बिखरे मोती -2
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Rather be the people of the Library.
And never be a donkey anyway.
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We differentiate entities as Veg and Non-Veg. Dead and Alive.
The fact is there is nothing Dead. Even the dead or lifeless has life. Yes. A few years back, JC Bose proved trees alive. Another man shall prove that stones and Earth are also alive. Yes. Everything is alive. In fact, there is life within life.
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दुनिया में प्रॉपर्टी और पूंजी पर चंद लोगों का कब्जा है। यकीन मानो, तुम अगर गरीब हो तो सिर्फ इसलिए क्योंकि तुम्हें गरीब रखा गया है। अमीर लोगों की साजिश है कि तुम गरीब ही बने रहो। उनकी पूजी के आगे तुम्हारी मेहनत की औकात कुछ भी नहीं है"सनातन?"
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Your religious tales are just to put you in a slumber. Just like bedtime Stories for the kids. Fairy tales. Tales to numb the rebel in you. Tales to keep you an Idiot.
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God is one or none. God is one or numerous..nobody knows. God cares or careless, none knows. God responds or not, none knows..all imagination...civilizations , history, war...all based on imaginations...what an Idiot..man is.
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एक सीमा के बाद कितनी ही दौलत कमाते रहना कितने ही महल गाड़ी बना लेना सब मिस यूज होता हे उसका कोई उपयोग आप अपने जीवन में नहीं कर पाते हो सिवाय शान के कि हमारे पास इतनी दौलत हे इतना कोठी बंगले इतनी गाड़ी हे लेकिन इंसान समझने को तैयार नहीं हे वो दौलत के पीछे बस भागे ही जा रहा हे चाहे उस दौलत को कमाने में किसी को भी बर्बाद करना पड़े कुछ भी अनैतिक करना पड़े या कई बार मर्डर तक हो जाते हे लेकिन दौलत की भूख हे कि मिटती ही नहीं
*****एक सज्जन बता थे कि सनातन का अर्थ है कुदरत..... प्रकृति.
और प्रकृति का पूजन ही सनातन है. प्रकृति है तो हम हैं. प्रकृति से ही हम हैं. और प्रकृति सनातन है.
गुड.
यह बात कहने-सुनने में बहुत अच्छे लगती है.
लेकिन क्या बात इतनी ही सीधी और सरल है?
अभी छठ पूजा हो के हटी है. मैं पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. यहाँ कई एकड़ में फैला एक डिस्ट्रिक्ट पार्क है. इस के बीचों-बीच एक झील हुआ करती थी. अब सूखी थी. छठ के लिए इस में कुछ पानी भरा जाता है. छठ पे इस के किनारे आयोजन किया जाता है. लाउड स्पीकर. गाना बजाना. पटाखे. पूजन. सब कुछ होता है. आयोजन खत्म. भीड़ गायब। लेकिन पीछे कूड़ा. पूरी झील के इर्द गिर्द कूड़ा. और झील में कीचड़ नुमा पानी. यह है प्रकृति की पूजा!
असल में यह सब अब सांकेतिक रह गया है. शायद सांकेतिक भी नहीं. लोग छठी मैया से अपनी मन्नतें माँगते होंगें, जैसे कहीं भी अपनी इच्छाओं का बोझा लाद देते हैं. किसी भी मंदिर-मजार, पीर-फकीर के डेरे पर. बस. यह प्रकृति-पूजन नहीं है. यह दुष्प्रयोजन है. प्रकृति का दुष्प्रयोग है.
क्या "छट्ठी मैया" को पंजाबी जानते थे? मैं पंजाब से हूँ. कुछ दशक पहले तक वहां किसी को इस उत्सव का पता नहीं था. ऐसे ही भारत में बहुत से धार्मिक आयोजन हैं, उत्सव हैं जो लोकल हैं, जिन का बाहरी लोगों को बिलकुल कोई मतलब नहीं.
यह मिसाल है. तो जिसे सनातन समझा जा रहा है, वो कुल मिला कर कबीलों, गाँव, देहातों, कस्बों का पूजन मात्र है. लोकल देवी-देवता का पूजन. बस. और इस में सनातन कुछ भी नहीं है.
छुपे अर्थ चाहे कुछ भी रहे हों, शुरू में प्रयोजन चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन असल में सारा आयोजन बस दुनियावी अर्थ साधने के लिए होता हैं. प्रकृति को संभालने की किसे पड़ी है? भजन-पूजन तो सिर्फ अपने स्वार्थ सिद्ध करने को किया जा रहा है. यह सनातन है?
