पूछा है मित्र ने, "धर्म कहाँ गलत हैं?"

मेरा जवाब," उस जागतिक चेतना ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं.

मोटे नियम यानि व्यक्ति को अंत में मरना ही है, बूढ़े होना ही है...आदि....ये नियम उसके हैं....अभी तक उसके हैं, आगे बदल जाएँ, इन्सान अपने हाथ में ले ले, तो कहा नहीं जा सकता......बाकी कर्म का फल आदि उसने अपने पास नहीं रखा है.

बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि प्रभु कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब प्रभु/स्वयंभू खेल में दखल नहीं देता. आप लाख चाहो, वो पंगा लेता ही नहीं.

लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद?

तो धर्म तो समझाता है कि आओ अरदास करो, प्रार्थना करो, दुआ करो, प्रेयर करो तुम्हारी बात सुनी जायेगी.

यहीं मेरी सोच धर्मों से टकराती है.
मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं.
इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े हैं.
झूठे आश्वासन दाता.

मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे."

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