढें या पढ़ कर दुश्मन न समझें. ओशो के प्रति प्रेम है मेरा, सम्मान है लेकिन मेरे ओशो प्रेम से यह भी मतलब नहीं है कि ओशो मुझे कहाँ गलत लगते हैं, कहाँ ठीक वो मैं नहीं सोचूंगा, नहीं कहूँगा.
नमन...तुषार कॉस्मिक.
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