Tushar Cosmic
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"समझदार लोग"
समझदार इंसान ज़रा सा मौका मिलते ही कतार तोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करता है. मूर्ख इंसान कतार में खड़ा अपनी बारी आने का इंतज़ार करता है.
भारत में लेफ्ट साइड चलते हैं लेकिन समझदार लोग राइट साइड में भी अपना राइट समझते हैं. घुस जाते हैं, कतार तोड़ कर. जो लोग सही लेन में सरकते रहते हैं, वो मूढ़ हैं, महा मूढ़ हैं. ऐसे कोई ज़िंदगी में आगे बढ़ सकता है? होता रहे ट्राफिक जाम. समझदार लोग टेढ़-मेढ़ कर के कतार में सरकने वाले लोगों से कहीं आगे निकल ही जाते हैं.
गाड़ी पार्क करने की जगह हो या न हो, लेकिन समझदार लोग आड़ी-टेढ़ी गाड़ी पार्क कर देंगे. कई बार तो बीच सड़क में गाड़ी छोड़ चल देंगे. भाड़ में जाए दुनिया-दारी. कई किसी के भी घर-द्वार के आगे गाड़ी छोड़ देंगे. भली करेंगे राम. बुरे तो वो लोग हैं जो इन की गाड़ियों के टायरों की हवा निकाल देते हैं या इन की गाड़ी डैमेज कर देते हैं. गर्र..
Moral:- समझदार बनो.
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मुस्लिम से मैं सीधा-सीधा कहना चाहता हूँ कि तुम्हें बहुत जिद्द है न सारी दुनिया को मुस्लिम करने की? कुछ नहीं है तुम्हारे पल्ले सिवा एक बड़ी आबादी के और कुछ मुल्कों पर शासन के. और जहाँ तुम्हारा शासन है भी, वहां भी जनता का एक हिस्सा तिलमिला रहा है इस्लाम के चंगुल से निकलने को.
ईरान की मिसाल ले लो. औरतें जान देने पर तुली है लेकिन इस्लाम से बाहर आना चाहती हैं.
अफगानिस्तान में जब तालिबान आया था तो ऐसे ही लोग भाग रहे थे. प्लेन से लटक गए थे.
अरब से बाहर के मुसलमानों को जाने कब समझ आएगा?
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मुस्लिम की बेसिक जिद्द है कि ख़लकत (कायनात) का एक ख़ालिक़ ही है, एक ही मालिक है. अल्लाह और अल्लाह का आखिरी मेस्सेंजर थे हज़रत मोहम्मद साहेब और अल्लाह का फाइनल मैसेज है क़ुरान. चलो इसी पे बहस करते हैं. साबित करो कि खलकत का कोई खालिक है ही? यह अपने आप नहीं बनी. और वो एक ही है, एक से ज़्यादा नहीं हैं? और उस का नाम अल्लाह ही है. और वो अल्लाह मैसेंजर भेजता रहा है? और आख़िरी मैसेंजर/ नबी मोहम्मद साहेब हैं? और अल्लाह का आखिर मैसेज क़ुरआन है? साबित करो.
सोसाइटी के भीतर सोसाइटी (Society within Society), स्टेट के भीतर स्टेट ( State within State). यह है मुस्लिम समाज. और चिल्लाने लगते हैं यदि कोई और समाज इन का बहिष्कार करने की बात भी कर दे. इन्होने तो जन्मजात रोटी-बेटी का रिश्त तोड़ रखा है काफिरों के साथ. वो?
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भारत में हिन्दू धर्म, सनातन धर्म, हिंदुत्व जैसा कभी भी कुछ नहीं रहा. यहाँ सब की अपनी-अपनी डफली रही है और सब अपना-अपना राग अलापते रहे हैं. लेकिन फिर कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा लिया गया और भानुमति ने कुनबा जोड़ लिया. यह भानुमति असल में सावरकर, आरएसएस और भाजपा रही है.
