प्रोपर्टी के धंधे में हूँ बरसों से और मेरी समझ है कि तकरीबन सब इंसानी बीमारियों की वजह प्रॉपर्टी का कांसेप्ट है. कहावत भी है. ज़र, जोरू और ज़मीन झगड़े की जड़ होती हैं. थोड़ा गहरे में ले जाने का प्रयास करता हूँ.
पहले तो जो भी व्यक्ति इस पृथ्वी पर आ जाए उसे बेसिक ज़रूरतें हर हाल में मिलें यह समाज का फर्ज़ होना चाहिए और अगर ऐसा नहीं है तो वो समाज अभी संस्कृत नहीं हुआ. और आप लाख कहते हों कि हमारी संस्कृति महान है, लेकिन अभी संस्कृति का क-ख-ग भी नहीं पढ़ा इंसान ने. जिस कृति में बैलेंस न हो, संतुलन न हो, वो कैसी संस्कृति?
एक तरफ़ लोग महलों जैसी कोठियों में रहें और दूसरी तरफ़ कोठड़ी भी न मिले, इसे आप संस्कृति कहना चाहते हैं, कह लीजिये, मैं तो विकृति ही कहूँगा.
हम सब धरती के वासी हैं, लेकिन विडम्बना यह है कि हम में से बहुत के पास धरती का सर छुपाने लायक टुकड़ा भी नहीं जिसे वो अपना कह सकें. अपने ही ग्रह पर हमारे पास गृह नहीं है. कैसे कहें कि पृथ्वी हमारा घर है?
कहा यह गया है आज तक कि रोटी, कपड़ा और मकान ही बेसिक ज़रूरतें हैं, लेकिन अधूरी बात है यह. इन्सान को रोटी, कपड़ा, मकान के साथ ही प्यार, सम्मान और सेक्स भी चाहिए. ये सब व्यक्ति की बेसिक ज़रूरतें हैं. बिना सेक्स के और बिना प्यार के, सम्मान के आदमी अधूरा है. जो समाज ये सब न दे सके, वो समाज पागल है और यकीन जानें, आपका समाज पागल है. जो समाज अपने हर बच्चे को by default यह सब न दे सके, वो जंगल से बदतर है. बड़े होते होते, भी ये सब बहुत कम श्रम में उपलब्ध रहना चाहिए.
लोग सारी-सारी उम्र लगा देते हैं एक घर बनाने में. फिर तकिया-कलाम की तरह बात-बेबात अपनी प्रोपर्टी की शान बघारते हैं. प्रॉपर्टी से एक दूजे को आंकते हैं. नहीं, यह सब बकवास है. घर सबको मिलना ही चाहिए, बिना कमाए. सौ कमरे का न सही, दो कमरे का ही सही, लेकिन मिलना चाहिए.
अगर नहीं देंगे तो लाख आपके बाबा लोग समझाते रहें अपने आश्रमों में कि किसी का हक़ न दबाओ, जिसके नीचे जो ज़मीन का टुकड़ा आ जाएगा, वो उसे दबाने की पूरी कोशिश करेगा. वैसे भी ज़मीन तो कभी नहीं कहती कि वो किसी एक की प्रॉपर्टी है. धरती माता ने तो आज तक किसी के नाम कोई रजिस्ट्री की नहीं है.
इन्सान जंगलों में रहता था. फिर खेती आई और खेती के साथ ही प्रॉपर्टी का कांसेप्ट आया. और प्रॉपर्टी के कांसेप्ट के साथ ही शादी का कांसेप्ट आ गया. अंग्रेज़ी में husbandry शब्द है जिसका अर्थ खेती है. Husband से आया है यह शब्द, चूँकि hasband शब्द का पुराना मतलब ही किसान है. अब जब खेती आई तो खेती लायक ज़मीन की घेराबंदी का कांसेप्ट आ गया. फिर वो घेराबंदी, वो कब्जा बना रहे, उसके लिए ही उत्तराधिकार का कांसेप्ट आ गया. सो शादी आई और प्राइवेट बच्चे का कांसेप्ट आया. निजी स्त्री, निजी पुरुष, निजी बच्चा. हम कहते भी हैं कि वो मेरी स्त्री है, वो मेरा आदमी है, मेरा बच्चा है.
न असल में कोई किसी का आदमी है, न ही कोई किसी की स्त्री और न ही कोई किसी का बच्चा. तुम एक ढंग का गुड्डा न बना पाओ और बच्चे को कहते हो तुमने पैदा किया. इडियट. अबे, वो कुदरत का, कायनात का ढंग है अपने आपको पैदा करने का, रूप बदलने का. और उसी ने तुमको सेक्स दिया ताकि तुम्हारी रूचि बनी रहे और तुम उसके काम को आगे बढ़ाते रहो.
