~~ इन्सान--एक बदतरीन जानवर~~

"बड़ा अजीब लगता है जब मैं लोगों को यह सब कुछ धर्म के नाम पर ये सब करते देखती हूँ। ये तीज त्योहार हैं दीवाली, नवरात्रि,दशहरा, फ़ास्टिंग इत्यादि।बहुत अच्छा है ये सब करना, हम सभी करते हैं। इन सब बातों से बचपन की यादें जुड़ी होती हैं।बस ये भाव और स्मृतियाँ हैं।धीरे धीरे यही भाव और स्मृतियाँ सामाजिक कुरीतियाँ भी बन जाती हैं। एक तो पैसे की बर्बादी होती है उसपे वातावरण ख़राब,ट्रैफ़िक की अव्यवस्था,उधार ले के भी त्योहार मनाओ।कभी सोचा कि यदि हम भारत में ना पैदा हो के चीन में पैदा हुए होते तो सांप का आचार खा के चायनीज़ नए साल के समारोह में ड्रैगन के आगे नाच रहे होते। माइंड के खेल, ये ऐसा कंडिशन करता है कि हम एक चेतना की जगह कोई भारतीय,कोई बुद्धिस्ट,कोई बिहारी कोई पंजाबी हो जाता है। कभी ग़ौर फ़रमाया कि यदि आप इस माहौल में ना जन्मे होते तो क्या ये सब फ़िज़ूल काम करते।हम बस एक समझ हैं, एक चेतना हैं एक वो माँस की मशीन हैं जो सब कुछ सेन्स करती है समझती है। कोल्हू का बैल, धोबी का कुत्ता हमने नासमझी से स्वयं को बनाया है और अब उसी में ख़ूब ख़ुश हो के बन्दर की तरह नाच रहे हैं कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहा रहे हैं। बुरा लग रहा है मुझे अपने आप को इन मासूम जानवरों के साथ कम्पेर करना।क्यूँकि ये बेचारे तो अपने स्वरूप में जीते हैं।कभी देखा कुत्ता बारात ले कर जा रहा है किसी बकरी पे बैठ के और उसके दोस्त शराब पी कर बन्दूकें चला रहे हैं। कभी देखा किसी बैल की शादी में गाय के पिता को कन्यादान करके आँसू बहाते हुए? कभी देखा बिल्ली को देवर और ससुर जिससे वो परदा करती हो? कभी किसी बंदरिया को अपनी शादी में मेहन्दी लगाते देखा। हम मनुष्य सबसे क्यूट जानवर बिलकुल भी नहीं हैं।मैं अक्सर अपनेआप को इन जानवरों की चेतना और आँखों से देखती हूँ।मुझे स्वयं में कुछ भी उनसे बेहतर नज़र नहीं आता।" By Veena Sharma Ji the Gr........8 --::: अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो :::-- उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो. और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह? कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही. तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है. अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!! खैर, इन्सान भी जानवर है बिलकुल ...जिसमें जान है, वो जानवर है.......लेकिन एक फर्क है....बाकी जानवर 'पशु' हैं यानि पाश में हैं....बंधे हैं...बंधे हैं प्रकृति से......उनके पास बहुत कम फ्रीडम है......उनके पास चॉइस बहुत कम है........इन्सान के पास बुद्धि ज़्यादा है सो उसके पास चुनाव की क्षमता भी ज़्यादा है...इतनी ज़्यादा कि वो कुदरत के खिलाफ भी जा सकता है......सुनी होगी कहानी आपने भी कि कालिदास या फिर तुलसी दास से जुड़ी है.....जब वो लेखक नहीं था तो इत्ता मूर्ख था कि एक पेड़ पर चढ़ उसी शाख को काट रहा था जिस पर बैठा था वो भी उधर से जिधर से कटने के बाद वो खुद भी धड़ाम से नीचे गिर जाता......कहते हैं कि उसे तो अक्ल आ गई लेकिन इन्सान को वो अक्ल नहीं आई....वो इत्ता ही मूर्ख है कि जिस कुदरत के बिना वो जी नहीं सकता उसे ही नष्ट करने लगा है.....सो यह है चुनाव की क्षमता जो इन्सान को पशुता से बाहर ले जाती है.....लेकिन दिक्कत यह है कि इस चुनाव में वो पशुता से भी नीचे गिर सकता है, गिरता जा रहा है....... इन्सान भी जानवर है बिलकुल -- लेकिन एक बदतरीन जानवर है. इलाज है. इलाज है अपनी लगी बंधी मान्यताओं के खिलाफ पढ़ना, लिखना, सोचना शुरू करो. अपनी मान्यताओं पर शंका करनी शुरू करो. अपने नेता, अपने धर्म-गुरु, अपने शिक्षकों के कथनों पर शंका करो, सवाल करो. दिए गए सब जवाबों पर सवाल करो. अपने सवालों पर भी सवाल करो. यही इलाज है. तुषार कॉस्मिक....नमन

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