तथा-कथित हिन्दुओं से भी सीधा-सीधा कहना चाहता हूँ कि न तो कोई हिंदुत्व नामक चीज़ है, न भाव, न विचार-धारा, न विश्वास. कुछ नहीं. इसे परिभाषित भी नहीं कर पाओगे. और न ही भारत-भूमि नामक कोई ज़मीन का टुकड़ा सैतालीस से पहले था, जो हिन्दुओं की बपौती रहा हो. यह सब इस्लाम, ईसाईयत और कम्युनिज्म आदि से बचने के लिए आरएसएस किस्म की सोच रखने वाले लोगों द्वारा घड़े गए नैरेटिव हैं. और ये नैरेटिव अब ज़मीन पकड़े हैं इस्लाम के खतरे की वजह से. मुख्यतः इस्लाम की हिंसा से, इस्लाम से ही बचाने के लिए.
इस्लाम को छिन्न-भिन्न कर दो तर्कों के प्रहार से, लेकिन फिर तुम्हारी अपनी मान्यताएं भी टूटेंगी. टूटने दो. यही रास्ता बेस्ट है. न कि वो जिस में तुम इस्लाम को तो चुनौती देते रहते हो और अपनी मान्यताओं को बचा ले जाना चाहते हो. वो सब बकवास है. "हस्ती मिटती नहीं हमारी". नहीं. इस्लाम के साथ तुम्हारी हस्ती में से भी बहुत मिट जायेगा. और यही शुभ है.
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महाभारत और रामायण को इतिहास मानने वालों को पूछना है.
कौन सा बंदर हवा में उड़ता है? कौन सा बंदर बोलता है? कौन सा बंदर सूरज को खा सकता है? करवों से बच्चे कब पैदा होते हैं? या फिर सूरज से या फिर हवा से?
बच्चे सिर्फ सम्भोग से पैदा होते हैं, वो भी एक ही प्रजाति के नर और मादा से.
यह मिथिहास है भय्ये.
और न महाभारत और न रामायण इतिहास की तरह पढ़ाई जाती है. मिथिहास का अर्थ जानते हैं क्या है? मिथिहास मतलब मिथ्या नहीं है. यह मिथ्या और इतिहास का गठजोड़ है. इस में इतिहास भी और मिथिक भी हैं. यानि पता नहीं कितना सच है, कितना झूठ. सच भी हो सकता और झूठ भी. दोनों का समिश्रण। किस्से-कहानियों को भी जोड़ा-तोड़ा गया हो सकता है. कल्पनाओं के घोडा भी दौड़ा हो सकता है. लेकिन कोई झूठ भी बोलता है तो उस में कुछ तो सत्य भी बोल ही जाता है. ऐसे ही आज हम विश्लेषण कर के सत्य या यूँ कहें कि सत्त (निचोड़) निकलने की कोशिश करते हैं. वो काम की चीज़ है न कि यह साबित करने की जिद्द कि यह सब हूबहू सत्यकथा ही है. सत्यकथा जोर मत दो, सत्त-कथा पर जोर दो.
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क्या कोई लिख सकता है कि मैं नहीं हूँ देशभक्त? हिन्दू नाम से कोई धर्म नहीं है. भारत नाम से कोई मुल्क था ही नहीं सैंतालीस से पहले और जो था वो अंग्रेजों का था. India. हिन्दुओं का आज जितना बड़ा राज्य कोई नहीं था, और अलग अलग राजाओं के रजवाड़े थे, इन में भारत कौन सा था पता नहीं. मैंने लिखा है.
कोई ख़ास बात है ही नहीं. यूनाइटेड किंगडम, यूनाइटेड स्टेटस ऑफ़ अमेरिका, USSR ये सब ऐसे ही जोड़-तोड़ के बने होंगे. क्या फर्क पड़ता है?
माँ के पेट से ही तो देश-राष्ट्र बनते नहीं. धरती माँ.
और तथा कथित सभ्यता-संस्कृति भी कोई एक स्थान विशेष से बंधी नहीं होती. पूरी दुनिया से लोगों ने एक दूजे से मान्यताएं, विचार, विश्वास लिए-दिए हैं. छोड़े और अपनाये हैं. यह भारतीय-अभारतीय सभ्यता सब बकवास है.
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कोई नहीं खेलता मुल्क के लिए. बकवास करते हैं खिलाड़ी. और न खेलना ही चाहिए. असल में खेल सिर्फ खेलने के लिए होते हैं. इस में देश-विदेश कहाँ से आ गया? वो सिर्फ Name & Fame पाने के लिए बक-झक की जाती है.
