यह गुरुदत्त जी का उपन्यास है. जहाँ तक याद पड़ता है, पहली बार यह मैंने संघ के कार्यालय में देखा था.
फिर बाद में "हिंदी पुस्तक भण्डार" क्नॉट प्लेस में यह किताब दिखती थी. न मैंने खरीदी, न पढ़ी. अपने इस लेख का शीर्षक धन्यवाद सहित गुरुदत्त जी से ले रहा हूँ.
जिस सामाजिक व्यवस्था में हम हैं. वो मुख्यतः दो रास्तों से आती है.
और दोनों में कनफ्लिक्ट है. कुश्ती है.
दोनों गुत्थम-गुत्था हैं. कुश्ती क्या है MMA फाइट है.
दो लहरों की टक्कर है.
इस व्यवस्था का एक हिस्सा आता है तथा-कथित धर्मों से.
ईसाईयत में पहले चर्च और कोर्ट एक ही होते थे. "जोन ऑफ़ आर्क" को जिंदा जला दिया जाने का कानूनी फैसला चर्च से ही दिया गया था. कानून कोई धर्म से अलग नहीं था.
मुस्लिम समाज की व्यवस्था कहाँ से आती है. कुरान से.
मुस्लिम समाज का कानून कहाँ से आता है? कुरान से.
शरियत क्या है? कुरान से निकला कायदा-कानून.
सिक्खी में भी "रहत मर्यादा" का कांसेप्ट है, जो गुरुओं की शिक्षाओं से आता है.
क्या है मेरा पॉइंट?
पॉइंट यह है कि तथाकथित धर्मों से समाज में एक व्यवस्था निकलती है. कानून निकलता है. राजनीति निकलती है. यह एक लहर है.
एक दूसरी लहर है. इस लहर से भी एक सामाजिक व्यवस्था निकलती है.
इस लहर में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे फलसफी शामिल हैं. इसमें शेक्सपियर, ऑस्कर वाइल्ड, दोस्तोवस्की, प्रेम चंद मुंशी, खुशवंत सिंह जैसे साहित्यकार हैं. इसमें अर्थ-शास्त्री शामिल हैं. इसमें समाज-शास्त्री शामिल हैं. इसमें डार्विन जैसे वैज्ञानिक हैं. इसमें फ्रायड जैसे मनो-वैज्ञानिक हैं. यह व्यवस्था जड़ नहीं है. यह चलायमान है. यह बदलाव का स्वागत करती है. यह बदलाव लाती है. बदलाव के साथ बदलती है. Change is the only Constant.
जो लहर धर्मों से आती है, वो जड़ है और इन्सान को जड़ ही बनाये रखना चाहती है. वो हर तरह के बदलाव का विरोध करती है.
सबसे ज्यादा जड़ इस्लाम है. "कुरान आसमान से उतरी इलाही किताब है. उससे इतर कुछ नहीं हो सकता. आखिरी पैगम्बर हो चुके."
बाकी समाजों ने फिर भी थोड़ी-बहुत जड़ता छोड़ दी है. जैसे ईसाईयत ने बाकायदा "जोन ऑफ़ आर्क" को जलाने के लिए माफी माँगी. गलीलियो को चर्च में बेईज्ज़त करने के लिए माफी माँगी.
सिक्खी में कृपाण रखना शामिल है लेकिन फिर छोटी सी प्रतीक रुपी कृपाण रखने पे रज़ामंदी दिखा दी.
लेकिन आपको फिर भी मुस्लिम औरतें बुरका और सिक्ख पगड़ी न उतारने की जिद्द करते दीखते हैं.
तो यह है टक्कर.
एक लहर विश्वास पर टिकी है
तो
दूजी विचार पर.
एक लहर किसी किताब को ग्रन्थ मान कर वहीं रुक चुकी है
तो
दूजी हर किताब पर चैलेंज स्वीकार करती है.
एक लहर महान शख्सियतों पर टीका-टिपण्णी पर क़त्ल तक करने पर उतारू है
तो
दूजी हर आलोचना का स्वागत करती है.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
एक लहर को दक्षिण मार्ग
और
दूजी को वाम मार्ग
कहा जाता है.