शादी के जोड़े आसमानों में नहीं, धरती पर बने थे, धरती के टुकड़ों के लिए बने थे और धरती के कृषि योग्य टुकड़ों पर कब्ज़ा जमाए रखने के लिए बने थे. वैसे कहते यह भी हैं कि जोड़े आसमानों में बनते हैं लेकिन तलाक़ ज़मीन पर होते है. और मेरा मानना है कि बहुत बार ज़मीन के लिए ही होते हैं. शादी भी और तलाक़ भी, दोनों ज़मीन के लिए, जायदाद के लिए. मतलब प्रॉपर्टी के कांसेप्ट से शादी आई और शादी के कांसेप्ट ने इंसानों को भी प्रॉपर्टी में तब्दील कर दिया.
बहुत से घरों में आज भी पिता के लिए "चाचा" शब्द का प्रयोग होता है. मेरे मामा जी के बच्चे उनको आज भी 'चाचा जी' बुलाते हैं, मैं बड़ा हैरान होता था! लेकिन आज कारण पता है. शुरू में पिता का कांसेप्ट नहीं रहा होगा. वो बाद में आया. यह शादी से पहले के दौर की बात है. माँ पता रहती होगी लेकिन बाप नहीं, सो सब 'चाचा'. और यह कोई गाली नहीं थी कि बाप नहीं पता था बच्चे को. नहीं. समाज शुरू में ऐसे ही रहे होंगे. प्रॉपर्टी के कांसेप्ट के साथ शादी आई और उसके साथ ही बच्चे के बाप का पता होना एक बड़ा मुद्दा बन गया चूँकि पिता अपनी सम्पत्ति अपने बच्चे को ही देकर जाना चाहता था और बच्चा उसी का है, यह सिर्फ माँ ही पक्का कर सकती थी. सो इंतज़ाम किये गए, कानून बनाए गए कि स्त्री एक ही पुरुष के सम्पर्क में रहे. होना तो पति को भी एक पत्नी-व्रत था लेकिन जितने कड़े नियम स्त्री के लिए बनाए गए, उतने पुरुष के लिए नहीं. उसके लिए तो वेश्यालय भी खुले. लाख कहते रहे कि गैर-कानूनी है, असामाजिक हैं लेकिन हर समाज में खुल गए. कहीं ढके छुपे तो कहीं खुले-आम. यह जो मुसलमान पत्थर-पत्थर मार-मार के स्त्री को मार देते हैं अगर पति के अलावा दूसरे पुरुष के संसर्ग में आ जाये तो, उसका निहित कारण प्रॉपर्टी का कांसेप्ट है, प्रॉपर्टी पर वंशजों के उत्तराधिकार का कांसेप्ट है.
हर प्राणी एक से ज़्यादा स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में आता है. इंसान सबसे ज़्यादा अक्ल रखता है. रखता है, यह लिखा मैंने. अक्ल-मंद है, यह नही लिखा चूँकि अक्ल रखना और अक्ल-मंद होना, दोनों अलग अलग बात हैं. जिसके पास अक्ल हो, वो महा-मूर्ख भी हो सकता है. वो अक्ल से नीचे भी गिर सकता है. इन्सान सबूत है इस बात का.
देखें, एक बन्दर अगर अपने जीवन काल में बीस बन्दरियों से सम्भोग करता है, इन्सान तो उससे कहीं ज़्यादा कल्पनाशील है, बुद्धिमान है. उसे हाथ मिला उसने क्रेन बना दी, उसे पैर मिले पहिया बना दिया, आंख मिली तो टेलीस्कोप बना दिया. नहीं? लेकिन जो बेसिक ज़रूरतें थीं उनमें इज़ाफा करने की बजाए घेरे में बाँध दिया. अब बुद्धि तो है. शादी के वक्त जो फेरे लिए जाते हैं, गोल-गोल घुमाया जाता है और हर फेरे पर पति-पत्नी से कुछ वायदे लिए जाते हैं. वो गोल घुमाना घेरा-बंदी है. फेरों में इनसे से वायदा बेशक ले लिया जाए कि वो एक पति-एक पत्नी-व्रत रहेंगे लेकिन वो बहुत सी स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में आना चाहते हैं. तो वो गीत लिख रहे हैं, फिल्में बना रहे हैं, ब्लू-फिल्में बना रहे हैं, प्ले-बॉय और डेबोनेयर रसाले छाप रहे हैं. सब कुछ विकृत करके बैठ गए. किस लिए? प्रॉपर्टी के कांसेप्ट की वजह से. अब न उन्हें प्रेम मिल रहा है, न सम्मान, न ही ढंग का घर. अधिकांश जनसंख्या को नहीं.