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मेरी नज़र में दुनिया सभ्य नहीं है. और न ही संस्कृति है कहीं । कंक्रीट के जंगलों में रहने से सभ्य नहीं हुआ जाता. एक कोठी और एक कोठड़ी में हो, तो इसे संस्कृति नहीं कहा जाता.
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कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम क्यों कहा था? एक पहलु जो मुझे समझ आता है वो एक्सप्लेन करता हूँ. अफीम हो, कोई नशा हो, यह हमें असल ज़िंदगी से दूर ले जाता है. हम वक्ती तौर पर अपनी दुःख, चिंताए भूल चुकते हैं. धर्म यही करते हैं. ये कथा-कीर्तन, ये भजन, ये पूजा-पाठ, ये सब.. हमें हमारी समस्याओं से, उन के समाधान से, इन सब चिंताओं से दूर ले जाते हैं. और हमें वक्ती तसल्ली देते हैं कि आसमान में बैठे कोई "बड़े पापा" हमारी मदद करते हैं. जब कि असलियत में ऐसा कुछ है नहीं. धर्म असलियत से दूर ले जा कर एक खुश-फ़हमी क्रिएट करता है, यही अफीम भी करती है, कोई भी नशा करता है इसीलिए मार्क्स ने इसे अफीम कहा है.
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"ध्यान की झलकें"
मेरी नज़र में हम अक्सर ध्यान में होते हैं या ध्यान जैसी स्थिति में होते हैं. अक्सर. बस शब्द हमें नहीं पता. हमें नहीं पता कि यह ध्यान है.
दौड़ाक अक्सर ध्यान में चले जाते हैं दौड़ते-दौड़ते. सब दुनिया पीछे छूट जाती है और वो बस दौड़ते जाते हैं. फिर वो भी मिट जाते हैं. बस दौड़ रह जाती है. कभी दौड़ के देखो. दौड़ते जाओ. बहुत सोच-विचार के साथ थोड़ा न दौड़ते रह सकते हो. सोच-विचार तो छूटते ही जाना है. और ध्यान का प्रादुर्भाव हो ही जाना है. इसे ही अंग्रेजी में Runner's High कहा जाता है.
कभी अनुभव किया हो, बैठे हैं, कुछ सोच चल रही है और अनायास ही टकटकी सी बंध जाती है. सब सोच रुक सी जाती है. अपने आप. कुछ किया नहीं. बस हो गया. कुछ पल के सब कुछ रुक सा जाता है. यह ध्यान है.
कभी हाईवे पर ड्राइव करो. दोनों तरफ खेत हैं. कभी कोई ढाबा गुजर जाता है. कोई गाँव. फिर कभी कोई ट्रेक्टर. कितना अच्छा लगता है. हाईवे बहुत ही आकर्षित करते हैं. बस ड्राइव करे जाओ. क्यों? यह ध्यान में ले जाता है.
अक्सर सड़कों पे लिखा होता है, "Speed Thrills but Kills". पढ़ा होगा आप ने. ठीक है तेज ड्राइव नहीं करना चाहिए लेकिन सोचने की बात यह है कि इंसान करता ही क्यों है तेज ड्राइव? क्यों? चूँकि यह ध्यान में ले जाती है. सब सोच छूट जाती है. एक दम अलर्ट. पूरी तरह से ध्यानस्थ.
कभी निद्रा से उठते ही महसूस हुआ कि अभी तो सोये थे, इतनी जल्दी कैसे उठ गए? जबकि सोये रहे घंटों. ऐसा तभी महज़ होता है जब निद्रा बहुत ही गहन हो. जैसे बचपन की निद्रा. या बचपन जैसी निद्रा. यह भी ध्यान की एक झलक है. ध्यान में समय है ही नहीं. असल में समय तो कुछ है ही नहीं. सब मन का खेल है. ध्यान में मन हट जाता है. सो समय का बोध भी खत्म सा हो जाता है. सो इस तरह की निद्रा भी ध्यान जैसी ही स्थिति है बस चेतना नहीं है सो ध्यान जैसी स्थिति है लेकिन ध्यान नहीं है.
और मुझे लगता है कि सेक्स में भी इंसान को ध्यान जैसा कुछ अनुभव होता है. मन शिथिल हो जाता है. या यूँ कहूँ कि मन अस्तित्व-हीन होता चला जाता है.
