क्या तुम ने डाकुओं की फिल्में देखी हैं? दगड़-दगड़ घोड़े दौड़ रहे हैं. पीठ पर डाकू बैठे हैं. लेकिन मुंह पर कपड़ा भी बाँधे हैं. क्यों? ताकि पहचान में न आ सकें.
इस्लाम गिरोह की तरह काम करता है. इस में पर्दे का बहुत रिवाज़ है.
औरतों के मुंह छुपाये जाते हैं. बस आँखें छोड़ सब ढक दो. वो भी देखने के लिए खुली रहनी ज़रूरी हैं, नहीं तो वो भी ढक देते.
मुस्लिम सिर्फ कपड़े के पीछे ही नहीं छुपते, नाम भी छुपाते हैं. दिलीप कुमार, मधु बाला, अजीत और न जाने कितने ही एक्टर रहे हैं हिंदी फिल्मों में जो असल में मुस्लिम थे लेकिन हिन्दू नामों के पीछे छुप गए.
आज भी योगी ने जब अपने व्यापार की नाम प्लेट लगाने का आदेश दिया तो हाहाकार मच गयी. क्यों? चूँकि मुस्लिम हिन्दू नामों के पीछे छुप कर व्यापार कर रहा है.
और ये जो "लव जिहाद" का आरोप लगाते हैं न भगवा ब्रिगेड वाले, ये कोई कोरा झूठ हो ऐसा मुझे लगता नहीं चूँकि मेरे इर्द-गिर्द बहुत से मर्द देखे हैं मैंने जिन की बीवियाँ हिन्दू घरों से हैं लेकिन उल्टा नहीं है. तो मुस्लिम आदमी, गैर मुस्लिम औरतों को इस तरीके से भी इस्लाम में लाते हैं यह तो पक्का है. अब वो अपनी पहचान छुपाते हैं, नाम गलत बताते हैं शुरू में, इस की भी बहुत ज़्यादा संभावना है. ऐसे कई केस पकड़े भी गये हैं.
एक वाक़या याद आता है, कोई लगभग डेढ़ दशक पुरानी बात है. मैं फेसबुक पर आया ही था. मुझे फेसबुक ठीक से चलना आता ही नहीं था. कोई SAM नाम से मित्र बनी. कुछ बात-चीत बढ़ी तो पता लगा वो शाज़िया मीर थीं. कश्मीर में पहलगाम या अनंतनाग के पास किसी गाँव में रहती थी. तब तक मुझे इस्लाम की "खूबियां" कुछ खास नहीं पता थी. मैं सब धर्मों को एक जैसा समझता था. एक जैसा "व्यर्थ". वो तो सोशल मीडिया पर आने के बाद ही मुझे इस्लाम पर ढेरों वीडियो और लेख मिले तो मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे. और फिर जब मैं इस्लाम के खिलाफ पोस्ट डालने लगा तो शाज़िया ने मुझे एक-दो बार समझाने का प्रयास किया. उस के कहने से मैंने वो पोस्ट हटा भी दीं. लेकिन मेरा सच ज़ोर मारने लगा और मैं यदा-कदा इस्लाम पर पोस्ट डालने लगा. फिर शाज़िया गायब हो गईं. हो सकता है, वो आज भी पढ़तीं हो मेरा लिखा कभी छुप कर चूँकि हम लोग जिन से अलग होते हैं, उन को भी कभी-कभी बीच में देखना चाहते हैं.
आज मुझे समझ आता है कि शाज़िया SAM नाम से अपनी ID क्यों चला रहीं थी? चूँकि शाज़िया को पता था कि मुस्लिम नाम से शायद कोई लोग उसे रिजेक्ट कर सकते हैं शुरू में ही. हालाँकि उस वक्त तक मुझे शाज़िया और SAM, दोनों में न तो कोई फर्क पता था और न ही कोई परहेज़ था.
X-मुस्लिम देखे हैं. ज़्यादातर ने अपने मुँह छुपा रखे हैं. क्यों? चूँकि पहचान लिए गए तो मार दिए जाएंगे. किसी और धर्म को कतई फर्क नहीं पड़ता, छोड़ दो , छोड़ दो. कोई मरने मारने नहीं आएगा. लेकिन इस्लाम..? यह तो है गिरोह. कोई यह गिरोह कैसे छोड़ के जा सकता है. यह One-way ट्रैफिक है. जहाँ एंट्री तो है एग्जिट कोई नहीं.