समाज पर हावी विचारधारा ने खुद को दक्षिण पंथी कहा
और
विपरीत विचार वालों को वामपंथी कहा है हमेशा.
Right is right
and
left is wrong.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
धर्मों से सामाजिक व्यवस्था में जो आता है, वो गतिरोध पैदा करता है. सारी दिक्कत ही यही है.
हम अपने साहित्यकार की नहीं सुनते,
समाज शास्त्री की नहीं गुणते,
वैज्ञानिक की नहीं मानते,
मनो-वैज्ञानिक की बात नहीं जानते.
हम इनको बहुत कम सम्मान देते हैं.
हम इन पर बहुत कम ध्यान देते हैं.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
सुरेन्द्र मोहन पाठक साहेब की आत्म-कथा पढ़ रहा था.
उसमें एक किस्सा कुछ-कुछ यूँ है.
एक नौजवान रोज़गार दफ्तर नौकरी मांगने का आवेदन करने जाता है.
उससे पूछा जाता है, "क्या करते हो?"
तो उसका जवाब है,
"कहानी लिखता हूँ,
कविता कहता हूँ,
नाटक खेलता हूँ."
"उसके अलावा क्या करते हो?"
"कुछ नहीं."
"कहानी, कविता और नाटक मात्र के लिए कोई नौकरी नहीं है, कोई सैलरी नहीं है."
"तो फिर प्रेम चंद को क्यों पढ़ाते हो?
निराला को क्यों गाते हो?
भगवती चरण वर्मा को क्यों समझाते हो?
पढ़ाते हो तो पढाने से क्यों कमाते हो?
अगर साहित्य लिखना कोई काम नहीं तो साहित्य पढ़ाना काम कैसे हो गया?"
मुझे याद है. मैं बठिंडा के 'महावीर सनातन धर्म' पब्लिक स्कूल में था. दसवीं में स्कूल में टॉप किया. लेकिन तब तक मुझे साहित्य, फिलोसोफी, समाज विज्ञान जैसी चीज़ों को पढ़ने-समझने का कीड़ा काट चुका था.
कीड़ा नहीं सांप था.
सांप नहीं सांप का बाप था.
सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. क्यों? चूँकि मुझे साहित्य पढना था. नतीजा ? मेरी आर्ट्स की पढाई से, साहित्य की पढ़ाई से मुझे आज तक चवन्नी की कमाई नहीं हुई. जबकि मेरे से कहीं फिस्सडी छात्र बढ़िया से फिट हो गए.
हम धर्म की बकवास-बाज़ी करने वालों को राजा जैसा जीवन देते हैं.
उन्हें महंगी कारें गिफ्ट कर देते हैं.
पञ्च तारा होटलों में शिफ्ट कर देते हैं.
धार्मिक स्थलों को सोने-चांदी से मढ़ देते हैं, लेकिन अपने कलाकारों, लेखकों को, फ़लसफ़ी को खड्डे-लैंड लगा के रहते हैं.
मिर्ज़ा गालिब उधार ले के गुज़र-बसर करते थे.
"कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हांं
रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन"
विन्सेंट वैनगोग ज़िन्दा थे तो अपनी एक पेंटिंग नहीं बेच पाए. पागल हो गए, आत्म-हत्या कर ली पागलपन में ही.
खैर, Godfather-१ में डॉन कोर्लेओन अपने बेटे को समझाता है, "जो भी तेरे साथ विरोधी गैंग के बॉस से मीटिंग फिक्स करवाएगा, वो गद्दार होगा." आप समझ लीजिये, जो भी धार्मिक मान्यताओं को सामाजिक व्यवस्था पर आरोपित करना चाहते है, गद्दार है. समाज में वैज्ञानिकता लाने के रास्ते में रोड़ा है.
ये जो दो लहरों की टक्कर है, MMA फाइट है, इसमें आपने किसे जितवाना है? सोच लीजिये.
कमेंट में बताईये
और
अगर इस लेख में से कुछ ले जाने लायक है तो उसे अपने साथ घर ले जाईये.