यह सब मेरी अपनी समझ है. न तो मैं कोई ज्ञानी. न ध्यानी. आम आदमी. आम आदमी पार्टी वाला नहीं. अपने आप में मग्न सच्ची-मुच्ची का आम आदमी. अपने रिस्क पर पढ़ें और समझें, जो लिखा सब बकवास हो सकता है.
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फेसबुक को कोई मतलब नहीं है किस ने अच्छा लिखा बुरा लिखा. यह पूरी तरह से एक कमर्शियल प्लेटफार्म है. पैसे दो और चाहे कचरा पोस्ट बूस्ट करवा लो. यह तो हम सब का ही फ़र्ज़ है कि अच्छा लिखने वालों को प्रमोट करें. अच्छी पोस्ट को कॉपी पेस्ट करें, लेखक के नाम के साथ. तो जहाँ अच्छी पोस्ट मिले, उसे फैला दो. ज़करिये के सहारे मत रहो.
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YouTube & FaceBook पर कोरोना के खिलाफ कुछ लिख-बोल नहीं सकते. क्यों? अब यह भी कोई धर्म-मज़हब हो गया क्या? कम्युनिटी गाइडलाइन्स के खिलाफ हो जाता है. किस इडियट ने ये गाइडलाइन्स तय की थीं. कैसे हो गया कम्युनिटी के खिलाफ? पूरी दुनिया को एक नकली बीमारी दिखा कर बंद कर दिया कमरों में और फिर वैक्सीन के नाम पर जाने क्या ठोक दिया लोगों के शरीरों में. साइलेंट हार्ट अटैक से जाने कितने ही मर गए और कितने ही मरेंगे आगे. वैक्सीन बनाने वाली कंपनी तक ने कोर्ट में कह दिया कि वैक्सीन से नुक्सान हो रहे हैं और यहाँ कुछ बोल दो तो कम्युनिटी के खिलाफ चला जाता है हमारा कथन. कमाल है!
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हम तो चाहते हैं क़ुरआन सब को पढ़ना चाहिए. आंखें खुल जाएंगी और भाईचारे का चारा बन जायेगा. *******
YouTube & Facebook के एल्गोरिथ्म को बनाने वाले महामूढ़ हैं. जो एक बार देख-सुन लिया तो उस का मतलब यह नहीं कि इंसान वही देखते-सुनने रहना पसंद करता है. ज़रूरी नहीं आज मटर पनीर खाया है तो मटर पनीर ही खाना पसंद हो रोज़. होता तो उल्टा है. जल्दी से अगले दिन मटर-पनीर खाने का मन ही न हो. शायद खिलाया जाये तो खाया भी जाये. लेकिन रोज़ ज़बरन खिलाया जाये तो बंदा थाली उठा के पटक देगा. इत्ता सा मनोविज्ञान इन महा-समझदारों को समझ नहीं आता. फिर बड़ा आसान है आज सर्च करना अपनी पसंद का कंटेंट. जिस को जो चाहिए होगा ढूंढ लेगा तुम ने अपनी टूटी से टाँग ज़रूर घुसेड़नी है. तुम्हारे दखल की वजह से कितना ही बढ़िया कंटेंट छूटे चला जा रहा है. तुम्हे पता है बहुत लोग टीवी खबर इसलिए नहीं देखते चूँकि खबर देने वाला खबर काम देता है खबर की कबर ज़्यादा खोदता है.
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मुझे लगता है मुसलमानों में अगर कोई अच्छाई नज़र आती है आज के हिसाब से तो वो सिर्फ उन के इर्द-गिर्द जो बाकी समाज हैं उन के प्रभाव के वजह से है न कि इस्लाम की वजह से. इस्लाम तो पूरी तरह से प्रिमिटिव है. कबीलाई. गिरोह. लूट के माल को बांटने तक का कोड है क़ुरान में. Quran 8:41
यह जान लो कि तुम जो भी लूटोगे, उसका पांचवां हिस्सा अल्लाह और रसूल, उसके करीबी रिश्तेदारों, अनाथों, गरीबों और जरूरतमंद यात्रियों के लिए है, यदि तुम सचमुच अल्लाह पर विश्वास करते हो और हमने उस निर्णायक पर अपने सेवक पर जो प्रकाश डाला है, उस पर विश्वास करते हो। वह दिन जब दोनों सेनाएँ बद्र में मिलीं। और अल्लाह हर चीज़ से बड़ा समर्थ है।
Know that whatever spoils you take, one-fifth is for Allah and the Messenger, his close relatives, orphans, the poor, and ˹needy˺ travellers, if you ˹truly˺ believe in Allah and what We revealed to Our servant on that decisive day when the two armies met ˹at Badr˺. And Allah is Most Capable of everything.
