Wednesday, 28 November 2018

यात्रा:-- नकली लोक-तन्त्र से असली लोक-तन्त्र की ओर


“हमारा लोक-तन्त्र नकली है”


चुनावी माहौल है. भारत में चुनाव किसी बड़े उत्सव से कम नहीं है. गलियां, कूचे, चौक-चौबारे नेताओं के चौखटों से सज जायेंगे. मीटिंगें शुरू हो जायेंगी. भीड़ की कीमत बढ़ जाएगी. हर जगह उसकी मौजूदगी जो चाहिये. खाना-पीना मुफ्त, साथ में दिहाड़ी भी मिलती है. और सम्मान भी. चाहे नकली ही. लाउड स्पीकर का शोर सुनेगा जगह जगह. “जीतेगा भाई जीतेगा....” मैं सोचता हूँ जब सब जीतेंगे ही तो हारेगा फिर कौन? 

खैर, लोक-तन्त्र है. कहते हैं भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोक-तन्त्र है. लेकिन गलत कहते हैं. नहीं है. लोक-तन्त्र के नाम पर पाखंड है.
मज़ाक है लोक-तन्त्र का. चौखटा लोक-तन्त्र का है लेकिन असल में है राज-तन्त्र, धन-तन्त्र. ये जो नेता बने हैं, इनमें कितने ही ऐसे हैं जिनका किसी न किसी राज-परिवार से सम्बन्ध है. कितने ही ऐसे हैं जिनका बड़े कॉर्पोरेट से सम्बन्ध है. 

लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. Democracy is the Government of the people, by the people, for the people. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता, अपने लिए बनाता, जो आम-जन का ही है. फिर से सुनें. लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता है, अपने लिए बनाता है, जो आम-जन का ही है.

यह है परिभाषा लोक-तन्त्र की. क्या भारत का लोक-तन्त्र इस परिभाषा पर खरा उतरता है? क्या यह जो तन्त्र है, इसमें आम व्यक्ति चुनाव जीत  सकता हैं कितने ही विचार-शील हो कोई...कितनी ही गहन सोच रखता हो.....कितने ही सूत्र हों उसके पास इस समाज को सुधारने के...फिर भी बिना अंधे पैसे के वो चुनाव में कैसे कूदेगा? कूदेगा तो कैसे जीतेगा? 

लगभग असम्भव है. है कि नहीं?

तो फिर यह लोक-तन्त्र कैसे लोक-तन्त्र हुआ?

किसे बेवकूफ़ बना रहे हो लोक-तन्त्र के नाम पर? पहले अरबों-खरबों रूपया पानी की तरह बहा दोगे ताकि चुनाव जीत पाओ, फिर उससे कई गुणा लूटोगे, इसे लोक-तन्त्र कहते हैं?

बड़े आराम से हमें समझाया जाता है कि लोक-तन्त्र का अर्थ बेस्ट व्यक्ति चुनना नहीं है बल्कि सब घटिया लोगों में से सबसे कम घटिया व्यक्ति चुनना है. लानत है! सबसे कम घटिया चुनने का ही प्रावधान जो सिस्टम देता हो, वो कैसे अपनाए हुए हैं हम लोग? उसका सेलिब्रेशन कैसे कर सकते हैं हम लोग?

क्यों नहीं हम प्रयास करते कि हमारे समाज को बेहतरीन से बेहतरीन लोग मिलें? किसकी ज़िम्मेदारी है यह?

 मेरी ज़िम्मेदारी है, आपकी ज़िम्मेदारी है कि हम बेवकूफों की तरह वोट देने तक ही खुद को सीमित न रखें. राजनीति में आम आदमी का दखल क्या बस इतना ही होना चाहिए कि वो पांच साल बाद वोट दे और फिर पांच साल तक परित्यक्त सा नौटंकी-बाज़ों को झेलता रहे? 