एक शब्द-जोड़ है 'रियल एस्टेट'. क्या लगता है कि कोई एस्टेट रियल या अन-रियल होती है? असल में यह 'रॉयल-एस्टेट' शब्द-जोड़ से आया माना जाता है. सब एस्टेट राजा की. रॉयल. और प्रजा सिर्फ़ कामगर. प्रयोगकर्ता. हैरानी है आपको! आज भी नॉएडा अथॉरिटी ने फ्री-होल्ड कराने का हक़ नहीं दिया लोगों को. प्रॉपर्टी लोगों के पास लीज़ पर है और लीज़ सिर्फ किराया-नामा होता है और कुछ नहीं. तो कुल मतलब यह कि ज़मीन पर मल्कियत बनी रहे, इसका जुगाड़ हर तरह से किया गया है. छोटे से लेकर बड़े लेवल तक. इसलिए कहता हूँ कि प्रॉपर्टी का कांसेप्ट एक बीमारी है.
इलाज क्या है? ऊपर मैंने लिखा कि by default रोटी, कपड़ा, मकान, प्यार, सम्मान और सेक्स मिलना चाहिए सबको. लेकिन आज जैसी व्यवस्था है, उसमें तो नहीं हो पायेगा ऐसा. यह तभी हो सकता है जब निजी बच्चे के कांसेप्ट में कुछ बदलाव किया जाए. पहले तो बच्चा पैदा करने का हक़ जन्म-जात नहीं होना चाहिए. एक लेवल तक पति-पत्नी कमाने लगें, कम से कम तीन-चार साल लगातार, तभी बच्चा पैदा करें. और यह भी तब, जब हमारे वैज्ञानिक आज्ञा दें कि अब हमारा भू-भाग, हमारी सामाजिक व्यवस्था एक और बच्चे के वज़न को सह सकती है. तभी सम्भव है कि सबको सब कुछ जो जीवन के लिए ज़रूरी है, वो आसानी से मिलता रहे. और अगर आज ही की तरह बेतहाशा बच्चे पैदा करे जायेंगे तो यही सब होगा, जो हो रहा है. ज़र, जोरू और ज़मीन के झगड़ों से थाणे, कचहरी भरे रहेंगे.
इससे अगली एक और बात है कि इन्सान को असीमित धन कमाने का तो हक़ हो लेकिन अपने निजी परिवार, अपने वंशजों को वो सब पूरे का पूरा ट्रान्सफर करने का हक़ न हो. एक सीमा तक हो, उसके बाद नहीं. उसके बाद का सारा धन पब्लिक डोमेन में जाए. शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान किसी भी क्षेत्र में वो खुद दे जाए वरना उसकी मृत्यु के बाद अपने आप चला जाए. लेकिन यह तब हो जब गवर्नेंस भी शीशे की तरह ट्रांसपेरेंट हो. उसके लिए सब सरकारी व्यक्ति हर दम CCTV तले रहें. सब RTI तले. और गवर्नेंस में पब्लिक पार्टिसिपेशन यानि जनता की भागीदारी ज़्यादा से ज़्यादा हो.
और इस तरह से धीरे-धीरे प्राइवेट प्रॉपर्टी का कांसेप्ट dilute होता चला जाएगा. धरती स्वर्ग बनती जायेगी और यहाँ के वासी स्वर्ग-वासी. मृत्यु के बाद नहीं, जिंदा रहते हुए. जीते जागते.
टाइटैनिक फिल्म देखी-सुनी होगी आप सब ने. जितनी कहानी बताई गयी उसके आगे की कहानी मैं बताता हूँ. जब जहाज डूब हो रहा था तो कोई पचास के करीब लोग किसी तरह निकल पास के टापू पर पहुँच गए. स्त्री-पुरुष लगभग बराबर संख्या में थे. पहले तो बहुत घबराए. कोई रोये, कोई चीखे, कोई चिल्लाए. सम्पर्क सूत्र कोई नहीं था कि बता सकें अपने परिजनों को अपनी उपस्थिति ताकि कोई ले जाए उनको. टापू निर्जन. लेकिन वहां नारियल लगे थे. फल-फूल भरपूर थे. जीवन अपने रास्ते बनाने लगा. वो लोग वहां खाने-पीने लगे. धीरे-धीरे उनका वहां मन रमने लगा. कोई छह महीने बाद एक जहाज तुक्के से वहां पहुँच गया. सब जहाज के लोगों से मिले लेकिन जैसे ही जहाज के कप्तान ने उनको वापिस चलने को कहा सब ने इनकार कर दिया. उनके परिजनों से बात करवाई गई तो इन टापू के प्राणियों ने उल्टा अपने परिजनों को समझाया कि आप सब भी यहीं आ जाओ लेकिन हम वापिस उस पागलखाने में नहीं जायेंगे. यहाँ न मकान बनाने की चिंता, न कमाने की चिंता. जीवन कमाने के लिए नहीं था जीने के लिए था. बहुत थोड़े श्रम से सब हाज़िर हुए जा रहा था. कैसे तैयार होते वो वापिस आने को जहाँ सारी उम्र सर पर ढंग की छत्त बनाने में निकल जाती थी? नहीं आये वो लोग. आदम और हव्वा के वंशज.
आशा है समझा सका होऊंगा कि प्रॉपर्टी आपकी दुश्मन कैसे है.
नमन...तुषार कॉस्मिक ..कॉपी राईट
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