Quran 8:41
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ये आम आदमी पार्टी दिल्ली में महिलाओं को हज़्ज़ार रूपया देगी प्रति माह. इन से पूछना चाहता हूँ, इस एक हज्जार से आज क्या होता है बे. देना है तो पचास हज्जार दो हर महीने. घर का खर्चा भी चले. फिर देते हैं तुम्हे वोट. कीमत भी लगा रहे हो वोट की तो इतनी कम. महिला को मिलगी हर माह एक हज्जार की पेंशन, नहीं रहेगी कोई टेंशन. मतलब एक हज्जार से टेंशन खत्म हो जाएगी? घटिया लोग, घटिया सोच. ************ मुस्लिम के पास ऑप्शन हैं. राहुल गंदी, केजरीवाल , ममता, अखिलेश लेकिन गैर-मुस्लिम के पास कोई ऑप्शन नहीं सिवा भज्जपा के. और खूब चांदी काटते हैं इस के छुटभैये. इन को कोई मतलब नहीं हिन्दू मुस्लिम से. अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता. ऑप्शन खोजो हिन्दुओं और जिसे चुनो, चाहे कोई भी हो, उस से काम लो, उसे चैन की साँस मत लेने दो. सेवा करने आते हैं, सेवा लो.
ये आम आदमी पार्टी दिल्ली में महिलाओं को हज़्ज़ार रूपया देगी प्रति माह. इन से पूछना चाहता हूँ, इस एक हज्जार से आज क्या होता है बे. देना है तो पचास हज्जार दो हर महीने. घर का खर्चा भी चले. फिर देते हैं तुम्हे वोट. कीमत भी लगा रहे हो वोट की तो इतनी कम. महिला को मिलगी हर माह एक हज्जार की पेंशन, नहीं रहेगी कोई टेंशन. मतलब एक हज्जार से टेंशन खत्म हो जाएगी? घटिया लोग, घटिया सोच. ************ मुस्लिम के पास ऑप्शन हैं. राहुल गंदी, केजरीवाल , ममता, अखिलेश लेकिन गैर-मुस्लिम के पास कोई ऑप्शन नहीं सिवा भज्जपा के. और खूब चांदी काटते हैं इस के छुटभैये. इन को कोई मतलब नहीं हिन्दू मुस्लिम से. अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता. ऑप्शन खोजो हिन्दुओं और जिसे चुनो, चाहे कोई भी हो, उस से काम लो, उसे चैन की साँस मत लेने दो. सेवा करने आते हैं, सेवा लो.
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धर्मों के ठेकेदार तमाम कोशिश करते हैं अपने गढ़ बचाये रखने को.
हमारे जैसे आलोचकों के खिलाफ एक तर्क यह देते हैं कि तुम सिर्फ अपने धर्म को देखो, तुम कौन होते हो हमारे धर्म में टोका-टोका करने वाले?
अब मेरे जैसे आदमी का तो कोई तथाकथित धर्मों जैसा अपना फिक्स धर्म है ही नहीं. फिर मुझे तो किसी धर्म की आलोचना करने का हक़ नहीं.
नहीं?
नहीं. मुझे सब धर्मों की आलोचना का अधिकार है.
क्या शेक्सपियर किसी एक के हैं? क्या शेक्सपियर के लेखन पर सोच-विचार-विमर्श करने का किसी एक व्यक्ति, एक समाज को ही हक़ है? नहीं न.
कोई पढ़े, कोई सोचे, कोई विचार करे, सब का स्वागत है. कोई डंडे-झंडे ले कर बाहर नहीं आ जायेगा. कोई मार-काट नहीं मचा देगा कि मैकबेथ के खिलाफ क्यों लिख दिया या रोमियो जूलिएट के खिलाफ क्यों बोल दिया. न.
लेकिन धर्म? तौबा!
ये तो तौबा-तौबा करा देंगे. आग लगा देंगे. लाशें बिछा देंगे. क्यों? चूँकि ये धर्म हैं ही नहीं. ये गिरोह हैं. ये गुंडे हैं. ये माफिआ हैं. ये अधर्म हैं.
