Saturday, 6 October 2018

रॉबिनहुड है हल

शायद आप के बच्चे होंगे या फिर आप किसी के बच्चे होवोगे.......पेड़ पे तो उगे नहीं होंगें. राईट? क्या ऐसा हो सकता है कि माँ-बाप अपने बुद्धिशाली-बलशाली बच्चे को ही सब बढ़िया खान-पान दें और जो थोड़े कमजोर हों, ढीले हों उनको बहुत ही घटिया खान-पान दें? हो सकता है क्या ऐसा? नहीं. हम्म...तो अब समझिये कि आप और मैं इस पृथ्वी की सन्तान हैं. पृथ्वी की नहीं बल्कि इस कायनात की औलाद हैं. हो सकता है हम में से कुछ तेज़ हों, कुछ ढीले-ढाले हों. तो क्या ऐसा होना सही है कि सब माल-मत्ता तेज़-तर्रार को ही मिल जाए? क्या यह सही है कि तेज़ तर्रार रहे कोठियों में और बाकी रहें कोठडियों में? सही है क्या कि तेज़ लोग कारों में घूमें और ढीले लोग उनकी कारें साफ़ करते रहें, पंक्चर बनाते रहें, पेट्रोल भरते रहें? दुरुस्त है क्या कि तेज़ लोग मीट खा-खा मुटियाते रहें और ढीले लोग उनकी रसोइयों में खाना बनाते रहें, बर्तन मांजते रहें? क्या कायनात, जो हमारी माँ है, हमारा बाप है, क्या वो ऐसा चाहेगी, वो ऐसा चाहेगा? अब आप अपने इर्द-गिर्द देखिये.....शायद कायनात ऐसा ही चाहती है. यहाँ हर कमजोर जानवर को ताकतवर जानवर खा जाता है. यही जंगल का कानून है. छोटी मछली को बड़ी मछली का जाती है. यही समन्दर का कायदा है. लेकिन इन्सान तक आते-आते कुदरत ने, कायनात ने, उसे फ्रीडम दी, आज़ादी दी. अब वो कहीं खुद-मुख्तियार है. वो सोच सकता है. वो चुन सकता है. वो चुन सकता है कि ऐसा समाज बनाये जिसमें कमज़ोर भी ढंग से जी पाए. और इन्सान ने ऐसा समाज बनाने का प्रयास भी किया है. असफल प्रयास. आईये देखिये. माँ-बाप तो अपने बच्चों की बेहतरी के लिए जीवन दे देते हैं, जान तक दे देते हैं. लेकिन यह दरियादिली सिर्फ अपने बच्चों तक ही क्यों? कुछ तो गड़बड़ है? गड़बड़ यही है कि इन्सान ने इंसानियत को सिर्फ अपने परिवार तक के लिए सीमित कर लिया है. वो लाख 'वसुधैव-कुटुम्बकम' के, 'विश्व-बंधुत्व' के गीत गाता रहे लेकिन उसकी सोच परिवार से आगे मुश्किल ही बढती है. नतीजा यह है कि पूरा इंसानी निज़ाम परिवार को बचाने में लगा है. परिवार की सम्पत्ति बचाने में लगा है. परिवार से बाहर आज भी जंगल का कानून है, परिवार के बाहर आज भी कमज़ोर आदमी को मारा जाता है. आप कहेंगे कि नहीं, हम सभ्य हैं. हमारे पास संविधान है, विधान है, पुलिस है, फ़ौज है, जज है, कोर्ट है. नहीं. सब बकवास है. यह सब निजाम इस बेहूदा सिस्टम को बचाए रखने के लिए है. जिसमें अमीर अमीर बना रहे और गरीब गरीब बना रहे. जिसमें कुदरत का जंगली कायदा चलता रहे. कुदरत का समंदरी कानून चलता रहे. फिर गलत क्या है? गलत यह है कि कुदरत ने इन्सान को अक्ल दी. अक्ल दी कि वो जंगली सिस्टम से कुछ बेहतर बनाए, समंदरी कायदे-कानून से ऊपर उठे. इन्सान ने बनाया लेकिन वो जो बनाया वो सिर्फ परिवार तक सीमित कर दिया. जो जज्बा, वो त्याग, वो खुद से आगे उठने का ज्वार, वो सब परिवार के लिए, बच्चों के लिए ही रह गया. और कुल मिला कर यह जंगल से भी बदतर हो गया. हम कंक्रीट का जंगल बन गए. हम समन्दर से गन्दला नाला बन गए. हमारी सभ्यता असल में तो यह सभ्यता है ही नहीं. हमारी सभ्यता असभ्य है. 