Sunday 22 October 2023

इजराइल-फ़लस्तीन-यहूदी-मुसलमान-ज़मीन-आसमान

बड़ी बहस है कि इजराइल की धरती यहूदियों की है या मुसलमानों की है. मुसलमान कहते हैं कि वो ज़मीन उन से छीन कर यहूदियों को दी गयी है. जब कि यहूदी उस ज़मीन पर अपना हक़ बताते हैं. ऐसा ही कुछ मामला कश्मीर का है. हिन्दू उस ज़मीन पर अपना पुराना हक़ जमाते हैं, जब कि इस वक्त ज़यादातर मुस्लिम रहते हैं वहाँ. तो हक़ किसका हुआ?

असल बात यह है कि किसी भी ज़मीन पर किसी का कोई हक़ नहीं है. धरती माता ने आज तक किसी के नाम कोई रजिस्ट्री नहीं की है. ज़मीन पर कब्जा खेती जब शुरू हुई तभी से है. वो कब्ज़ा कबीलों से ले कर मुल्कों तक फैला है और उस कब्जे के झगड़े पूरी दुनिया में हैं.

क्या हवा किसी एक की है, क्या दरिया किसी एक के हैं? वैसे दरिया भी बाँट लिए गए हैं. ऐसे ही धरती भी बाँट ली गयी है. बस चले तो हवा भी बाँट ली जाएगी और शायद आसमान भी. यह क्या बेवकूफी है? हम पशु-पक्षियों से भी बदतर हैं. इलाकों के लिए शायद वो भी इतना नहीं लड़ते जितना हम लड़ते हैं. हम उन से ज़्यादा समझदार हैं. हम में इन मुद्दों को लेकर तो कतई कोई झगड़ा होना ही नहीं चाहिए. लेकिन हमारी पीढ़ियां लड़ रही हैं. कबीले लड़ रहे हैं, गाँव लड़ रहे हैं. मुल्क लड़ रहे हैं.

सब से खतरनाक इस्लामिक कबीला है. हाँ, मैं इसे कबीला मानता हूँ. मुस्लिम उम्मा, पूरी दुनिया में चाहे बिखरी हो लेकिन यह अपने आप में अलग-थलग ही रहती है. यह बिखरी होने के बावजूद एक कबीलनुमा आबादी है. इस आबादी का बाकी दुनिया की सारी आबादी से झगड़ा है. अनवरत. इसे पूरी दुनिया को मुसलमान करना है. अपने जैसा झगड़ालू. अपने जैसा आदिम. इन का इतिहास सारे का सारा मार-काट से भरा है. आज भी जहाँ मुसलमान हैं, वहाँ शांति नाम की कोई चीज़ नहीं है जब कि मुसलमान खुद को अमन-पसंद बताते हैं. इन के इसी दावे की वजह से गैर-मुस्लिम "शांति-दूत" लिखते हैं इन को . खिल्ली उड़ाते हुए. चूँकि अक्सर खबर आती है, कि शांतिदूत ने फलां जगह बम्ब बाँध "अल्लाह-हू-अकबर" कर दिया, खुद तो फटा, साथ में कितने ही निर्दोष लोगों को और उड़ा दिया. और यह चलता ही आ रहा है. फिर भी इन को सारी दुनिया को मुसलमान करना है.

यह सब बड़ा ही संक्षिप्त लिखा है मैंने. अब क्या ऐसे समाज को कहीं भी रहने की इजाज़त मिलनी चाहिए? मेरा सवाल यह है कि मुसलमान को कश्मीर छोड़ो दुनिया के किसी भी कोने में रहने की इजाज़त होनी चाहिए क्या? सोचिये. सवाल यहाँ यह तो होना ही नहीं चाहिए कि ज़मीन के किस टुकड़े पर कौन कब काबिज था या है. धरती लाखों वर्षों से है. इंसान हज़ारों वर्षों से और इंसानी तथाकथित सभ्यता उस से भी कम समय से है. धरती पर किस का, कैसा कब्जा? कब्जा पहले पीछे होना कोई कसौटी होना ही नहीं चाहिए कि किस भू-भाग पर कौन रहेगा?

ऐसे ही आरएसएस (संघ) वाले भी हिन्दू-भूमि के गीत गाते है. कौन सी भूमि है हिन्दू भूमि है? भूमि ने कभी कहा है की वो हिन्दू भूमि है? यह सब बस कथन हैं. कोई भूमि न तो हिन्दू भूमि है, न मुस्लिम, न यहूदी. भूमि सिर्फ भूमि है.

फिर किस को किस भूमि का अधिकार होना चाहिए? जिस समाज की मान्यताएं ही आदिम हों, हिंसक हों, उसे कैसे किसी भी भू-भाग का अधिकार दे दिया जाए?