इस भ्रम से बाहर आयें कि हम लोक तन्त्र में जी रहे हैं. न यह लोक तन्त्र है ही नहीं. तो पहली बात समझ लीजिये कि हमारा लोक-तन्त्र लोक-तन्त्र नहीं है. जी, यही कहा मैंने कि हमारा लोक-तन्त्र लोक-तन्त्र नहीं है. और जब यह लोक-तन्त्र ही नहीं है तो फिर इस तथा-कथित लोक-तन्त्र के तहत बना कोई भी प्रधान-मंत्री, मुख्य-मंत्री, संतरी हमारा नुमाईन्दा नहीं है. हमारा मंत्री-हमारा संतरी नहीं है. 


“नकली लोकतंत्र को असली लोक-तन्त्र में कैसे बदलें?”

चुनाव कैसे हो?

मैं प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ. यदि किसी ने कोई मकान बनवाना होता है तो वो अलग-अलग बिल्डरों को बुलवाता है. फिर उसके अपने मकान में, बिल्डर ईंट, सीमेंट, टाइल, पत्थर कैसा लगवाएगा उसकी डिटेल लेता है, कितने समय में बना के देगा, वो पूछता है. 

फिर अग्रीमेंट तैयार किया जाता है जिसमें सब बारीकी से लिखा जाता है. लेट होने की स्थिति में बिल्डर जुर्माना कितना भरेगा, वो लिखा रहता है. और बिल्डर यदि काम रोक दे, काम कर ही न पाए तो उसकी छुट्टी करने का प्रावधान भी लिखा रहता है. 

एक मकान बनाना और एक राष्ट्र बनाना. मकान बनवाने में हम जितनी एहतियात बरतते हैं राष्ट्र निर्माण में उसका एक प्रतिशत भी नहीं ख्याल नहीं रखते. राष्ट्र के मामले में हम सिर्फ ब्रांडेड शक्लों को वोट देते हैं. जो वादा करती हैं और फिर सरे आम मुकर जाती हैं. साफ़ कह जाती हैं ये शक्लें “अरे वो तो चुनावी जुमला था.” यानि चुनाव के मौसम में कुछ भी बका जा सकता है. मकसद सिर्फ वोट हासिल करना था. वाह!

याद रखना तुम वोट देते नहीं, वो वोट लेते हैं. छीनते हैं. जैसे गाय दूध देती नहीं, तुम दूध छीनते हो. ठीक वैसे ही. 

तो हल सीधा है.  हमें शक्लों की, दलों की ब्रांडिंग खत्म करनी है. हमें चुनावी शोर खत्म करना है. हमें चुनावी खर्च खत्म करना है. 

हमें राष्ट्र निर्माण करना है. तो हम सिर्फ इन नेता-गण से राष्ट्र का बिल्डिंग प्लान लेंगे. 

सबसे पहले तो सब पार्टी-बाज़ी खत्म. कोई दल नहीं होगा, ये सब दल नहीं दल-दल हैं. सब निरस्त. और वोट किसी व्यक्ति को नहीं मिलेगा. प्लान को मिलेगा. हर पांच साल बाद चुनाव के एक महीने पहले भावी राजनेता अपना-अपना प्लान पेश करेंगे. जिस काम के लिए व्यक्ति चाहिए, उसी काम के लिए प्लान लिया जायेगा. स्वास्थ्य मंत्री चाहिए तो स्वास्थ्य के लिए प्लान लिया जायेगा. साफ़-सफाई के लिए मंत्री चाहिए तो उसके लिए प्लान लिया जायेगा. मान लीजिये हमें निगम पार्षद चाहिए तो उसका काम है नालियाँ, सडकें, गलियां इनका रख-रखाव. उसके लिए उसका किसी दल से जुड़ा होना क्या ज़रूरी है? वो अपना प्लान पेश करे कि क्या विकास करेगा, कैसे विकास करेगा, कितना पैसा उसे चाहिए होगा, कितने समय में क्या करेगा. साथ में तीन-चार सौ रुपये फीस भी रखी जा सकती है ताकि व्यर्थ के लोगों को थोड़ा दूर रखा जा सके.