'सभ्यता'. सिर्फ खुद को तसल्ली देने को शब्द घड़े हैं इन्सान ने. इस लिज़लिज़े से सिस्टम को सभ्यता कहना सभ्यता शब्द की खिल्ली उड़ाना है. हमारे पास कोई संस्कृति नहीं है. हम प्रकृति से नीचे गिर गए हैं. हम उलझ गए हैं. हम विकृत हो गए हैं. प्रकृति मतलब जंगल का कानून. मतलब कमज़ोर ताकतवर की खुराक है प्रकृतिरूपेण. संस्कृति मतलब सम+कृति. संतुलित कृति. संस्कृति का अर्थ ही यह है कि यह जो असंतुलन है,प्राकृतिक असंतुलन है इसे खत्म किया जाए एवं कमजोर और ताकतवर को समानता दी जाये. कम से कम जहाँ तक सम्भव हो, वहां तक तो प्रयास हो. आप अक्सर पढ़ते होंगे कि मुल्क की अधिकांश सम्पति चंद लोगों के पास ही सिमटी है. मुल्क क्या दुनिया की ही अधिकांश सम्पत्ति चंद लोगों के पास है. तो फिर बाकी दुनिया के पास क्या है? बाकी दुनिया के पास संघर्ष है. गरीबी है. भुखमरी है. बाकी दुनिया संघर्ष में पैदा होती है, संघर्ष में जीती है, संघर्ष में मर जाती है. इसे संस्कृति कैसे कहें? इसे विकृति न कहें क्या? हल क्या है? हल सिम्पल है. रॉबिनहुड. जी हाँ, रॉबिनहुड है हल. वो अमीरों से लूटता था और गरीबों में बाँट देता था. जब कोई मन्दिर या गुरुद्वारे में चोरी होती है तो मुझे लगता है चोरों ने अतीव धार्मिक कार्य किया है. लूट हमेशा ग़लत हो, ऐसा ज़रूरी नहीं. लेकिन इसमें कुछ सावधानी की ज़रूरत है. अगर हर कमाने वाले का धन न कमाने वाले को दे दिया जायेगा तो ऐसे तो कोई अपनी उर्जा धन कमाने में लगाएगा ही नहीं. फिर हल क्या है? हल यह है कि एक तो जो इस धरती पर आ गया उसे बुनियादी ज़रूरतें लगभग मुफ्त मिलनी चाहिए लेकिन यह तभी हो सकता है जब पृथ्वी पर आने वाले लोगों की गिनती अंधी न हो. वो उतनी ही हो, जितनी यह धरती ख़ुशी-ख़ुशी झेल सकती है. इन्सान की क्वांटिटी घटानी होगी और क्वालिटी बढ़ानी होगी. उसके लिए जनसंख्या सुनियोजित होनी चाहिए. और शिक्षा पर ज़बरदस्त काम. यह जो शिक्षा अभी दी जा रही है, यह नब्बे प्रतिशत कचरा है. इसकी कतर-बयोंत ज़रूरी है. पूँजी कमाने दी जाये, लेकिन पूँजी का अनलिमिटेड जमाव खत्म होना चाहिए. एक निश्चित सीमा के बाद निजी पूँजी का हक़ खत्म. उस सीमा के बाद कमाया गया हर पैसा पब्लिक डोमेन में ट्रान्सफर. जैसे आज कॉपी-राईट के मामले में होता है. आप कुछ लिखते हैं, आपका उस पर कानूनी हक़ है लेकिन यह सदैव के लिए नहीं है. एक समय-सीमा के बाद आपका लेखन पब्लिक को मुफ्त मिलेगा, सर्व-जन का हक़ उस पर होगा. ज़मीन पर एक व्यक्ति का एक सीमा से ज़्यादा कब्जा धरती माता के प्रति और इंसानियत के प्रति अन्याय है. मैं पश्चिम विहार में रहता हूँ. मेरे पास ही एक इलाका है पंजाबी बाग. पंजाबी बाग में हज़ार गज़ तक के घर हैं. कल्पना कीजिये, दिल्ली के बीचों-बीच हज़ार गज़ के घर. इन घरों में गिनती के लोग रहते हैं. पश्चिम विहार और पंजाबी बाग के बीच एक इलाका है. मादी पुर. यहाँ एक-एक कमरे में दसियों लोग रहते हैं. यह अन्याय है. कहीं किसी के पास दस कमरे का घर हो कहीं एक कमरे में दस लोग सो रहे हों. यह अन्याय है. असीमित ज़मीन-ज़ायदाद को सीमित करना ज़रूरी है. ऐसा पहले भी किया गया है. ज़मींदारी निराकरण एक्ट ऐसा ही था. उस के बल पर ज़मींदारों से ज़मीन छीन खेतिहारों में बाँट दी गयी थी. यह बिलकुल किया जा सकता है. पहले राजा-महाराजा की अनगिनत रानियाँ थीं, आज संभव नहीं. चोरी-छुपे जो मर्ज़ी करते रहो लेकिन कानूनन एक से ज्यादा बीवी नहीं रख सकते.