दीन-धर्म-मज़हब सिर्फ़ दीन -धर्म-मज़हब नहीं हैं. एक जैसे नहीं हैं. उन में ज़मीन आसमान का फर्क है. इन में इस्लाम सब से ज़्यादा हिंसक है, विस्तारवादी है. तर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं. हथियार ही इस का तर्क है. ज़्यादा तर्क करने वाले को मार-काट दिया जाता है. सवाल उठाने की कोई आज़ादी नहीं. आप क़ुरान, मोहम्मद और इस्लाम की आलोचना नहीं कर सकते. ख़ास कर के इस्लामिक समाजों में. और जहाँ आज़ादी नहीं, जहाँ विचार के पैरों में बेड़ियाँ डाल दी जाएँ, जहाँ विचार को हथकड़ियां लगा दी जाएँ, वो कैसे दौड़ेगा? तो यह समाज बस जकड़ा पड़ा है. पिछले १४०० सालों से. और पूरी दुनिया को अपने जैसा बनाना चाहता है. इस समाज को इजराइल, फ़लस्तीन, कश्मीर छोड़ो दुनिया के किसी भी कोने में नहीं होना चाहिए. आज दुनिया में जो भी मुद्दे हैं, झगड़े हैं उन में ज़्यादातर मुसलमानों की वजह से हैं. भारत में भी ज़्यादातर झगड़े-झंझट-इन्ही की वजह से हैं. भारत की आधी ऊर्जा मुसलमानों के मुद्दों में ही उलझी पड़ी है. अनवरत.

और मुसलमानों की बड़ी आबादी है. क्या किया जाये? इन को समन्दर में डूबा नहीं सकते? हिटलर की तरह हवा में उड़ा नहीं सकते. तो फिर क्या किया जाये?

एक तरीका यह है कि दुनिया में एक ऐसा मुल्क बनाया जाये, जहाँ एक्स-मुस्लिम बसाये जा सकें. बहुत लोग अंदर-अंदर इस्लाम छोड़ चुके हैं, लेकिन चूँकि रहना उन को मुस्लिम समाजों में है मज़बूरी-वश, तो वो मुसलमान ही बने रहते हैं. इन को वहां से निकाला जाना चाहिए. अलग मुल्क दिया जाना चाहिए.

दूसरा, पूरी दुनिया में De-Islamization प्रोग्राम चलाये जाने चाहिए. असल में तो किसी भी बच्चे को किसी भी तरह की धार्मिक शिक्षा दी ही नहीं जानी चाहिए. यह अनैतिक है. यह गैर-कानूनी होना चाहिए. सब मदरसे, सब धार्मिक किस्म के स्कूल बंद होने चाहिए. सब स्कूलों में वैज्ञानिक सोच को विकसित करना सिखाया जाना चाहिए.

तीसरा, गैर-मुस्लिम समाज को तेजी से इस्लामिक साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए। गैर-मुस्लिम को पता होना चाहिए कि इस्लामिक हिंसा इस्लामिक साहित्य से आती है. जब एक समाज का साहित्य ही नफरत सिखा रहा हो, हिंसा सिखा रहा हो, आदिम कबीलाई किस्म की मान्यताएं सिखा रहा हो तो वो बदलते ज़माने के साथ कैसे तालमेल बिठा पायेगा? लेकिन गैर-मुस्लिमों में से बहुत लोग यह सब नहीं समझते. वो आज भी गंगा-जमुनी तहज़ीब के गीत गाते हैं, या ईश्वर के साथ अल्लाह को जोड़ते है. जो कि सरासर झूठ है. अल्लाह के साथ किसी को नहीं जोड़ा जा सकता, ऐसा इस्लाम कहता है खुद. यह शिर्क है, जो गुनाह है. यह सब समझना होगा गैर-मुस्लिम को. पूरी दुनिया को इस्लामिक खतरों को समझना होगा और इस के लिए युद्ध स्तर पर काम करना होगा.

और मुसलामानों को समझना होगा कि तुम्हारी समस्याओं की जड़ तुम खुद हो, तुम्हारा इस्लाम है. जिसे तुम अपना सब से कीमती आभूषण समझते हो, वही तुम्हारी बेड़ियाँ हैं, हथकड़ियां हैं, वही तुम्हारी जेल है।

आज सोशल मीडिया भरता जा रहा है, फलस्तीनी बच्चों की मौतें दिखाने के लिए. इजराइल ने मार दिया. क्या मुसलमान ने जो आज तक हिंसा, कत्लो-गारत की है पूरी दुनिया में या अभी भी जो कर रहा है जो, वो नहीं देखनी-दिखानी चाहिए? जिन का फलसफा ही यह कि इस्लाम को पूरी दुनिया पर ग़ालिब होना है, उन की ज़्यादतियों को नहीं दिखाया जाना चाहिए क्या? "तुम करो तो रास लीला, हम करें तो करैक्टर ढीला." तुम मारो तो यह दीन, और सामने वाला मारे तो यह ज़ुल्म?

तो वक्त आ गया है, जिस तरह से साम-दाम-दंड -भेद से लोगों को मुसलमान किया गया है, वैसे ही इन को इस्लाम से बाहर निकाला जाये, अन्यथा दुनिया में हिंसा थमेगी नहीं.

या फिर गैर-मुस्लिम सब किसी और सुन्दर ग्रह पर शिफ्ट हो जाएँ और मुसलामानों को यहीं छोड़ दें. लो बना लो इस धरती को मुसलमान. फिर कुछ सालों बाद जब मुसलमान आपस में लड़ मरें तो फिर वापिस इस धरती पर भी कुछ गैर-मुस्लिम लोग आ बसें.

यह हैं कुछ सुझाव. बाकी आप सुझाएं...

नमन.
तुषार कॉस्मिक
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