ये प्लान सीनियर अध्यापक-गण मिल कर चेक करेंगे. 

कॉपी पेस्ट किये गए सब प्लान निरस्त होंगे. 
किसी भी प्लान पर प्लान देने वाली की कोई पहचान अंकित नहीं होगी. 
प्लान में कोई भी मन्दिर-मस्जिद की बात नहीं होगी, कोई जात-पात की बात नहीं होगी. मात्र विकास की बात होगी. 

जो-जो प्लान पास हो जाते हैं, वो सब जनता के सामने आखिरी एक हफ्ते में पेश कर दिए जायेंगे, टीवी के ज़रिये, रेडियो के ज़रिये, अख़बार के ज़रिये. कोई नेता रैली नहीं करेगा, कोई मीटिंग नहीं करेगा, कोई भाषण नहीं करेगा. आखिरी हफ्ता मुल्क छुट्टी मनायेगा. दिए गए प्लान पर विचार करेगा और वोट करेगा. और वोट सेल-फोन के ज़रिये भी किया जा सकेगा. व्यक्ति का कोई खास महत्व नहीं. प्लान का है. लोग वोट प्लान को देंगे. 

जो-जो प्लान पहले पांच नम्बरों पर चुने जायेंगे, उनको भेजने वाले व्यक्तियों के पॉलीग्राफ टेस्ट होंगे, सबके नार्को टेस्ट होंगे ताकि पता लग सके कि जो प्लान वो दे रहे हैं, उस पर टिके रहने के इच्छुक हैं भी कि नहीं. पास होने वाले व्यक्तियों से अग्रीमेंट लेंगे. एफिडेविट लेंगे. और काम पर लगा देंगे.

और यदि वो जो करने को कह रहा है, जितने समय में करने को कह रहा है नहीं कर पाता तो उस व्यक्ति को दी गई सारी सुविधायें खत्म, उसकी जनता की नुमाईन्द्गी अगले दस साल के लिए खत्म. सिम्पल.

“असल लोक-तन्त्र की कार्य-विधि”

१.असल लोक-तन्त्र में प्लान ही महत्व-पूर्ण होना चाहिए प्लान देने वाला व्यक्ति गौण होना चाहिए. मिसाल लीजिये, जब बिल्डिंग बनती है तो बिल्डर या आर्किटेक्ट वहां हर वक्त खड़े नहीं रहते, उनका बस सुपर-विज़न रहता है. ऐसा ही राष्ट्र निर्माण में होना चाहिए. प्लान एक बार चुना जाये तो जिस व्यक्ति ने दिया वो बस ऊपरी देख-भाल करे. और यदि उतना करने में भी वो सक्षम नहीं तो उसके बाद जो भी लोगों को सबसे ज्यादा वोट मिलें उनको मौका मिले बशर्ते वो उस प्लान पर काम करने को तैयार हों. 

२. क्या यह सम्भव है कि बिल्डर अपनी मर्ज़ी से बिल्डिंग का नक्शा बदल दे? लेकिन यहाँ तो होता है ऐसा. नेता वादा करता है विकास का, नौकरियां देने का, महिला सुरक्षा देने, कीमतें घटाने का और पॉवर में आकर शहरों के नाम बदलने पर जोर देता है, ऊंची-२ मूर्तियाँ निर्माण करने लगता है,  सिलिंडर की कीमत डबल कर देता है, पेट्रोल डीजल के रेट बढ़ा देता है. न. चुना गया प्लान नहीं बदला जायेगा मात्र इस वजह से कि जिसने दिया था वो मर गया, बीमार हो गया, बे-ईमान हो गया. न. अगर आपका बिल्डर मर जाये तो क्या बिल्डिंग नहीं बनेगी? क्या बिल्डिंग प्लान आप बदल देंगे. क्या आधी बनी बिल्डिंग को तोड़ के दुबारा बनायेंगे कि बिल्डर भाग गया छोड़ के. नहीं न. आप दूसरा बिल्डर पकडेंगे और आगे का काम फिर से शुरू करवा देंगे. क्या आपकी रज़ामंदी के बिना बिल्डर बिल्डिंग प्लान बदल सकता है क्या? नहीं न. तो राष्ट्र के मामले भी ऐसा ही होना चाहिए. तो इसके लिए ज़रूरी है कि जो उसने शुरू में प्लान में दिया था उससे हट के वो कुछ भी करने का हकदार न हो और यदि करे तो पहले पब्लिक से उसकी सहमति ले. तभी तो इसे लोक-तन्त्र कहेंगे. नहीं तो वो कुछ भी करता रहेगा. कुल मतलब यह है कि पब्लिक की भागीदारी मात्र वोट देने तक सीमित न रखी जाये.

