Sunday 8 January 2017

“इस्लाम के खतरे और इलाज”

इस्लाम का पर्दाफ़ाश ज़रूरी है.
लेकिन यह नहीं लगना चाहिए कि हम हिन्दू या किसी भी और बेवकूफी के तरफ़दार हैं. लगना क्या हम किसी भी और बेवकूफी के समर्थक होने ही नहीं चाहिए, चाहे कितनी भी  पवित्र समझी जाती हो. A Holy-shit is shittier than any other shit.

चर्च ने भी बहुत निर्दोष मरवाए, लेकिन वो दौर खत्म हो चुका.
वहां सुधार की लहर चली, और चर्च को सरकार से अलग किया गया.

यहाँ भारत में भी सैद्धांतिक रूप से धर्म और सरकार अलग हैं लेकिन असल में मन्दिर
, मस्ज़िद, गुरुद्वारा ही सरकार में हैं.

मुस्लिम अक्सर कहते हैं कि इस्लामिक आतंकवाद के फैलने में मुख्य हाथ अमेरिका का है..... इससे मैं असहमत हूँ. इस्लाम तो शुरू ही तलवार के जोर से हुआ.

और अमेरिका की बेवकूफी है निश्चित ही जो कुछ पंगे लिए.......लेकिन इस्लाम के पास पेट्रो-डॉलर की ताकत बढ़ते ही उसने यूरोप को नचा दिया और अमेरिका को नचाने पर आमदा है.

इस्लामिक जो सारा दोष अमेरिका पर देते हैं, वो बकवास है.

अमेरिका के दखल से पहले और बाद---दुनिया का इतिहास कुछ और बताता है.

और वो कुछ और यह है कि इस्लाम दुनिया की सबसे खतरनाक सिद्धांतों में से एक है.

कुरान में सब साफ़ लिखा है.....बस उसे घुमाने का प्रयास किया जाता है, लेकिन असलियत समझने के लिए बहुत अक्ल नहीं चाहिए.

सारा नाटक ही यही है कि कुरआन का तजुर्मा आपने गलत किया.

सब साफ़ है.....बस लोग इस्लाम पर अपनी मान्यताएं थोपने लगते हैं...जैसे “ईश्वर, अल्लाह, तेरो नाम”......अब अल्लाह तो 
 कुरआन में बहुत कुछ ऐसा भी कहता है कुरआन में जो काफ़िरों के लिए यानि इस्लाम को न मानने वालों के लिए घातक है...फिर?

जैसे “हिन्दू
-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आपस में भाई-भाई”.
ये ऐसी  मान्यतायें है, जिन्हें इस्लाम खुद नहीं मानता. उसमें किसी और मज़हब को मानने वाले की कोई गुंजाइश नहीं. ज़ाकिर नायक ग़लत थोड़ा न कहता है यहाँ. 
और तर्जुमा सब हाज़िर है....कुछ गलत नहीं.
सब ऑनलाइन मौजूद है.
और इस्लाम कोई धर्म है भी? बड़ी गलतफहमी है.
यहाँ तक की अमेरिका, इंग्लैंड और भारत का संविधान भी 
गलत-फहमी का शिकार है कि इस्लाम कोई धर्म है.

आज बहुत विचारक इस बात पर भी जोर दे रहे हैं कि इस्लाम को रिलिजन की परिभाषा से बाहर किया जाए.

इस्लाम एक सामाजिक व्यवस्था, जो अपने ही कायदे-कानून के हिसाब से जीना चाहती है.

इस्लाम एक militia है.

इस्लाम जिहाद में यकीन रखता है. पता नहीं जिहाद का मायने क्या हैं? मुझे तो लगता है जब आप सोते-सोते दांत साफ़ करने को उठ ही पड़ते हैं तो यह भी आपने खुद की काहिली के खिलाफ़ एक जिहाद की और जीत गए.

खैर, मुस्लिम का सीक्रेट हथियार है----जनसंख्या विस्फोट.
किसी भी समाज में घुसो और वहां जैसे भी, तैसे भी मुसलमान ही मुसलमान कर दो. आसान तरीका है बच्चे बढ़ाना

अब इसके जवाब में बेवकूफ हिन्दू यह उदघोषणा करते रहते हैं कि हिन्दू भी जनसंख्या बढायें. मतलब सब मिल कर आत्म-हत्या करें, अकेले मुसलमान ही क्यूँ करें?