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एक नैरेटिव बार-बार देखता सुनता हूँ कि हम पहले भारतीय, अमेरिकन, जापानी होने चाहियें बाद में हिंदू-मुस्लिम आदि. यानि नेशन स्टेट की धारणा को धर्म-मज़हब के ऊपर होना चाहिए. लेकिन यह बहुत ही बकवास और उथला सा नैरेटिव है यह. असल बात यह है की नेशन स्टेट और ये तथाकथित धर्म दोनों ही आउटडेटिड कांसेप्ट हैं. दोनों की कोई ज़रूरत नहीं है.
हम क्यों भारतीय या चीनी या जापानी होने चाहिए? हम हिन्दू, मुस्लिम भी क्यों होने चाहिए?
हम पूरी दुनिया, पूरी कायनात के हैं और पूरी कायनात हमारी है. हम कॉस्मिक क्यों नहीं होने चाहिए?
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भारत एक सेक्युलर मुल्क है. गुड. यहाँ की स्टेट, यहाँ का निज़ाम सब धर्मों से मुक्त है. सब धर्मों को यहाँ बराबर का हक़ है फलने-फूलने का. बिन सरकारी दखल-अंदाज़ी के.
लेकिन मुझे लगता है इस कांसेप्ट में बहुत कुछ जमा-घटा होने की ज़रूरत है.
सरकार को यह देखना ज़रूरी है कि असल में धर्म है क्या? धर्म की परिभाषा क्या है? किसी भी ऐरे-गैर नत्थू-खैरे को इज़ाज़त दे देंगे क्या कुछ भी धर्म के नाम पर चलाये जाने की?
नहीं न.
तो यह देखना ज़रूरी है कि धर्म के नाम पर क्या पढ़ाया जा रहा है, क्या सिखाया जा रहा है. यदि धर्म के नाम पर अन्य समाजों के प्रति नफरत पढ़ाई जा रही है, हिक़ारत, मार-काट सिखाई जा रही है तो वो धर्म है ही नहीं. अधर्म है और इसे बैन करना चाहिए न कि सरकारी सरंक्षण मिलना चाहिए.
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पापुलेशन ट्रांसफर:-- भारत की सारी राजनीति-समाजनीति आज मुस्लिम केंद्रित है. राजनितिक दल या तो मुस्लिम वोट लेने के चक्कर में हैं या फिर मुस्लिम के खिलाफ वोट लेने के चक्कर में.
बहुत से भारतीय हिन्दू बड़े अफ़सोस में हैं कि मुस्लिम यहाँ क्यों बसे हैं जब पाकिस्तान मुस्लिम को दे ही दिया गया था तो.
फिर से "पापुलेशन ट्रांसफर" का कांसेप्ट उभरने लगा है. मतलब यहाँ के मुस्लिम पाकिस्तान या फिर बांग्लादेश भेज दिए जाएँ और वहाँ के हिन्दू भारत में बुला लिए जाएँ. यह कांसेप्ट हालाँकि अभी बीज रूप में है, लेकिन है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस बार हिन्दू एक इंच भी भू-भाग मुस्लिम को देने वाले हैं अलग से.
और पाक अधिकृत कश्मीर लेने का भाजपा का जो इरादा है वो भी मुझे कोई आसानी से पूरा होता दीखता नहीं. वजह मुस्लिम आबादी है वहाँ की. भारतीय हिन्दू समाज का बड़ा हिस्सा मुस्लिम को एक समस्या की तरह देखता है और भाजपा भी. ऐसे में और मुस्लिम भारत में विलय कर दिए जाएँ यह शायद ही हो.
कुछ सुझाव हैं मेरे पास. एक तो यह कि एक्स -मुस्लिम को बढ़ावा दिया जाये. ये लोग न सिर्फ भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए बहुत ही कीमती हैं. ये हीरो हैं आज के. इस्लाम का मुकाबला करने में ये लोग सब से ज़्यादा काम आ सकते हैं.
दूजा, गैर-मुस्लिम समाज को भी क्रिटिकल थिंकिंग से मान्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाने चाहियें. डिबेट खड़ी करें गली-गली, मोहल्ला-मोहल्ला. किरीटिकल थिंकिग वो ब्रह्मास्त्र है जो पूरी दुनिया का सदियों का वैचारिक कूड़ा ख़ाक कर देगा.
नमन
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Tushar Cosmic
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