३. अब आगे. जब हम बिल्डिंग बनवाते हैं तो क्या बिल्डर पर अँधा विश्वास करते हैं कि वो जो मर्ज़ी करता रहे? उसने  अगर टाइल अस्सी रुपये प्रति फुट की लिख के दी है अग्रीमेंट में तो क्या हम देखते नहीं कि जो टाइल लगवाई जा रही है, वो अस्सी रुपये प्रति फुट की है कि नहीं? क्या हम नहीं देखते कि अगर उसने अपने अग्रीमेंट में जैगुआर की टॉयलेट फिटिंग लिख दी है लगाने को तो वो लगा रहा है कि नहीं. देखते हैं न. न सिर्फ देखते हैं बल्कि साथ जा कर खरीदते हैं. पसंद से खरीदते हैं. लेकिन हम क्या करते हैं राष्ट्र निर्माण में? एक बार चुन लिया मंत्री-संतरी, अब वो जो मर्ज़ी डील करता रहता है. किसी को नहीं पूछता. जनता को पता ही नहीं लगने देता कौन से हवाई जहाज़ क्यों खरीदे, कितने के खरीदे? 

४. आज-कल जब बिल्डिंग बनती है तो CCTV लगाये जाते हैं...दिन रात रिकॉर्डिंग चलती है जिसे बिल्डर या मालिक कहीं भी, कभी भी देख सकता है. कैसे कोई हेराफेरी कर जायेगा? बहुत मुश्किल है. यहाँ हम ने सारा निज़ाम खुले-छुट्टे सांड की तरह छोड़ रखा है. हम नेता को, नौकर-शाह को तनख्वाहें बांटते हैं बस. नहीं. हर नेता, हर नौकर-शाह कैमरे के तले होना चाहिए. उसकी हर गति-विधि जनता के सामने हो. जो भी जनता से सम्बन्धित है वो. कोई डील वो बिना रिकॉर्डिंग के नहीं करेगा. बस. आपको लोकपाल बनाने की ज़रूरत ही न पड़ेगी. आपको नकली नेता ढूँढने की ज़रूरत ही न पड़ेगी चूँकि ऐसे सिस्टम में आयेगा ही वही जो असल में कुछ काम करना चाहता है. आज जो सिस्टम हमने बना रखा है लोक-तन्त्र के नाम पर, उसमें इतने छिद्र हैं कि हमें चोर-उचक्के ही मिलेंगे. हमें भाषण-बाज़ ही मिलेंगे. हमें हिन्दू-मुसलमान करने-कराने वाल ही मिलेंगे. आप थोड़ी देर के लिए ट्रैफिक-लाइट हटा लें, गदर हो जायेगा चौक पर. जिसका जैसे मन करेगा वैसे निकालेगा अपनी गाड़ी. सो दोष सिस्टम को दीजिये. नेताओं को मत दीजिये.वो तो  वही करेंगे जो करने का आपका सिस्टम उनको मौका दे रहा है. आप ट्राफिक लाइट ठीक कर दीजिये, ट्रैफिक दुरुस्त हो जायेगा. आप छिद्र बंद कर दीजिये, आपके नेता सीधे हो जायेंगे.

