'आर्ट्स' की वापिसी

दसवीं में स्कूल में टॉप किया था मैंने और अंग्रेज़ी में तो शायद पूरी स्टेट में. कुछ ख़ास नहीं आती थी लेकिन अंधों में काना राजा वाली स्थिति रही होगी. 

सबको उम्मीद थी कि मैं मेडिकल में या नॉन-मेडिकल में जाऊंगा. नॉन-मेडिकल में इंजीनियर बनते थे और मेडिकल में डॉक्टर. लेकिन मुझे तो न डॉक्टर बनना था और न ही इंजीनियर. मैं अपनी ज़िन्दगी के चार-पांच साल वो सब पढ़ने में नहीं लगाना चाहता था जो मैं पढ़ना नहीं चाहता था. 

मुझे साहित्य और फिलिसोफी और साइकोलॉजी, ऐसे विषयों में रूचि थी. खैर, आर्ट्स में आ गया. मात्र दो महीने पढ़ के प्रथम डिविज़न से पास होता रहा. बाकी समय लाइब्रेरी और रीडिंग सेंटर के नाम. जो पढ़ सकता था, पढ़ गया उन सालों में. 

खैर, उन दिनों  आर्ट्स में  वो छात्र जाते थे, जो परले दर्जे के निकम्मे माने जाते थे. जिनके बस का कुछ नहीं था.  आर्ट्स के विद्यार्थिओं के करियर की अर्थी निकल चुकी मानी जाती थी. 

स्थिति आज भी कुछ बदली नहीं है. आज भी डॉक्टरी, वकालत , चार्टर्ड-अकाउंटेंसी  की पढ़ाई करने वाले ही  कीमती माने जाते हैं.  और आर्ट्स पढने वाले आवारा, नाकारा. 

आर्ट्स, जहाँ से पोलिटिकल और सामाजिक शिक्षा होनी है. वो शिक्षा, जो समाज को इतना उन्नत कर सकती है कि आपको वकीलों, डॉक्टरों और चार्टर्ड-अकाउंटेंट की जरूरत ही न रहे या कम से कम रह जाए. लेकिन सारा जोर डाक्टर, वकील आदि बनने पर है. उनकी इज्ज़त है, उनको पैसा मिलता है. 

बेचारा आर्ट का स्टूडेंट बेरोजगार रहता है, बेज़ार रहता है. किताबें काली करता  रहे, पढता रहे, लिखता रहे, कौन पूछ रहा है?

ऐसा क्यूँ है? 


चूँकि सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था चोरों-डकैतों ने हाईजैक कर ली है. 
कहते रहें कि जनतंत्र है. जनता की सरकार, जनता द्वारा, जनता के लिए. न तो यह जनता की सरकार है और न ही जनता द्वारा बनाई जाती है और न ही जनता के लिए काम करती है.  


यह अमीरों, राजा लोगों की सरकार होती है. जनता में से तो कोई उम्मीदवार जीतना ही लगभग असम्भव है. ऐसा उम्मीदवार,  जो हो सकता है कोई परचून की दूकान चलाता हो लेकिन रात को खूब पढता हो और पढ़-पढ़ कर मुल्क के हालात बदलने के प्लान बनाता हो (आपको मालूम हो शायद कि दुनिया की बहुत सी इजाद आम लोगों ने की हैं).......कोई ट्यूशन पढ़ाने वाला, जो आसमान में रात को तारे देखता हो लेकिन दिन में ज़मीन पर भी तारे देखना चाहता हो, देश-दुनिया को खुशियों के तारों से जगमगाना चाहता हो.......कोई ब्लॉगर हो, जो सिर्फ  ब्लॉग ही नहीं लिखना चाहता, अपने शब्दों के अर्थों  को लोगों में उतरते देखना चाहता है.   लेकिन  जब जनता, असल जनता में से कोई उम्मीदवार मैदान में उतर ही  नहीं सकता तो फिर जनता की बेहतरी की उम्मीद भी कैसी?

सो 'लोकतंत्र' नाम का एक ड्रामा खेला जा रहा है. अब इस ड्रामे के सूत्रधार क्यूँ चाहेंगे कि समाज में कुछ बदले? चूँकि अगर कुछ बदला तो ये लोग गौण होते  जायेंगे. सो सामाजिक शिक्षा, राजनीतिक शिक्षा, साहित्य इन सब को हाशिये पर धकेल दिया गया है. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी.

लेकिन कब तक? यह सब बैक-डोर से आ धमका है. सोशल मीडिया द्वारा.

और याद रखियेगा, अगर समाज में, देश-दुनिया में कोई बदलाव आएगा, बेहतरी आयेगी तो वो सोशल मीडिया के ज़रिये आयेगी. क्रेडिट चाहे कोई भी ले जाए, लेकिन पीछे सोशल मीडिया द्वारा पैदा की गयी चेतना होगी.

बहुत देर तक जनता को मूर्ख नहीं बनाया जा पायेगा. काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ेगी. वो समय गया जब दशकों तक कुछ नहीं बदला और लोग फिर भी एक ही पार्टी को चुनते रहे. अब काम करके ही दिखाना होगा, चाहे कोई भी हो.

तथा नए लोग आयेंगे, नई विचार-धाराएं आयेंगी, नई व्यवस्थाएं आयेंगी. बहुत देर तक कोई इस बदलाव को नहीं रोक पायेगा. 

तो जब आप किसी नेता को हीरो बनाने लगें तो 'आर्ट्स' को धन्यवाद दीजियेगा और कंप्यूटर-इन्टरनेट-सोशल मीडिया  इजाद करने वालों को भी धन्यवाद ज़रूर दीजियेगा, जिनकी बदौलत 'आर्ट्स' फिर से रोज़मर्रा के जीवन में आ धमका है.


नमन

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