मैं देश-भक्त नहीं हूँ.


मैं देश-भक्त नहीं हूँ. चूँकि मैं देश को ही कोई रियलिटी नहीं मानता. यह वर्चुअल रियलिटी है. माना गया सत्य. जैसे मान लो मूलधन, "सौ". और फिर हम गणित का सवाल हल करने निकलते थे. वर्चुअल रियलिटी. आभासी सत्य. जो सत्य है नहीं लेकिन सत्य होने का आभास देता है.

गाँव, क़स्बा, शहर, प्रदेश, देश. लेकिन हम देश पर ही क्यों रुक जाते हैं? हम पूरी पृथ्वी तक अपनी भक्ति क्यों नहीं फैला पाते? पूरी कायनात की बात ही दूर है. "वसुधैव कुटुंबकम" और फिर "देश-भक्ति"/ "राष्ट्र-भक्ति" इन दोनों कांसेप्ट में विरोध क्यों नहीं देख पाते? हम "भारत माता की जय" बोलते हुए "चीन माता", "जापान माता", "नेपाल माता" क्यों भूल जाते हैं?

हमें यह समझा दिया है कि देश ही हमारी दुनिया है. जैसे देश कोई अंतिम सत्य हो. बाकी देशों के प्रति एक दुराव, एक अलगाव हम में बचपन से ही भर दिया जाता है. जैसे धर्म हमारे दिमागों में बचपन से ही फिट कर दिए जाते हैं, वैसे ही देश और देश-भक्ति भी.

लेकिन धर्म की जकड़न देश-भक्ति की जकड़न से कहीं आगे है. जितना मुझे पता है, इस्लाम में तो देश और देश-भक्ति का कांसेप्ट है ही नहीं. और इसे अक्सर बहुत बुरा समझा-समझाया जाता है. लेकिन यहाँ तक मैं इस्लाम से सहमत हूँ. देश और देश-भक्ति कुछ है ही नहीं. लेकिन इस से आगे इस्लाम में मुस्लिम उम्मा का कांसेप्ट है. यानि मुस्लिम Brotherhood. वहां मैं पूरी तरह असहमत हूँ. इस्लाम मुस्लिम और काफिर में बाँटता है. खतरनाक बँटवारा है. इसी का नतीजा हम देखते हैं कि दुनिया में जहाँ भी आतंकवादी घटनाएं होती हैं, वो अक्सर "अल्लाह-हू-अकबर" के नारे के साथ हो रही हैं. और फिर इन आतंवादियों की अंतिम क्रिया भी इस्लामिक विधि से ही होते हैं और फिर कई बार तो इन आतंकवादियों के जनाजे में लाखों की भीड़ भी जमती है बावजूद इस के मुस्लिम कभी नहीं मानते कि इस्लाम में कोई दिक्कत-गड़बड़ है. इस्लाम को वो लोग शांति का मज़हब ही कहते रहते हैं.

अस्तु, मैं इस्लाम और इस्लामिक उम्मा के कांसेप्ट से कतई सहमत नहीं हूँ. लेकिन मैं "राष्ट्रवाद" और "संस्थागत धर्मों" के कांसेप्ट से भी सहमत नहीं हूँ.

आज जो भारत या कई मुल्कों में फिर से राष्ट्रवाद जोर पकड़ रह है, वो है ही इसलिए चूँकि मुस्लिम जो दुनियावी तरक्की में बहुत पीछे छूट गए हैं, वो इन तरक्की-शील मुल्कों में जैसे-तैसे कानूनी-गैर कानूनी ढंग से घुसते हैं. और फिर वहाँ पहुँच उन मुल्कों की नेटिव कल्चर, कायदा-कानून, हर व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास शुरू कर देते हैं. भारत में भी आरएसएस का, राष्ट्रवाद का, भाजपा का उत्थान होने की सब से बड़ी वजह यही है. अस्तु. वो वक्ती तौर पर यह सही कदम है भी. लेकिन वक्ती तौर पर ही.

मैं बाकी सब धर्मों को गुंडे-बदमाश मानता हूँ. मैंने लिखा भी है अक्सर, "धर्म गिरोह हैं, इस्लाम माफिया है." कार्ल मार्क्स ने धर्मों को अफीम बताया था लेकिन मैंने लिखा है, "धर्म ज़हर हैं इस्लाम पोटासियम साइनाइड है."

“Patriotism is the last refuge of the scoundrels”, Samuel Johnson ने कहा था. देश-भक्ति गुंडे-बदमाशों की आखिरी शरण-स्थली है.

यह मैं देश और धर्म को क्यों जोड़ रहा हूँ? इसलिए चूँकि देश-धर्म के नाम पर लोगों को पागल करना सब से आसान है. ऐसा ही किया जाता है. झुण्ड के झुण्ड. भीड़. कहीं भी जमा हो जाती है और कुछ भी अंट-शंट कर देती है. पागल भीड़.

फिजिक्स में एक कांसेप्ट पढ़ाया जाता है. "Necessary Evil". आवश्यक बुराई. बुराई लेकिन ज़रूरी. ऐसा कुछ जो बुरा है लेकिन उस के बिना गुज़ारा नहीं. मिसाल दी जाती है Friction/घर्षण की. घर्षण गति कम करता है, यदि बहुत ज़्यादा घर्षण होगा तो कार चल ही नहीं पायेगी. लेकिन फर्श एक-दम चिकना हो, तेल-तेल हो तो भी कार गति नहीं कर पायेगी. घर्षण कार की गति के लिए बुरा है लेकिन ज़रूरी भी है. ज़रूरी बुराई.

ऐसे ही देश और देशभक्ति हैं, ये वक्ती तौर पर ज़रूरी हैं, बुराई होते हुए भी. बस. जब मैं कहता हूँ कि "मैं देश-भक्त नहीं हूँ. राष्ट्र-वादी नहीं हूँ" तो मेरा मतलब इतना ही है कि इस सत्य को समझें कि देश, राष्ट्र, देशभक्ति, राष्ट्रवाद ये सब काम चलाऊ कांसेप्ट हैं. असल में इन का कोई मतलब नहीं.

मैं देश-भक्त/ राष्ट्रवादी नहीं हूँ तो क्या इस का मतलब यह है कि मैं अपने इर्द-गिर्द के समाज के इस कदर खिलाफ हूँ कि कहीं भी बम फोड़ दूँ, गन ले कर कई सौ लोगों का कत्ल कर दूँ? क्या यह मतलब है मेरा? नहीं. मैं देश-भक्त न होते हुए भी अपने इर्द-गिर्द के समाज का हितेषी हूँ. मैं पूरी दुनिया का हितेषी हूँ. मैं "वसुधैव कुटुंबकम" ही नहीं "ब्रह्माण्ड कुटुम्बकम" में यकीन करता हूँ. मैं कॉस्मिक हूँ.

Tushar Cosmic

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