५. चलिए, अगर बिल्डिंग प्लान के मुताबिक आपका बिल्डर काम नहीं करता तो आप क्या करते हैं? क्या उसे उसकी मन-मर्ज़ी से बिल्डिंग बनाने देंगे? नहीं न. आप उस बिल्डर को ही बदल देंगे. बस बिल्डिंग प्लान लीजिये, प्लान को वोट कीजिये, अपने नेता, अपने नौकरों को CCTV तले रखें, जो प्लान के मुताबिक काम न करे उसे बदल दीजिये. आपको सही लोक-तन्त्र मिलेगा. एक कम्पलीट पैकेज. मुझे नहीं लगता कि इस तरह से सोचा गया है आज तक. हो सकता है सोचा गया हो. इससे बेहतर सोचा गया हो. आप भी सोचिये. ये कुछ सुझाव हैं. आप अपने सुझाव भी दीजिये. जब पकवान बेस्वाद हो तो नए तरीके से बनाना चाहिए. ज़रूरी नहीं मेरे बताये तरीके ही अंतिम हों, आप भी सोच सकते हैं. मिल-जुल कर नया पकवान बनाया जा सकता है. बेहतरीन. स्वादिष्ट. healthy. स्वस्थ लोक-तन्त्र. सही अर्थों में लोक-तन्त्र. 

“NOTA कोई हल नहीं है”

आज तक आपके ऊपर लोकतंत्र के नाम पर एक अज़ीब व्यवस्था थोपी गई है. NOTA से भी कुछ नहीं होगा. NOTA दबाने का अर्थ है कि आपने अपनी राय रख दी बस कि आपको कोई भी कैंडिडेट पसंद नहीं. न हो पसंद. आप दबाते रहो. जो ज्यादा वोट पायेगा, वो फिर भी चुना ही जायेगा. फिर क्या फायदा हुआ NOTA का. NOTA से कुछ फायदा न होता.

“आखिरी रास्ता यही है”

यकीन जानें, आपके सब चुनाव वर्तमान व्यवस्था में फेल होंगे. कोई सरकार आये, कोई जाये कोई फर्क न पड़ेगा. और ये जो कहा जा रहा है न कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है, गलत है सरासर. यह अपमान है डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का, उनकी अक्ल का. ऐसा क्या है मोदी में कि उनसे ज्यादा कोई काबिल ही नहीं. न. ऐसा कुछ भी नहीं है. मेरे बताएं ढंग पर चलें...एक से एक व्यक्ति मिलेंगे. वैसे भी मेरे तरीके में व्यक्ति गौण है.....प्लान ही महत्वपूर्ण है. व्यक्ति रहे न....रहे...प्लान रहेगा...और प्लान पर काम वाले तो अनेक काबिल लोग मिल जायेंगे. 

तो फिर आपके पास क्या रास्ता है. आप क्या कर सकते हैं? क्या यह लेख पढ़ने मात्र को है. भूल जाने को है. नहीं. आप सुप्रीम कोर्ट को लिखें कि हमें सही लोक-तन्त्र दें. चुनाव आयोग को भेजे. आप अखबार को भेजें. सोशल मीडिया में आवाज़ उठाएं. बार-बार आवाज़ उठाएं. मेरे लेख, मेरे विडियो को सब जगह भेजें. यकीन जानिये, बदलाव आयेगा, ऐसा बदलाव जिसे हमने चाहा है लेकिन आज तक पाया नहीं है. 

अब आखिरी बात.....मैं समाज के लिए सोचता हूँ...लिखता हूँ....बोलता हूँ...तो क्या समाज भी मेरे लिए सोचेगा यदि हाँ, तो फिर डोनेट करें मुझे...ताकि मैं और समय दे सकूं सामाजिक कामों को....और अच्छा-अच्छा सोच सकूं, लिख सकूं, बोल सकूं और नए-नए समाजिक प्रयोग करने में सहायक हो सकूं.........तो डोनेट करें दिल खोल के, जितना आप कर सकते हैं.........जितना ज्यादा से ज़्यादा कर सकते हैं उतना.

नमन...तुषार कॉस्मिक

No comments:

Post a Comment