नमन....तुषार कॉस्मिक
इसी लेख को अगर सुनना हो तो लिंक मौजूद है:--
https://soundcloud.com/user-363372047/25-nov-939-pm2
फिर बाद में "हिंदी पुस्तक भण्डार" क्नॉट प्लेस में यह किताब दिखती थी. न मैंने खरीदी, न पढ़ी. अपने इस लेख का शीर्षक धन्यवाद सहित गुरुदत्त जी से ले रहा हूँ.
जिस सामाजिक व्यवस्था में हम हैं. वो मुख्यतः दो रास्तों से आती है.
और दोनों में कनफ्लिक्ट है. कुश्ती है.
दोनों गुत्थम-गुत्था हैं. कुश्ती क्या है MMA फाइट है.
दो लहरों की टक्कर है.
इस व्यवस्था का एक हिस्सा आता है तथा-कथित धर्मों से.
ईसाईयत में पहले चर्च और कोर्ट एक ही होते थे. "जोन ऑफ़ आर्क" को जिंदा जला दिया जाने का कानूनी फैसला चर्च से ही दिया गया था. कानून कोई धर्म से अलग नहीं था.
मुस्लिम समाज की व्यवस्था कहाँ से आती है. कुरान से.
मुस्लिम समाज का कानून कहाँ से आता है? कुरान से.
शरियत क्या है? कुरान से निकला कायदा-कानून.
सिक्खी में भी "रहत मर्यादा" का कांसेप्ट है, जो गुरुओं की शिक्षाओं से आता है.
क्या है मेरा पॉइंट?
पॉइंट यह है कि तथाकथित धर्मों से समाज में एक व्यवस्था निकलती है. कानून निकलता है. राजनीति निकलती है. यह एक लहर है.
एक दूसरी लहर है. इस लहर से भी एक सामाजिक व्यवस्था निकलती है.
इस लहर में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे फलसफी शामिल हैं. इसमें शेक्सपियर, ऑस्कर वाइल्ड, दोस्तोवस्की, प्रेम चंद मुंशी, खुशवंत सिंह जैसे साहित्यकार हैं. इसमें अर्थ-शास्त्री शामिल हैं. इसमें समाज-शास्त्री शामिल हैं. इसमें डार्विन जैसे वैज्ञानिक हैं. इसमें फ्रायड जैसे मनो-वैज्ञानिक हैं. यह व्यवस्था जड़ नहीं है. यह चलायमान है. यह बदलाव का स्वागत करती है. यह बदलाव लाती है. बदलाव के साथ बदलती है. Change is the only Constant.
जो लहर धर्मों से आती है, वो जड़ है और इन्सान को जड़ ही बनाये रखना चाहती है. वो हर तरह के बदलाव का विरोध करती है.
सबसे ज्यादा जड़ इस्लाम है. "कुरान आसमान से उतरी इलाही किताब है. उससे इतर कुछ नहीं हो सकता. आखिरी पैगम्बर हो चुके."
बाकी समाजों ने फिर भी थोड़ी-बहुत जड़ता छोड़ दी है. जैसे ईसाईयत ने बाकायदा "जोन ऑफ़ आर्क" को जलाने के लिए माफी माँगी. गलीलियो को चर्च में बेईज्ज़त करने के लिए माफी माँगी.
सिक्खी में कृपाण रखना शामिल है लेकिन फिर छोटी सी प्रतीक रुपी कृपाण रखने पे रज़ामंदी दिखा दी.
लेकिन आपको फिर भी मुस्लिम औरतें बुरका और सिक्ख पगड़ी न उतारने की जिद्द करते दीखते हैं.
तो यह है टक्कर.
एक लहर विश्वास पर टिकी है
तो
दूजी विचार पर.
एक लहर किसी किताब को ग्रन्थ मान कर वहीं रुक चुकी है
तो
दूजी हर किताब पर चैलेंज स्वीकार करती है.
एक लहर महान शख्सियतों पर टीका-टिपण्णी पर क़त्ल तक करने पर उतारू है
तो
दूजी हर आलोचना का स्वागत करती है.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
एक लहर को दक्षिण मार्ग
और
दूजी को वाम मार्ग
कहा जाता है.