कानून से असीमित हक़ सीमित किये जा सकते हैं. बस यह है मेरी सोच. मॉडर्न रॉबिनहुडी सोच. इसे आप वामपंथ कह सकते हैं. वैसे मुझे आज तक समझ नहीं आया कि वामपंथ और दक्षिणपंथ है क्या? राईट इज़ राईट एंड लेफ्ट इज़ रॉंग. ऐसा है क्या? मुझे ऐसा ही लगता है. वैसे मैंने कहीं पढ़ा कि इन्सान के दिमाग का बायाँ हिस्सा तर्कशील है और दायाँ हिस्सा भावनाशील. सो इसी ग्राउंड पर वामपंथी उनको कहा गया जो ज्यादा तर्क-वितर्क करते हैं और दक्षिण-पंथी उनको कहा गया जो भावनाशील होते हैं. वैसे मुझे यह भेद-विभेद आज तक पल्ले नहीं पड़ा चूँकि मैं तर्क में बहुत ज़्यादा यकीन करता हूँ. मैंने तर्कशीलता के पक्ष में लेख लिखे हैं. लेकिन मैं इत्ता ज्यादा भावुक हूँ कि घर के सब बच्चे मेरा मजाक उड़ाते हैं. कब कोई फिल्म देखते हुए मेरे आंसूं टप-टप गिरने लगें, कोई पता नहीं. कब कुछ पढ़ते हुए मेरी आंखें दबदबा जाएँ, कुछ ठिकाना नहीं. क्या कहूं खुद को? वामपंथी? दक्षिण-पंथी? क्या? आप मुझे कम्युनिस्ट कह सकते हैं. ठप्पा ही तो लगाना है. जान छुड़ाने के लिए ठप्पा लगाना ज़रूरी है. लेकिन कुछ भी कहते रहें. आप मुझ से पीछा नहीं छुडा सकते. आज जो अनाप-शनाप टैक्स लगाए जाते हैं. वो क्या है? वो टैक्स से एकत्रित धन ज़रूरत-मंदों में बांटने का विकृत प्रयास है. वो रॉबिनहुड बनने का सरकारी प्रयास है. नाकाम प्रयास है. सवाल यह है कि यदि हम असीमित धन-असीमित ज़मीन एकत्रित ही नहीं करने देंगे तो क्यों कोई उद्यम करेगा? सही सवाल है. जवाब बड़ा आसान है. क्या आज जिस अंधी दौड़ में लोग शामिल हैं, ज़मीन-जायदाद एकत्रित करने को, वो इसलिए शामिल हैं कि उन्होंने वो सम्पदा प्रयोग करनी है? नहीं. लोग एक हद के बाद तो सम्पदा प्रयोग ही नहीं कर पाते. हाँ, वो सिर्फ अपने अहम के फैलाव के लिए धन जोड़ते रहते हैं. यदि समाज उनकी प्रेरणा ही बदल दे तो? हम धन-सम्पदा कमा कर समाज के लिए छोड़ने वाले को बड़ा नाम दे सकते हैं. जैसे अभी भी देते हैं अगर कोई अस्पताल बनवा देता है तो, स्कूल बनवा देता है तो, लाइब्रेरी बनवा देता है तो. ऐसा किया जा सकता है. कोई धन क्यों कमाए, उसके उत्प्रेरक बदले जा सकते हैं. वैसे अभी भी हम सारी कमाई तो किसी को भी प्रयोग करने ही नहीं देते. हम टैक्स के रूप में छीन लेते हैं. हमने एक सीमा के बाद कॉपीराईट खत्म किया हुआ है.हमने ज़मींदारी प्रथा खत्म की है, ज़मीन बाँट दी जोतने वालों को. बुनियादी किस्म की ज़रूरतें तो बहुत थोड़े प्रयास से या कहूं कि लगभग मुफ्त में ही सबको मिल जानी चाहियें लेकिन उसके बाद अगर किसी को और बेहतर जीवन चाहिए तो वो प्रयास कर सकता है लेकिन उसके प्रयास से जो भी धन उत्पन्न होगा एक सीमा के बाद वो उस धन को अपने या अपनी अगली पीढ़ियों के लिए प्रयोग नहीं कर पायेगा, ऐसे प्रावधान बनाये जा सकते हैं. रॉबिनहुड बनना ही होगा चूँकि “रॉबिनहुड है हल”. लेकिन काफी कुछ मेरे ढंग से. नमन...तुषार कॉस्मिक

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