Friday, 8 November 2019

वर्दी वाला गुंडा

"पुलिस की ठुकाई" वैसे तो मुझे पुलिस और वकील दोनों से ही कोई हमदर्दी नहीं है लेकिन इसमें पुलिस से कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा चिढ है. वकील पैसा ऐंठते हैं. जायज़-नाजायज़ हर तरीके से. और कोर्ट परिसर में गुंडा-गर्दी भी करते हैं. लेकिन पुलिस नाजायज़ पैसा वसूलती है और हर जगह गुंडागर्दी करती है. पुलिस माफिया है.थाणे इनकी बदमाशी के अड्डे हैं, जहाँ पुलिस किसी को भी अँधा-धुंध कूट सकती है, अपंग कर सकती है, क़त्ल कर सकती है. डंडा इनको समाज ने दिया अपनी रक्षा के लिए लेकिन वही डंडा ये चलाते हैं समाज को धमकाने के लिए, रिश्वत वसूलने के लिए. यकीन जानो अधिकांश अपराध होते ही इसलिए हैं कि पुलिस हरामखोर है. ये पब्लिक के सेवक हैं? रक्षक हैं? नहीं. ये भक्षक हैं. दो-चार सौ में बिक जाते हैं, सरे-राह. यह औकात हैं इनकी. "अगर जनता गलत करती है तो तुम करो न कानूनी कार्रवाई. रिश्वत ले लेते हो तो फिर पब्लिक का वही गलत काम सही हो जाता है क्या? जब तक रिश्वत नहीं गयी जेब में, आंखे तरेरते हो. जेब गर्म होते ही नर्म हो जाते हो." तीस हजारी बवाल के बाद अब ये मानवाधिकार की दुहाई देते फिर रहे हैं. आज बीवी बच्चे सड़क पर उतार लाये हैं. एक फिल्म देखी थी जिसमें विलेन सारी व्यवस्था पर कब्जा कर लेता है. पुलिस कमीश्नर को उल्टा लटका देता है. न्यायधीश पर मुकदमा चलाता है और सारी (कु)व्यव्य्स्था की ऐसी-तैसे कर देता है. अब मैं सोचता हूँ कि वो विलेन था कि हीरो? सब गड्ड-मड्ड हो गया. आपको पता है "बैटमैन" जितना मशहूर है, उससे ज़्यादा उसका विलेन "जोकर " मशहूर है? उसके डायलाग लोग ढूंढ-ढूंढ पढ़ते हैं. अब वेस्ट की बहुत सी फिल्मों के विलेन भी अपना एक फलसफा लिए होते हैं और यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है कि वो विलन हैं या हीरो. हीरो विलेन लगता है और विलेन हीरो. ऐसी ही व्यवस्था तुम्हारी है. पुलिस वाले रक्षक नहीं, भक्षक हैं. तुमने उसे वर्दी दी. हाथ में डंडा दिया. कमर पे गन लटकाई. किसलिए? अपनी रक्षा के लिए. पर वो तुम्हें ही धमकाता रहता है. मिस-गाइड करता है. तुमसे रिश्वत लेता है. ऐसी की तैसी इसकी. समझ लो अच्छे से, उसकी ताकत तुम्हारी दी हुयी है. छीन लो उससे यह ताकत जो वो तुम्हारे ही खिलाफ इस्तेमाल करता है. अभी तो तीस हजारी में कुछ खास हुआ भी नहीं है. दो-चार पुलिस वाले पिटे हैं तो वकील भी पिटे हैं. वकीलों पर तो गोलियां भी चली हैं. और पुलिस वाले चले मानवाधिकार चमकाने. साला तुम मानव कहाँ हो? तुम तो पुलिस वाले हो. तुमने आज तक समाज को सिर्फ पीटा है. अभी तो तुम्हारी पिटाई ठीक से शुरू भी नहीं हुई. और लगे बिलबिलाने. कितने ही लोगों को तुमने जेल पहुंचा दिया, नाजायज़ केस बना कर. कितने ही लोगों को ठाणे में ले जाकर पीट-पीट कर अपंग कर दिया. कितनों को क़त्ल कर दिया थाणे में. कितनों की रोज़ तुम बिन वजह बे-इज्ज़ती करते हो. कितनों ही से रिश्वत लेते हो. तुम मानव हो? न. न. तुम पुलिस वाले हो. वर्दी-धारी. अभेद वर्दी-धारी. वर्दी-धारी गुंडे. वर्दी वाले गुंडे.

हमें ख़ुशी हैं कि तुम पिटने लगे हो. मैं बस खुल्ले में कह रहा हूँ. एक सर्वे करवा लो. चाहो तो एक गुप्त वोटिंग करवा लो. लगभग हर वोट तुम्हारे खिलाफ़ जायेगा.पुलिस की पिटाई से समाज खुश है लेकिन यह कोई हल नहीं है. हम तुम्हारी वर्दी पर कैमरे लगवाना चाहते हैं. हम पुलिस स्टेशन पर कमरे लगवाना चाहते हैं. हम हर उस जगह कैमरे चाहते हैं जहाँ तुम मौजूद होवो. फिर देखते हैं तुम जनता से 'ओये' भी कैसे कहते हो. जरा बदतमीजी की तो तुम्हारी वर्दी छीन ली जाएगी और तुम्हें लाखों जुर्माना ठोका जायेगा. अबे ओये, समाज विज्ञान के ठेकेदारों, अक्ल के अन्धो, अगर किसी को ताकत देते हो तो उस पर कण्ट्रोल कैसे रखोगे यह भी सोचो. तुमने पुलिस को ताकत दी. असीमित. लेकिन कण्ट्रोल तुम्हारा है नहीं तो वो तो करेगा ही मनमानी. मैं हैरान हो जाता हूँ कि एक थर्ड-रेटेड इन्सान कैसे रौब मार रहा होता है अच्छे खासे लोगों पर! दिल्ली में तो पुलिस बात ही तू-तडांग से करती है. बदतमीज़ी अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझती है. यह मनमानी दिनों में रोक सकते हो तुम चूँकि पुलिस के पास अपने आप में कोई ताकत है ही नहीं. सो थोडा पिटने दो पुलिस को, यह शुभ है समाज के लिए. थोडा और पिटने दो पुलिस को, यह और शुभ है समाज के लिए. लेकिन साथ में इनकी वर्दी पर, थानों पर, ठिकानों, पाखानों पर सब जगह कैमरे फिट करो. तब अक्ल ठिकाने आ जाएगी, है तो पिद्दी भर, वो भी भ्रष्ट, लेकिन ठिकाने आ जाएगी. कण्ट्रोल समाज के हाथ आ जायेगा. और समाज को सही अर्थों में रक्षक मिल जायेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक

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