इस्लाम में रहते हुए तो मुँह छुपाते ही हैं मुस्लिम, इस्लाम छोड़ दिया तब भी मुँह छुपाते हैं. मैंने सुना है, मारे जाने का, सामाजिक बहिष्कार का डर न हो तो आधे मुस्लिम X-मुस्लिम हो जाएंगे. X-मुस्लिम की बाढ़ आ जाये, सुनामी आ जाये.
और एक पर्दा है जो मुसलमान कर रहे हैं, वो शायद बहुत कम लोगों को दिख रहा हो. इस्लामिक ग्रंथों से निकाल यदि कोई रिफरेन्स दे दे, जो आज के ज़माने के हिसाब से कुछ फिट सा न बैठता दिखाई पड़ता हो तो मुस्लिम हो-हल्ला करने लगे हैं. सर तन से जुदा का आह्वान करने लगे हैं. नूपुर शर्मा मामले में यही हुआ था. उस ने जो भी कहा था, वो एक डिबेट में कहा था. मिस्टर रहमानी ने हिन्दू मान्यताओं पर कुछ नेगेटिव टिपण्णी की थी तो बदले में नूपुर ने जो कहा था वो इस्लामिक ग्रंथों का रिफरेन्स देते हुए कहा था. जो उस ने कहा, वो इस्लामिक स्कॉलर कई बार कह चुके हैं. लेकिन सर तन से जुदा का नारा सिर्फ नूपुर के लिए. फिर मैंने देखा X-मुस्लिम साहिल को एक डिबेट में. वो कुछ इस्लामिक ग्रंथों में से रिफरेन्स के साथ quote करने जा रहा था, लेकिन मौलाना लगा चीखने-चिल्लाने, "तू मुरतद है, तू कुछ नहीं बोल सकता, तू मुरतद है .... " और डिबेट खत्म. मेरे साथी हैं एक मोहमद क़ासिम (नाम थोड़ा सा बदल दिया है). प्रॉपर्टी की कई डील हम ने मिल-जुल कर की हैं. शरीफ व्यक्ति हैं. कब्बी-कभार इन से इस्लाम पर भिड़ंत हुई है. जब भी कभी मैंने क़ुरान का हवाला दे कर कहा कि क़ुरान में काफिर/गैर-मुस्लिम के खिलाफ बहुत हिँसा है तो ये जनाब बुरी तरह से भड़क गए. मैंने आयतों का रिफरेन्स देने की बात की तो भी इन की Sanity लौटी नहीं. ये भड़के ही रहे. मुझ से कहा, "आप आयतों के मतलब ठीक से नहीं समझते. उस आयत के आगे की आयत पढ़ो, पीछे की आयत पढ़ो. उस का संदर्भ समझो. उस का अनुवाद सही नहीं है." और भी पता नहीं क्या-क्या.
कुल मिला कर नतीजा यह है कि मुस्लिम अपने ही ग्रंथों को पर्दे में रखने लगे हैं.
यहाँ मैं इस्लामिक कांसेप्ट "अल-तकिया" का ज़िक्र भी करूंगा. इस का शाब्दिक अर्थ जो मुझे मिला वह है: "किसी खतरे के समय, चाहे अभी हो या बाद में, खुद को शारीरिक और/या मानसिक चोट से बचाने के लिए अपने विश्वासों, मान्यताओं, विचारों, भावनाओं, राय और/या रणनीतियों को छिपाना या छिपाना।" लेकिन गैर-मुस्लिमों में इस का प्रैक्टिकल अर्थ समझा जा रहा है कि मुस्लिम इस्लाम फ़ैलाने के लिए कैसा भी झूठा और छद्द्म रूप अख़्तियार कर सकते हैं. गैर-मुस्लिम ग़लत हो सकते हैं, अल-तकिया के अर्थ समझने में. लेकिन मुस्लिम इस्लाम फ़ैलाने के लिए साम-दाम दंड-भेद सब तरह की नीति-कूटनीति का प्रयोग करते हैं इस में मुझे कोई शंका नहीं है.
मेरा सवाल है मुस्लिम से, आत्म-निरीक्षण करो. तुम अपने नाम छुपाते हो, अपनी पहचान छुपाते हो, अपनी औरतों को सात पर्दों में छुपाते हो, तुम में से ही जो लोग हिंसक गतिविधियाँ करते हैं तो अपने चेहरे छुपाते हैं, अपने ग्रंथों के रिफरेन्स तक को छुपाने लगे हो, तुम्हारा दीन जो लोग छोड़ जाते हैं वो तक अपने आप को छुपाते हैं. क्यों?
तुम ने इस्लाम कबूला है या कोई जुर्म?
अपने इर्द-गिर्द के जमाने को देखों, कहीं तुम चौदह सौ साल पीछे तो नहीं छूट गए?
Tushar Cosmic
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