समाज पर हावी विचारधारा ने खुद को दक्षिण पंथी कहा
और
विपरीत विचार वालों को वामपंथी कहा है हमेशा.
Right is right
and
left is wrong.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
धर्मों से सामाजिक व्यवस्था में जो आता है, वो गतिरोध पैदा करता है. सारी दिक्कत ही यही है.
हम अपने साहित्यकार की नहीं सुनते,
समाज शास्त्री की नहीं गुणते,
वैज्ञानिक की नहीं मानते,
मनो-वैज्ञानिक की बात नहीं जानते.
हम इनको बहुत कम सम्मान देते हैं.
हम इन पर बहुत कम ध्यान देते हैं.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
सुरेन्द्र मोहन पाठक साहेब की आत्म-कथा पढ़ रहा था.
उसमें एक किस्सा कुछ-कुछ यूँ है.
एक नौजवान रोज़गार दफ्तर नौकरी मांगने का आवेदन करने जाता है.
उससे पूछा जाता है, "क्या करते हो?"
तो उसका जवाब है,
"कहानी लिखता हूँ,
कविता कहता हूँ,
नाटक खेलता हूँ."
"उसके अलावा क्या करते हो?"
"कुछ नहीं."
"कहानी, कविता और नाटक मात्र के लिए कोई नौकरी नहीं है, कोई सैलरी नहीं है."
"तो फिर प्रेम चंद को क्यों पढ़ाते हो?
निराला को क्यों गाते हो?
भगवती चरण वर्मा को क्यों समझाते हो?
पढ़ाते हो तो पढाने से क्यों कमाते हो?
अगर साहित्य लिखना कोई काम नहीं तो साहित्य पढ़ाना काम कैसे हो गया?"
मुझे याद है. मैं बठिंडा के 'महावीर सनातन धर्म' पब्लिक स्कूल में था. दसवीं में स्कूल में टॉप किया. लेकिन तब तक मुझे साहित्य, फिलोसोफी, समाज विज्ञान जैसी चीज़ों को पढ़ने-समझने का कीड़ा काट चुका था.
कीड़ा नहीं सांप था.
सांप नहीं सांप का बाप था.
सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. क्यों? चूँकि मुझे साहित्य पढना था. नतीजा ? मेरी आर्ट्स की पढाई से, साहित्य की पढ़ाई से मुझे आज तक चवन्नी की कमाई नहीं हुई. जबकि मेरे से कहीं फिस्सडी छात्र बढ़िया से फिट हो गए.
हम धर्म की बकवास-बाज़ी करने वालों को राजा जैसा जीवन देते हैं.
उन्हें महंगी कारें गिफ्ट कर देते हैं.
पञ्च तारा होटलों में शिफ्ट कर देते हैं.
धार्मिक स्थलों को सोने-चांदी से मढ़ देते हैं, लेकिन अपने कलाकारों, लेखकों को, फ़लसफ़ी को खड्डे-लैंड लगा के रहते हैं.
मिर्ज़ा गालिब उधार ले के गुज़र-बसर करते थे.
"कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हांं
रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन"
विन्सेंट वैनगोग ज़िन्दा थे तो अपनी एक पेंटिंग नहीं बेच पाए. पागल हो गए, आत्म-हत्या कर ली पागलपन में ही.
खैर, Godfather-१ में डॉन कोर्लेओन अपने बेटे को समझाता है, "जो भी तेरे साथ विरोधी गैंग के बॉस से मीटिंग फिक्स करवाएगा, वो गद्दार होगा." आप समझ लीजिये, जो भी धार्मिक मान्यताओं को सामाजिक व्यवस्था पर आरोपित करना चाहते है, गद्दार है. समाज में वैज्ञानिकता लाने के रास्ते में रोड़ा है.
ये जो दो लहरों की टक्कर है, MMA फाइट है, इसमें आपने किसे जितवाना है? सोच लीजिये.
कमेंट में बताईये
और
अगर इस लेख में से कुछ ले जाने लायक है तो उसे अपने साथ घर ले जाईये.
नमन....तुषार कॉस्मिक
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