मुस्लिम के सीक्रेट हथियार का इलाज यह नहीं है कि हिन्दू भी जनसंख्या बढाए, उसका इलाज है जनसंख्या की राशनिंग. वो और भी बहुत वजहों से ज़रूरी है लेकिन एक वजह यह भी है.
तो यह  भी देखना ज़रूरी है कि कोई धर्म छदम राजनीतिक प्रयोजन न ही हो, जैसा कि इस्लाम है.
किसी  धर्म में निहित सामाजिक कायदे कानून  देश-प्रदेश के कायदे कानून से टकराते हुए न हों, जैसे कि इस्लाम के हैं.
कोई धर्म दूसरे धर्मों के खिलाफ हिंसा न सीखा रहा हो, जैसा कि इस्लाम सिखाता है.
यदि ऐसा हो तो फिर ऐसे धर्म को संविधान के हिसाब से अगर धर्म माना जाता रहेगा तो वह इस संवैधानिक  छूट का नाजायज़ फायदा उठाएगा, जैसा इस्लाम करता है.
इस्लाम संविधान में धर्म की तरह दर्ज़ होता है और वो सब काम संवैधानिक छूट के नाम परवैधानिक छूट के नाम पर करता है जो पूरी सामाजिक ढाँचे को खतरे में डाल देते हैं.


खतरा समझा जाने लगा है पूरी दुनिया में. ट्रम्प और मोदी को मोटा-मोटी  उसी खतरे से बचने के लिए चुना है दुनिया ने. लेकिन इससे एक और खतरा है दुनिया को. एक बेवकूफी से बचने के लिए दूसरी बेवकूफी में न पड़ जाएं. चक्र-व्यूह.

मेरे ख्याल से सब तरह की बेवकूफियों से आज़ादी के पक्ष में जो खड़े हों उनको सपोर्ट करने की ज़रूरत है.

आज़ादी के दौर में बहुत सी विचार-धाराएं थी.
जिन्ना को हिन्दू खतरा लगता था.
अम्बेडकर को सवर्ण खतरा बड़ा लगता था.
कांग्रेस को सब घाल-मेल पसंद था. ईश्वर अल्लाह तेरो नाम. 
संघ को सबसे बड़ा खतरा मुस्लिम और ईसाई इन्वेसन लगता था.

नतीजा सामने है----पाकिस्तान बना, आरक्षण आया, कांग्रेस ने दशकों राज किया, और अब संघ हावी है.
भारत में ज्यादातर लम्बी दाढ़ी वाले (और कुछ बिना दाढ़ी के भी ) बकवास लोग पैदा हुए.
इस बीच भारत ने कुछ ग्रेट लोग पैदा किए लेकिन दुर्भाग्यवश ओझल हो गए. ओझल  कर दिए गए. 
खुशवंत सिंह, ओशो, कुल्बुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, हरी-शंकर परसाई,  रेशनलिस्ट सोसाइटी के लोग. कितने ही लेखक, कवि, फिल्म-मेकर. मैं तो सुलभ शौचालय चलाने वालों को भी महान मानता हूँ. थोड़ा खोजेंगे तो अनेक नाम मिल जायेंगे ऐसे लेकिन हाशिये पर छूटे हुए.   
कहने का मतलब है कि कांग्रेस, संघ और बाकी राजनीतिक विचार-धाराओं की वजह से इस समाज के चिंतकों की चिंता नहीं ली गई.

खुशवंत सिंह ने ता-उम्र लिखा. उनका लिखा, स्कूलों में पढ़ाया जाता है. एक सदी का जीवन. ऐसे भुला दिया गया जैसे वो थे ही नहीं.

दाभोलकर, कलबुर्गी जैसों को तो कत्ल ही कर दिया गया. कहानी खत्म.

ओशो, जिन्हें आज दुनिया समझ रही है, जितनी गालियाँ भारत से उनको मिली, शायद ही किसी को मिली होंगी.

यहाँ तो बस चिप्पी लगा दी जाती है कि फलां कम्युनिस्ट है,फलां ये है, फलां वो है. वाम-पंथी है, इसका चेला, उसका चेला. कहानी खत्म.

यह दुर्भाग्य है. ये लोग, 
ओशो, खुशवंत सिंह, कुल्बुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, हरी-शंकर परसाई आदि ज़रूरी नहीं सब जगह सही हों. लेकिन ये भारत के चिन्तक हैं. चिंता लेते हैं भारत की. बहुत कुछ सही भी है इनके लेखन में. कथन में.

भारत को इनकी ज़रुरत है. दुनिया को इनकी ज़रूरत है.

वरना न दुनिया का भविष्य है और न ही भारत का.करते रहो, हैप्पी न्यू इयर. वो तो हैप्पी तभी होगा जब कुछ नया सोचने की कोशिश करेंगे.

नमन...कॉपी राईट

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